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Showing posts from 2021

नासदीय सुक्तं एक विश्लेषण

नाससदीय सुक्तं -ऋग्वेद मंडल १० सूक्त १२९ *१.नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।* *किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥* आदि में ना ही किसी (सत्)आस्तित्व था और ना ही (असत्) अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत एक परिपुर्ण अदृश्य निराकार निर्गुण र्निविकलप ब्रह्म से हुई। तब न हवा थी, ना आसमान था और समय भी नहीं था परब्रह्म के परे कुछ था, *२. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।* *आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥* चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था। उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे, उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस उसके शक्ति से व्याप्त शब्द आकाश था अर्थात शब्द रुप के ॐ कार स्वरुप अक्षर ब्रह्म उसके बल था मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से एक तार (string) रुप में सदा परब्रह्म में व्यक्त हो *३. तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।* *तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्

पालयन अनुक्रम स्वरूप तथा आगम सुत्र

पालयन अनुक्रम स्वरूप तथा आगम सुत्र संस्कृत व्याकरण में आगम सुत्र का महत्व ऐसा है कि इसमें एक अक्षर का लोप हो जाता है उसके स्थान पर दुसरे अक्षर का अजाते हैं। जैसे स्वर वर्णों का अनुनासिक में उच्चारण होने पर वो लोग  हो जाता है क्योंकि वहां इत् संज्ञा प्रतिपादन होता है उसे संस्कृत भाषा में पालयन अनुक्रम अक्षर बोल सकते हैं जैसे राम + सु प्रत्यय में उ का जैसे स् + उ में उ कार का अनुनासिक रूप उच्चारण से उकार लोप हो जाता हैं क्योंकि वहां इत् प्रतिपादन होता है यह निर्देश व्याकरण अद्योच्चारणं शब्द से निर्देशित करते हैं। हमें लगता है संस्कृत से ही सी भाषा का विकास हुआ हैं। धन्यवाद हर हर महादेव 🙏

वेदज्ञान तथा सी भाषा

वेदज्ञान तथा सी भाषा  वेद में विषय का संधान करते हैं इससे निपात बोलते हैं सी भाषा में इसे objective code कहते हैं यहां तो विषय का भेद होते हैं जैसे अ स्वारादि इकार प्रत्यक्ष गोचर रूपत्व प्रकृति प्रत्ययान्तक हैं। इसलिए सी को भगवान का प्रोग्रेम भाषा कहते हैं। ऐसा ही वेद में शं प्रत्यय इत्यादि का संधान में अलग अलग अर्थोप्ति होता है यही objective code preference हैं यह वेद ज्ञान हैं।  हालांकि आधुनिक सी भाषा में कवेल  अंग्रेजी लिखते हैं ऐसा नहीं है की अन्य भाषाओं के अक्षर नहीं लिख सकते हैं। उसके केलिए अलग  संकेत वर्गीकरण कर सकते हैं धन्यवाद हर हर महादेव 🙏

व्याकरण ज्ञान तथा सी भाषा विकास

व्याकरण ज्ञान तथा सी भाषा विकास व्याकरण एक ऐसा विषय है जिसे वेद का मुख कहा हैं। अब मुख एक प्रधान प्रत्ययंत्क हैं अब इसे कंप्यूटर भाषा में header file  कहते हैं जैसे सी भाषा में लिखते हैं # include <std.io>•h  इसे लिखने मुख्य उद्देश्य है ये एक पहले ही निर्देशित कृत्य है ये संक्षिप्त हो जैसे यहां io ये एक ऐसा कृत्य है जो पहले से निर्देशित किया है ये हर एक software में होते हैं । इसे संस्कृत भाषा में  प्रक्रिया सामर्गी  कहते हैं । जैसे पाणिनि महार्षि जी के दो सुत्र में ये बात स्पष्ट करेंगे जब हम व्याकरण में पहले निविष्ट में आदिरत्येन सहेता इसमें प्रत्याहार सुत्र निर्देशित करते हैं जैसे दो शब्द में अनेक शब्द वाच्य को ग्रहण करते हैं जैसे अण् प्रत्याहार में अनेक वचन लुप्त हैं जैसे इसमें मध्याम अक्षर को भी ग्रहण किया जायेगा अ बोलने जैसे आ इ,ई ई,उ,ऊ ग्रहण किया जायेगा ये संस्कृत भाषा पहले दिपद हैं अ और ण् यहां पहले अक्षर ही header अर्थात प्रधान हैं। इसके व्याख्या जो पुर्वं न होते हुए भी परम हैं। वहीं आदि हैं। दुसरे सुत्र अणुदित सुवर्णस्य च प्रत्ययः यहां दीर्घ वाले अक्षर होते हैं। यही नियम

C programming in Vedas

C programming in Vedas C एक मध्यमवर्गीय भाषा हैं अर्थात यंत्र के संबंंधित भाषा को उच्चतम भाषा में बदल सकते हैं यही सी का मुख्य उद्देश्य है  वेद में कैसे सी भाषा हो सकता हैं? अब खुद के मन में विचार आये होगा आखिर कार वेद में ऐसा क्या है? इसका उत्तर निकालने हेतु हम इसे ही तीन भागों में बढ़ देंगे। १) भाषाज्ञान  २) व्याकरण ज्ञान ३) वेद ज्ञान भाषा ज्ञान समझने हेतु एक व्याकरण उससे ही भाषा का नियम वा syntax कहते हैं अब  आप के प्रश्न हो सकता है संस्कृत भाषा ही क्यों संस्कृत भाषा में एक द्वि तथा तीन पद होता हैं इसके एक भाषा के आधार तथा दत्त  सामग्री को data कहते हैं पहले यांत्रिक भाषा में द्विसंख्यात्मक अर्थात binary अंक निर्देशित करते हैं दुसरा अक्षरात्मक हैं इसे लोप आगम वा आदेश के अनुसार मानते हैं इसमें अक्षर का उत्पत्ति संधान ही मूल हैं लेकिन संख्या नियम में एक ही क्रिया को कही बार दौरान एक विधि नियम है यही उसकी मूल हैं ऐसा करने का कार्य को कंप्यूटर में  loop कहते हैं ये हो गया भाषा विज्ञान इसे पहले नियमक रूप मानते हैं इसके कारण एकान्तिक वा अनेकान्तिक निर्देशित क्रिया होती है। आजकल इतना ही धन

विष्णु भगवान को वैकुंठ कैसे मिला

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम् । पदं यद्विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्यं नाम गोनाम्॥३॥ ऋग्वेद-५:३:३ अनुवाद  हे अग्निदेव ! आपकी शोभा बढ़ाने के लिए मरुद्गण शोधन प्रक्रिया चलाते हैं । हे रुद्ररूप ! आपका जन्म सुन्दर और विलक्षण है । विष्णुदेव आपके निमित्त उपमा योग्य पद निर्धारित करते हैं। आप देवों के इन गुह्य अनुग्रहों को संरक्षित करें ॥३॥ यहां अग्नि मतलब भगवान शिव ही हैं क्योंकि शास्त्रों में ऐसा कहां है देखिए कालाग्नि रूद्र उपनिषद में लिखा है अ कार उ कार म कार ती रेखा अग्नि का हैं सब लोग लोकान्तर में  १)  प्रथम रेखा गार्हपत्य अग्निरूप, 'अ' कार रूप, रजोगुणरूप, भूलोकरूप, स्वात्मकरूप, क्रियाशक्तिरूप, ऋग्वेदस्वरूप, प्रातः सवनरूप तथा महेश्वरदेव के रूप की है॥६॥ २) द्वितीय रेखा दक्षिणाग्निरूप, 'उ'कार रूप, सत्त्वरूप, अन्तरिक्षरूप, अन्तरात्मारूप, इच्छाशक्तिरूप, यजुर्वेदरूप, माध्यन्दिन सवनरूप एवं सदाशिव के रूप की है॥७॥ ३ तीसरी रेखा आहवनीयाग्नि रूप, 'म' कार रूप, तमरूप, द्यु-लोकरूप, परमात्मारूप, ज्ञानशक्तिरूप, सामवेदरूप, तृतीय सवनरूप तथा महादेवरूप की

धर्म कैसा रहेगा कलयुग में शिव पुराण

१) कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था प्रायः नष्ट हो जायेगा। २) प्रत्येक वर्ण तथा वर्णाअश्राम त्याग करनेवाले मनुष्य अपने वर्ण से विपरित कार्य  में ही अपना सुख प्राप्त करेंगे। ३) इसके कारण लोगों में वर्णसंकरता बढ जायेगी। परिवार टुट जायेंगे धर्म बिखर जायेगा।एवं लोगों के पतन होगा। ४) प्राकृतिक आपदाओं से लोगों कि जगह जगह पर मृत्यु होगी। ५) धन का क्षय होगा लोगों को लोभ के प्रवृत्ति बढ़ जायेगा ६) ब्राह्मण प्रायः लोभी हो जायेंगे वेद को बेचकर आजिविका करने वाले होंगे ७) मद मोह में उल्लासित होकर दुसरे को टोकने वाले होंगे। ८) पुजा पाठ नहीं करेंगे तथा ब्राह्म ज्ञान शुन्य होंगे। ९) क्षत्रीय प्रायः अपने धर्म का विपरित होकर कुंसगी पापि एवं व्योभीचारि होंगे। ९०) शौर्य पराक्रम से शुन्य हो जायेंगे। ११) शुद्रवत काम करने लगेंगे और शुद्र समान हो जायेंगे । १२) सब काम के आधीन होंगे। १३) वश्य अपने धर्म से विमुख हो जायेंगे १४) कुमार्ग से धन अर्जित करने में लगे रहेंगे। १५) तोलमौपन में अधिक ध्यान देते हुए लोगों के धन अर्जित करने वाले होंगे १६) शुद्र भी अपने धर्म से विमुख होंगे। १७) सिर्फ अच्छी वेशभूषा में आ

लिंग पुराण में सृष्टि रहस्य

सृष्टि का कथन लिंग पुराण १)अव्यक्त सदाशिव का अल्लिंग रूप से लिंग रूप अर्थात प्रपंच का निर्माण हुआ। २) हमारे तीन लिंग रूप है अल्लिङ्ग लिङ्ग तल्लिङ्ग ३) अलिङ्ग अव्यक्त कारण है लिंग रूप का कारण तल्लिंग प्रधान कारण है। अल्लिंग में मेरा अर्थात सदाशिव रूप ही विद्यमान हैं। ४) लिंग रूप गन्ध रस शब्द स्पर्श रूपादि गुणों से युक्त हैं इसे कोई प्रपंच कहते हैं। ५) अल्लिंग रूप इन सब से वर्जित हैं ये अद्वैत तत्व है इनमें सिर्फ एक वस्तु प्रतिष्ठित हैं वहीं में हुं ६) तल्लिङ्ग रूप मेरा प्रधान कारण है इन कारण से ही प्रपंच बना हैं इनको विष्णु कहते हैं ये मेरा शैवा रूप को दर्शाता हैं ७) यह तत्व सात आठ ग्यारह रूपों में विभक्त है ये सब हमासे युक्त तथा उत्पन्न हुआ है इसलिए इन्हें विभु कहते हैं। ८) हमारे सात तत्वों में उदर्व  एवं अधो भाग के सात लोक लोकान्तर अभिव्यक्त हैं।  ९) सत्यतपज्ञानजनमर्हसुर्वभुर्वभुः ये उधर्व में स्थित हैं। १०) अतलवितलसुतलतलातलमहातलरसातलपातलः ये सब अधो भाग में स्थित है ११) हमारे ग्यारह तत्वों में पांच ज्ञानेन्द्रियो पांच कर्मेंद्रियों एक मन सामसित हैं।

वेदों में कंप्यूटर विज्ञान

भाषा का मूलभूत नियम का तहत प्रत्येक इकाई अन्तिम चरम एक निपता होता हैं निपता सिर्फ अव्यय बल्कि विशेषण हैं जैसे पुर्व संधान में स्वर ही जैसे अकारांत इकारन्त शब्दों में भेद होकर कोई शब्द पुल्लिंग स्त्रीलिंग उभय लिंग नपुंसक लिंग हो जाता हैं संस्कृत ऐसा शब्द जिसमें पुल्लिंग वा नपुंसक लिंग हैं जैसे कलत्रं दारा शब्द है यहां इनके शब्दिक अर्थ पत्नी होती है लेकिन ये शब्दों रूप पुल्लिंग और नपुंसक लिंग बनते हैं। पाणिनि महार्षि और वररूचि जी ने इनका सुत्र संधान करते हुए लिखते हैं। स्त्री वाचकानां पदनाम न लिङ्गवचनो भेदो इसके चलते प्राचीन समय यंत्र होते थे। क्यों कि आचार्य पिंगल के अनुसार प्रत्येक छन्द में २ पाद ४ पाद ३ पाद  होते हैं इनका प्रत्येक बाद में द्विपद लघु तथा गुरु का संकीर्ण हैं इनसे ही द्विमानीयसञ्चिका द्विमानीयसङ्ख्या द्विमानीयगवेषण द्विमानीयान्वेषण द्विमानपद्धति   द्वैध द्विगुण   द्विमान द्व्यंश द्विमय द्वय द्वयि द्विमान इत्यादि शब्द binary system केलिए प्रयुक्त होता हैं इन शब्दों का प्रयोग अलग-अलग संदर्भ में लेते हैं ये चार अर्थ गणकिकरण केलिए प्रयुक्त होता हैं। द्विमानीयसञ्च

गणपति भगवान के मयुरेश्वर अवतार रहस्य(गणेश पुराण)

गणेश परब्रह्म की मयुरेश्वर अवतार का रहस्य  अष्टविनायक का अवतार में एक अवतार मोरेश्वर या मयुरेश्वर हैं कहानी इस प्रकार उद्धृत किया गया है जब मता पर्वती गं बीजाक्षर का तप की तो गणेश भगवान जो कि परब्रह्म परमात्मा हैं वो माता पार्वती का बेटे के रूप में अवतरित होने का वर दी अब गं बीजाक्षर में ऐसा क्या है जिससे भगवान गणेश खुश होते हैं।ग का अर्थ गुरुस्त वर्ग है इसमें सुक्ष्म तन्मत्र से गुरु तन्मत्र में अनुशिलन होने का रहस्य छुपा है समस्त गोचर वस्तु गुरु रूप में अभिप्रेत होता है जब सिन्धु नामक राक्षस अमृत मय सुवर्ण अन्डो से अमृत्व को पा लिया उन्होंने डर के मारे वो तीन अण्डे जो वर के रूप में दिया गया था उसे निगल लिया क्यों कि भगवान सुर्य देव ने उन्हें तुट जाने का अर्थ से बोलते थे कि इनके नष्ट होने पर सारे अमृत्व को खो देगा तो उन्होंने उसे निगल लिया अब परब्रह्म परमात्मा गणपति भगवान आम्र वृक्ष कि नीचे एक अण्डे को उनके गुरूत्व पैर को तब  आघात किया तो अण्डे फुट कर उनसे मयुर उत्पन्न हुआ उनको गणेश भगवान आपने वाहन बनाकर राक्षस के पेट चीर दिया उनसे अमृत मय अण्डे फुट गया और राक्षस जो तीनों लोकों में अन्

गजासुर का अलोकिक अर्थ

गणपति भगवान का मस्तक हाथी का क्यों? गज अर्थात ग कार कण्ठ में अभीप्रेत होता है जैसे यहां उपनिषद का प्रमाण है देखिए इसका प्रथम रूप 'ग' कार (ग) है, मध्यम रूप 'अ' कार है, अनुस्वार अन्त्यरूप है तथा बिन्दु ही इसका उत्तर रूप है। नाद ही इसका सन्धान है और संहिता इसकी सन्धि कही गई है। ऐसी ही यह गणेश विद्या है॥८॥  अब अ कार में स्वयं गणपति परब्रह्म समाहित है अनुसार में लय होता है ज कार में पंच प्राण और पंच देवता सिद्ध होते हैं इनका अग्र पुजा भगवान गणेश का होते हैं इसलिए वहीं ब्रह्म हैं।  मस्तक छेद का अर्थ दुःख का नष्ट होना है तलम् न्याय के अनुसार जातां इति जगत् होता है । जिस प्रकार ये जगत दुःख का मूल कारण है शिव प्राण हैं तो इसमें जब हम प्राण को जानते हैं तो दुःख त्रय का नाश होकर गणपति का सायुज्य प्राप्त होता है एवं मोक्ष मिल जाता हैं मात पार्वती प्रकृति स्वरूपा हैं तो भगवान शिव प्राण स्वरूप हैं जब भगवान शिव मस्तक जोड़कर सिद्ध करते हैं जब हम प्रदान को जानेंगे तो सायुज्य मुक्ति प्राप्त होता है इसमें गजासुर नामक असुर का मस्तक छेदन किया था तो इसका अर्थ ये हुआ कि असुर प्रवृत्ति वाले भी

गणेश चतुर्थी पर गणपति भगवान का रोचक तथ्य-१

गणपति भगवान का रोचक तथ्य  गणेश भगवान हमारे पांच ब्रह्म में से एक माना जाता हैं गण्पत्यागम के अनुसार गणपति भगवान का ३२ रूप हैं। इसे द्वात्रिंशति कहा जाता है इसके अंक गणित अनुसार ऐसा लिख सकते हैैं। ३और २ लेकिन यहां दोनों ० समाहित हैं। तलम् न्याय में भगवान गणेश को त्रय दुःख विनाशक और सत रजस तमस का त्रय रूपात्मक ब्रह्म मानते हैं। शुन्य का अर्थ अभाव नहीं बल्कि पुर्ण हैं इसलिए भगवान गणपति भगवान को परिपूर्ण  ब्रह्म कहते हैं इनका कुछ रूप इस प्रकार हैं १)बाल गणपति : यहां गणपति बाल रूप में गणपति इसलिए बताते हैं कि बकार को तंत्र में तो ओष्ट  अर्थात अभ्यांतर भेद में मानते हैं। सब ज़बान के अग्र में अर्थात जिह्वाग्र में अग्नि रूप समाहित होता है तो ब कार अर्थात गणपति भगवान का बाल्य रूप प्रकट होता है इसका बाल गणपति की रूप में बताते हैं। जिस प्रकार बाल सुर्य उदित होने पर अर्थात शुभा के समय सुर्य तम्र वर्ण का होता हैं उसी प्रकार गणपति भगवान ताम्र और रक्त वर्ण के होते हैं लकार का अर्थ उत्पत्ति लकार पंच देवता में त्रिशक्ति सहित हैं इससे बाल गणपति का प्रक्ट्य होता हैं। इसका हाथ में कोमल पुष्प केला तथा कटहल

(Naishkarmyasiddhi, 4.76) क्या यहां विष्णु भगवान को परम बोला है

 विष्णोः पदानुगां यां निखिलभवनुदं  शंकरोऽवाप योगत्  सर्वज्ञं ब्रहासंस्थं मुनिगणसहितं  सभ्यगभ्यर्च्य भक्त्य विद्यां गङ्गमिवाहं प्रवरगणनिधेः प्राप्य वेदान्तदीप्तां  कारुण्यात्तामवोचं जनिमृतिनिवहध्वस्तये  दुःखितेभ्यः विष्णोः प्रकृति रूपस्थं यद् न्यायं पदानुगाः यां निखिलभवनुदं शंकरोऽपि महारूद्रेषु सः एकः स शंकारः इत्यार्थः यथा शतपथ वचनं विद्यते वा प्रणो वा रूद्र इत्यादयः तदर्थं मदाय तद प्रकृतिः योगः संयोजनेन वस्तुतन्त्र विद्यां यद्भवति तद शंकरस्य रूपस्थं आत्मोवापि वस्तु तन्त्र संयोग्देव विष्णोः पादात् गंगा रूपमेकं चारूभूतं जलभूतं संकिर्णं गंगोदकं धरति तदेवं आत्मारेपि प्रकृतिः सन्धाने आत्म कर्मणि भावे शरीरोऽस्मि वा इति ज्ञायते तदेव विषयं अत्र च प्रोक्तं अस्मद् प्रत्यागतः कालस्य व्यावहारेपि सर्वज्ञं सदाशिवमेव मुनिना अर्चयन्ति स सदाशिवः एषो वा विष्णोः शिव शक्ति संयोगेन एव विद्यां च ब्रह्म विद्यां प्राप्यते यथा भगिरथः गंगा वाहकं प्राप्तं दुःखेभ्यो शं अर्थः प्रतिपादिताः यदरेपि तोकाय शंनो तद कवेलं शिव निराकारमेकं निरज्जन शिवा अद्वैतेन संभवति इति अर्थः प्रतिपादिताः  यदा विष्णोः एव परमः ह र हकारे

शिव परम वैष्णवं हैं?

शिवः वैष्णवं वा? नमस्ते दोस्तों हमें इस श्लोक का गीता प्रेस अनुवाद मानिए नहीं है वो गलत है हमारे श्रेष्ठ पर भगवान शिव को वैश्णव बोल रहे हैं। निम्नगानां यथा गंगा देवानामच्युतो यथा ⁠। वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ⁠।⁠।⁠१६॥  निम्नगानां गंगा:- नितरां मग्नः नि मस्म क्त इति धातोः नि समीपार्थे विष्णु पादग्ं नदी भेदं प्रयुक्तं खारुपान्तरे आपस् सनिधे रसोदकं भवति तद प्रकृतिरूपस्ते विष्णोः परं प्रकृतिः तेन पदेन जायते तद्जलानां संबधे गंगा इति च षष्ठी शेषं वदति विशेष्टे तद जलानां गङ्गा इति संबन्धः भवः प्रयुक्तः तस्याः परम प्रकृतिः संबन्धः अत्र प्रतितः यथा अव्यय रूपे प्रकार भेदे यद् + प्रकारे थाल्  येन प्रकारेणेत्यर्थे इति च शब्दः लिङ्गानुसानं तस्मात् अत्र गोचरत्वे कवेलं प्रकार भेदं विद्यते। तैत्तिरीयोपनिषदे आपस् सन्धिः वायुः संधानम् प्रथमः यदा आकाशः भूते आपस् तत्व सन्धिः भवति अन्तरं वायुः प्राणः तत्व संधानम् भवति तदेव कारणेन महत् अहंकार तत्वेरपि गुणाद्भूतं भवति। तद् आप प्रकृतिः गङ्गा इति संबन्धः भवः प्रोक्तं। देवानाम् अच्युतं देवानाम् सन्निकर्षः संबन्धः अच्युतं इति उच्यते। यथा नारायणस्य  अ

शिव भगवान क्या ब्रह्मांड नाश नहीं कर सकते?

महाभारत तथा वेद से प्रमाण   हन्त्वयाः शत्रवः सर्वे युष्माकमिति मे मतिः। न त्वेक उत्सहे हन्तुं बलस्था हि सुरद्विषः ॥६॥ भाष्यः हन्त्वयाः इति विशेषण प्रयोगत्मके शत्रवः इति मध्ये तद्धितांत प्रत्ययागते सर्वे च शत्रवः हन्तुं अर्हः इति च प्रोक्तं तान् हन्तुं युष्माकम् एकत्रितो भूत्वा हन्त्वयाः शत्रवः इति च मे मतिः तत्प्रयोगेन शिव परमात्मनः विचारः प्रतिपादिताः न त्वेक उत्सहे अहं एकमेव तत्कार्याः हन्त्वयाः न इच्छामि ते बलस्था हि इत्भावे हि इत्येवं निपातः प्रयोगेण ते शत्रवः सुरद्विषः बलवान् एव अस्ति तस्मात् युष्माभिः सर्वे एकतो भूत्वा युद्धं कुर्वन् इति शिवास्तु विचारः प्रतिपादिताः।  २) ते युयं संहतः सर्वे मदीयेनार्धतेजसा । जयध्वं युद्धि ताञ्शत्रून् संहता हि महाबलाः ॥७॥ भाष्यःयुयं इति युष्मदांतकम् अनेकादयः देव शरीराणि संहतः सं + हन+ त्त्कः इति रूपत्वे दृढसन्धिर्भुत्वा मम अर्धं तेजास्द्योगे जयध्वं युद्धि तान् शत्रून् संहता हि च निपतौ सर्वे मिलित्वा तान् हन्तुं शक्नूवन्ति इति तस्मात् ते महाबलाः असुरान् हन्यन्ताम इति अर्थः प्रतिपादिताः ३) अस्तेजोबलं यावत् तावद्द्विगुणमाहवे  तेषामिति हि मन्यमो द्दष

शिव पुराण से शिव तत्व व्याख्या भाग -२

पहले वाक्य में आचार्य कर्तिनाथ लिखते हैं श् और न् इसके साथ अकरंत निपता का प्रयोग हैं इसलिए वर्णभेद के अनुसार ये प्रादिपदिक बन जाते हैं क्रियामणो प्रदिपदिकं तदस्तेषु योगे विकरी दोषेण यदा क्रिया पतिस्यति इस भेद से तद्धितान्तकं में तद्धिते शैषिकः इस सुत्र से सदाशिव की शक्ति को इकार भेद में गोचरमनो भवः कहते हैं।  इसके व्याख्या में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया हैं ‌। ये कवेल सदाशिव की विशेषण वा विशिष्टा हैं यहां प्रयोग से ये नहीं समझना चाहिए कि कर्ता वा विशेषण भेद हैं इसका मूल कारण है यहां वैशेष का प्रयोग किया गया है। व्याकरण नियम १) कर्ता के प्रयोग कवेल प्रथमा विभक्ति में करते हैं। २) क्यों की जिस विभक्ति वा वचन में विशेण होती है उसके ही वचन और विभक्ति में वैशेष शब्द होते हैं इसलिए प्रकटिकरण किये बिना समझ लिजिए वैशेष शब्द है अर्थात यहां अगोचर होते हुए भी भेद समझना चाहिए।  इस बात का प्रतिपादन करते हैं शैव सिद्धांत में कहा गया हैं। मुख्यतः तीन बीजात्मक शक्तियों की निर्माण प्रक्रिया होता है यही तद्धितांत शेषे सुत्र का संधान हैं जैसे ईश्वर गीता में पढ़ते हैं। काल प्रधान पुरूष तीन बीजात्मक भेद

शिव तत्व व्याख्या शिव पुराण

 शिव तत्व की व्याख्या शिव पुराण का मुख्य भाग -१ एक बार ब्राह्मा जी नारद जी से व्याख्या करते हुए भगवान सदाशिव की परमद्भूत अलौकिक कथा का वर्णन इस प्रकार उदृत किया है। कि शिव तत्व बहुत ही परमद्भूत एवं उत्कृष्ट हैं हम इस वचन से नासदीय सुक्त तथा मनुस्मृति याद आया जैसे उसमें ये कहा हैं पहले प्रलय कालिन समय न तो सत् था न असत् उस सदाशिव अपने महिमा से द्वितीय देवता कि उत्पन्न की कैसे हुआ ये सब अचानक इसके कथन बड़े रोचक हैं गोपथ के पहले खण्डिक में दिया है पहले परब्रह्म परमात्मा सदाशिव अकले थे उसने अपने समान एक और स्वरूप कि इच्छा की इसे वेद तथा आगम में वैश्णवी कहते हैं ।  वैश्णव शक्ति का वर्णन इस प्रकार करते हैं। इसमें प्रायः तीन भेद है श् ण् व् और वै नामक एक निपात का प्रयोग किया हैं शकार का लक्ष्य भेद त्रिशक्ति युक्त पंचप्राणात्मक पंच देवताम्क दशधा शक्ति से त्रिबीज न्याय से भगवान सदाशिव पंचदेवों को तथा पंचप्राण का उत्पादन करते हैं इसलिए ब्रह्म सुत्र के जन्मद्यस्य यता और शास्त्रो नित्यत्वत् इससे सदाशिव ही परब्रह्म परमात्मा सिद्ध होते हैं । क्यों कि आगम में स्पष्ट कहा हैं काल , प्रदान पुरुष ये त्रय

नास्तिक का पर्दाफाश १

नास्तिक का पर्दाफाश क्या अर्थवेद में रूद्र देवता का मूत्र पीना लिखा है। पहले बात जब अथर्ववेद में आयुर्वेद का वर्णन करते हैं तो कौनसा आयुर्वेद विश्वविद्यालय में पढ़ें हो हकिम वैद्य तुमने संस्कृत पढ़ें बिना ये कैसा समझ लिया उसका हिन्दी अर्थ ऐसा ही होगा। अगर हिम्मत है तो बोलो विज्ञान में अंधकार में से आपस् तत्व प्री मेटर कहां से निकला तेरे विज्ञानी लोग वहां बैठ कर देख रहे थे क्या ? रुद्रस्य मूत्रमस्यमृतस्य नाभिः । विषाणका नाम वा असि पितॄणां मूलादुत्थिता वातीकृतनाशनी ॥३॥ रूद्रस्य इति संदर्भे पष्ठी शेषे वा सन्दर्भे इदं इति पष्ठी कारकस्य प्रयोगत्मूत्रशब्दस्य प्रयोगः विधते  मूत्र वा मूत्र--अच्  क्षरितजले अमरः ।क्षर रहितं तद जलं क्षरितजलं इति आयुर्वेदस्य तत्त्वानि रसाभूतानि वा भवति। यथा सर्वाणि वा रसानि सोमत्मकानि या भवति तस्य नाभिः इति पदार्थेन व्याख्यानं विद्यते अयमेव न्याये रसो वै सः इति मत्वे आपस्सन्धाने पृथ्व्यां औषधयादयः भूता तनि सर्वाणि रसो मयं रसापि सदाशिवस्य शक्ति रूपाद्वैव उत्पन्नः भवति। यथा रूद्रो वै प्राणः , वायु वै प्राणः इत्यादि शृति वचनेषु च आकाशस्शब्दस्पर्शः सन्धाने वायुः महा भ

शिव गीता १:१ मिहिर कृत भाष्यं

अथातः संप्रवक्ष्यामि शुद्धं कैवल्यमुक्तिदम्। अनुग्रहान्महेशस्य भवदुःखस्य भेषजम्॥१॥ व्याख्या: ननु प्रथमत एव पद्मपुराणं वक्तव्यमिति मुनयः सुतं पृष्टवन्तः, तान् प्रति पद्मपुराणं वक्ष्यामीति सूतेन शुका मुनिना शिवरुपिना प्रोक्तं तत्व्याख्यते इति विशेषो अर्थं प्रतिज्ञातमेत्दमिदंगीताशास्त्रे तदन्तर्गतशिवगीताया अपि प्रतिज्ञानवत् प्रतिज्ञान्तरं कथमिति चेन्न साक्षत्तत्त्वज्ञानोपायत्वरूपविशेषद्योत्नार्थं पुनः प्रतिज्ञेति भाष्य : ननु अथातः अहं संप्रवक्षामि इदं वचने अस्मद प्रत्यन्तकगते रुद्रं च एकं तेनानेव सो एव सदाशिवः च परब्रह्मणः इत्यस्यापि ताम् विषये ब्रह्म जिज्ञासा कर्तव्यः इत्यार्थः तान् शब्दानां मध्ये एतावतैव प्रतिज्ञायः सिद्धस्वत् अथातः इति किमर्थं इति चैन् अथ मुनिप्रश्नानन्तरं, अतः प्रश्नाद्वेतोः संप्रवक्ष्यामि प्रतिज्ञार्थः अयमेव न्यायः विद्यते। तदेव कारणे ब्रह्मवादिनः ऋषयः केवलं शुद्धाद्वैत च अभेदरूपेणेव एव निवृर्तिभूत्वा मोक्षः सिध्यति न तु कर्मणाप्रवृर्तिभूत्वा सिद्ध्यति इति न्यायः प्रतिपादितः सं अथातः सं संप्रदाने च शिव पदोर्थः कर्तव्यः कारकद्योगे समिभूतं चाभूतं शिव तत्वं निरूपिणार्थं