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Showing posts from July, 2019

आर्य समाज केलिए प्रशन

आर्य समाज के एक मत के अनुसार ईश्वर , आत्मा और प्रकृति अनादि और नित्य है और अलग सत्ता है ।इनके अनुसार आत्मा परमात्मा का अंश नही है क्योंकि आत्मा का स्वाभाविक गुण राग , द्वेष और अल्पज्ञ होने की कारण आत्मा पाप भी करता है । यह है आर्य समाज का सिद्धांत । अब इनके सिद्धांत की समीक्षा की जाए 👇🏻👇🏻👇🏻 १ यदि आत्मा का स्वाभाविक गुण राग और द्वेष है तो इससे तो आत्मा अमर और नित्य नही रहा क्योंकि राग और द्वेष खुद अपने आप में परिवर्तनशील , नाशवान और अनित्य है इससे आत्मा भी नाशवान , परिवर्तनशील और अनित्य सिद्ध हुआ । अब क्योंकि राग और द्वेष जड़ वस्तु पर होते है तो आत्मा भी जड़ सिद्ध हुई , चेतन नही । यहा आत्मा की सिद्धि नही हुई । २ जब आत्मा का स्वाभाविक गुण राग और द्वेष , सुख - दुख है तब तो उसे मोक्ष पाने की भी  इच्छा नही हो सकती और ना ही वह कभी आनंद पा सकता तब आत्मा परिवर्तन शील हुआ नित्य नही रहा जब आत्मा नित्य ही नही तो अमर कैसे हुआ❓ ३ राग - द्वेष और सुख दुख प्रकृति से आता है तो इससे तो आत्मा प्रकृति का अंश हुआ अब क्योंकि प्रकृति जड़ है इसीलिए आत्मा भी जड़ ही हुआ । इससे तो साफ सिद्ध हो रहा है कि आत

क्या भगवत पुराण में मुर्ति पूजा विरोध हैं?

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वाधोः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः यत्तीर्थबुद्धि सलिले न कर्हिचि ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः १०:८४:१३ यस्य - जो आत्मनः अपने बुद्धि - विचारों कुणपे - पंच महाभूत से बना नश्वर शरीर में त्रिधातुके - त्रि शरीरक रुप ( कर्म ,सुक्षम , स्थूल,) में स्व अपने धीः - विचार को कलत्रादिषु - पत्नी भौमे- पृथ्वी पर इज्य- सम्मान के रूप में  यत् जिसका तीर्थ- तीर्थ स्थान के रूप में बुद्धि: - विचार सलिले-जल में न कर्हिचित् - कभी नहीं जनेषु- जनों में वा - या अभिज्ञेषु - ज्ञानीवो में स - यही गो - गाय खरः - गधा । जो अपने बुद्धि को भौतिक तत्व से बाना या त्रि शरीरों में ही या पत्नी आदि के नीजी रुप में विचार करके पृथ्वी में केवल   इनका ही सम्मन करता हैं या तीर्थ स्थल को केवल जल मानता हैं वो कभी आत्म ज्ञानी नही कहेलता हैं ऐसा व्यक्ति ज्ञानीवों के मध्य में निस्संदेह गाय या गधा कहलाता हैं  अज्ञात भागवद्धर्मा मन्त्रविज्ञानसंविदः नरास्ते गोखरा ज्ञेया अपि भूपालवन्दितः जो लोग भगवान के प्रकृति का धर्म को नहीं समझते ऐसे लोग कोई वेदिक मंत्र का  विद्वान हो या राज द्वारा पूजित हो उन्हें

वैशेषिक दर्शन एवं न्याय दर्शन में विज्ञान

वैदिक विज्ञान एक चिंतन   भौतिक विज्ञान के अनुसार हर पदार्थ  प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप में गतिमान होता हैं  जैसे कि उदाहरण केलिए जैसे चलना दौड़ना इत्यादि अप्रत्यक्ष रुपता जैसे शास लेना, अणु संयोग इत्यादि  वैशेषिक एवं न्याय के अनुसार अणु को ऐसे कण माना हैं जिसको अधिक नहीं तोड़ सकते हैं इससे हि हर प्रत्येक  परमाणु के चरम,  अन्तिम,या मुल रूप मानते हैं विज्ञान के अनुसार अणु में ३ सूक्ष्म कण (sub atomic particles)  होता हैं जैसे (electron ,proton neutron) इसको वेद एवं दर्शनों में विद्युदाणु (electron), उद्भुदाणु (proton) और अव्ययाणु (neutron) एवं केन्द्रकोश( nucleus) कहा हैं विज्ञान में स्थिती परिवर्तन को गति कहा हैं इसे ही हमारे वेद में माया शब्द से आरोपित  किया गया हैं ये स्थिति कार्य में  मूल रूप से विद्यमान होता हैं माया को विलक्षण माना जाता है या फिर शश्वतॎः शुन्यस्य अर्थात जिस प्रकृति ब्रह्म तत्व के बिना कुछ ना हो या शुन्य हो मिथ्या को उपाधि संज्ञा के अनुसार माना है जैसे सोने खडा हैं तो खडा स्वयं सोना नहीं है ऐसा नहीं कह सकते अगर खडा नहीं होता है तो सोना के अभाव नहीं होता है खडा शुन