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Showing posts from September, 2021

विष्णु भगवान को वैकुंठ कैसे मिला

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम् । पदं यद्विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्यं नाम गोनाम्॥३॥ ऋग्वेद-५:३:३ अनुवाद  हे अग्निदेव ! आपकी शोभा बढ़ाने के लिए मरुद्गण शोधन प्रक्रिया चलाते हैं । हे रुद्ररूप ! आपका जन्म सुन्दर और विलक्षण है । विष्णुदेव आपके निमित्त उपमा योग्य पद निर्धारित करते हैं। आप देवों के इन गुह्य अनुग्रहों को संरक्षित करें ॥३॥ यहां अग्नि मतलब भगवान शिव ही हैं क्योंकि शास्त्रों में ऐसा कहां है देखिए कालाग्नि रूद्र उपनिषद में लिखा है अ कार उ कार म कार ती रेखा अग्नि का हैं सब लोग लोकान्तर में  १)  प्रथम रेखा गार्हपत्य अग्निरूप, 'अ' कार रूप, रजोगुणरूप, भूलोकरूप, स्वात्मकरूप, क्रियाशक्तिरूप, ऋग्वेदस्वरूप, प्रातः सवनरूप तथा महेश्वरदेव के रूप की है॥६॥ २) द्वितीय रेखा दक्षिणाग्निरूप, 'उ'कार रूप, सत्त्वरूप, अन्तरिक्षरूप, अन्तरात्मारूप, इच्छाशक्तिरूप, यजुर्वेदरूप, माध्यन्दिन सवनरूप एवं सदाशिव के रूप की है॥७॥ ३ तीसरी रेखा आहवनीयाग्नि रूप, 'म' कार रूप, तमरूप, द्यु-लोकरूप, परमात्मारूप, ज्ञानशक्तिरूप, सामवेदरूप, तृतीय सवनरूप तथा महादेवरूप की

धर्म कैसा रहेगा कलयुग में शिव पुराण

१) कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था प्रायः नष्ट हो जायेगा। २) प्रत्येक वर्ण तथा वर्णाअश्राम त्याग करनेवाले मनुष्य अपने वर्ण से विपरित कार्य  में ही अपना सुख प्राप्त करेंगे। ३) इसके कारण लोगों में वर्णसंकरता बढ जायेगी। परिवार टुट जायेंगे धर्म बिखर जायेगा।एवं लोगों के पतन होगा। ४) प्राकृतिक आपदाओं से लोगों कि जगह जगह पर मृत्यु होगी। ५) धन का क्षय होगा लोगों को लोभ के प्रवृत्ति बढ़ जायेगा ६) ब्राह्मण प्रायः लोभी हो जायेंगे वेद को बेचकर आजिविका करने वाले होंगे ७) मद मोह में उल्लासित होकर दुसरे को टोकने वाले होंगे। ८) पुजा पाठ नहीं करेंगे तथा ब्राह्म ज्ञान शुन्य होंगे। ९) क्षत्रीय प्रायः अपने धर्म का विपरित होकर कुंसगी पापि एवं व्योभीचारि होंगे। ९०) शौर्य पराक्रम से शुन्य हो जायेंगे। ११) शुद्रवत काम करने लगेंगे और शुद्र समान हो जायेंगे । १२) सब काम के आधीन होंगे। १३) वश्य अपने धर्म से विमुख हो जायेंगे १४) कुमार्ग से धन अर्जित करने में लगे रहेंगे। १५) तोलमौपन में अधिक ध्यान देते हुए लोगों के धन अर्जित करने वाले होंगे १६) शुद्र भी अपने धर्म से विमुख होंगे। १७) सिर्फ अच्छी वेशभूषा में आ

लिंग पुराण में सृष्टि रहस्य

सृष्टि का कथन लिंग पुराण १)अव्यक्त सदाशिव का अल्लिंग रूप से लिंग रूप अर्थात प्रपंच का निर्माण हुआ। २) हमारे तीन लिंग रूप है अल्लिङ्ग लिङ्ग तल्लिङ्ग ३) अलिङ्ग अव्यक्त कारण है लिंग रूप का कारण तल्लिंग प्रधान कारण है। अल्लिंग में मेरा अर्थात सदाशिव रूप ही विद्यमान हैं। ४) लिंग रूप गन्ध रस शब्द स्पर्श रूपादि गुणों से युक्त हैं इसे कोई प्रपंच कहते हैं। ५) अल्लिंग रूप इन सब से वर्जित हैं ये अद्वैत तत्व है इनमें सिर्फ एक वस्तु प्रतिष्ठित हैं वहीं में हुं ६) तल्लिङ्ग रूप मेरा प्रधान कारण है इन कारण से ही प्रपंच बना हैं इनको विष्णु कहते हैं ये मेरा शैवा रूप को दर्शाता हैं ७) यह तत्व सात आठ ग्यारह रूपों में विभक्त है ये सब हमासे युक्त तथा उत्पन्न हुआ है इसलिए इन्हें विभु कहते हैं। ८) हमारे सात तत्वों में उदर्व  एवं अधो भाग के सात लोक लोकान्तर अभिव्यक्त हैं।  ९) सत्यतपज्ञानजनमर्हसुर्वभुर्वभुः ये उधर्व में स्थित हैं। १०) अतलवितलसुतलतलातलमहातलरसातलपातलः ये सब अधो भाग में स्थित है ११) हमारे ग्यारह तत्वों में पांच ज्ञानेन्द्रियो पांच कर्मेंद्रियों एक मन सामसित हैं।

वेदों में कंप्यूटर विज्ञान

भाषा का मूलभूत नियम का तहत प्रत्येक इकाई अन्तिम चरम एक निपता होता हैं निपता सिर्फ अव्यय बल्कि विशेषण हैं जैसे पुर्व संधान में स्वर ही जैसे अकारांत इकारन्त शब्दों में भेद होकर कोई शब्द पुल्लिंग स्त्रीलिंग उभय लिंग नपुंसक लिंग हो जाता हैं संस्कृत ऐसा शब्द जिसमें पुल्लिंग वा नपुंसक लिंग हैं जैसे कलत्रं दारा शब्द है यहां इनके शब्दिक अर्थ पत्नी होती है लेकिन ये शब्दों रूप पुल्लिंग और नपुंसक लिंग बनते हैं। पाणिनि महार्षि और वररूचि जी ने इनका सुत्र संधान करते हुए लिखते हैं। स्त्री वाचकानां पदनाम न लिङ्गवचनो भेदो इसके चलते प्राचीन समय यंत्र होते थे। क्यों कि आचार्य पिंगल के अनुसार प्रत्येक छन्द में २ पाद ४ पाद ३ पाद  होते हैं इनका प्रत्येक बाद में द्विपद लघु तथा गुरु का संकीर्ण हैं इनसे ही द्विमानीयसञ्चिका द्विमानीयसङ्ख्या द्विमानीयगवेषण द्विमानीयान्वेषण द्विमानपद्धति   द्वैध द्विगुण   द्विमान द्व्यंश द्विमय द्वय द्वयि द्विमान इत्यादि शब्द binary system केलिए प्रयुक्त होता हैं इन शब्दों का प्रयोग अलग-अलग संदर्भ में लेते हैं ये चार अर्थ गणकिकरण केलिए प्रयुक्त होता हैं। द्विमानीयसञ्च

गणपति भगवान के मयुरेश्वर अवतार रहस्य(गणेश पुराण)

गणेश परब्रह्म की मयुरेश्वर अवतार का रहस्य  अष्टविनायक का अवतार में एक अवतार मोरेश्वर या मयुरेश्वर हैं कहानी इस प्रकार उद्धृत किया गया है जब मता पर्वती गं बीजाक्षर का तप की तो गणेश भगवान जो कि परब्रह्म परमात्मा हैं वो माता पार्वती का बेटे के रूप में अवतरित होने का वर दी अब गं बीजाक्षर में ऐसा क्या है जिससे भगवान गणेश खुश होते हैं।ग का अर्थ गुरुस्त वर्ग है इसमें सुक्ष्म तन्मत्र से गुरु तन्मत्र में अनुशिलन होने का रहस्य छुपा है समस्त गोचर वस्तु गुरु रूप में अभिप्रेत होता है जब सिन्धु नामक राक्षस अमृत मय सुवर्ण अन्डो से अमृत्व को पा लिया उन्होंने डर के मारे वो तीन अण्डे जो वर के रूप में दिया गया था उसे निगल लिया क्यों कि भगवान सुर्य देव ने उन्हें तुट जाने का अर्थ से बोलते थे कि इनके नष्ट होने पर सारे अमृत्व को खो देगा तो उन्होंने उसे निगल लिया अब परब्रह्म परमात्मा गणपति भगवान आम्र वृक्ष कि नीचे एक अण्डे को उनके गुरूत्व पैर को तब  आघात किया तो अण्डे फुट कर उनसे मयुर उत्पन्न हुआ उनको गणेश भगवान आपने वाहन बनाकर राक्षस के पेट चीर दिया उनसे अमृत मय अण्डे फुट गया और राक्षस जो तीनों लोकों में अन्

गजासुर का अलोकिक अर्थ

गणपति भगवान का मस्तक हाथी का क्यों? गज अर्थात ग कार कण्ठ में अभीप्रेत होता है जैसे यहां उपनिषद का प्रमाण है देखिए इसका प्रथम रूप 'ग' कार (ग) है, मध्यम रूप 'अ' कार है, अनुस्वार अन्त्यरूप है तथा बिन्दु ही इसका उत्तर रूप है। नाद ही इसका सन्धान है और संहिता इसकी सन्धि कही गई है। ऐसी ही यह गणेश विद्या है॥८॥  अब अ कार में स्वयं गणपति परब्रह्म समाहित है अनुसार में लय होता है ज कार में पंच प्राण और पंच देवता सिद्ध होते हैं इनका अग्र पुजा भगवान गणेश का होते हैं इसलिए वहीं ब्रह्म हैं।  मस्तक छेद का अर्थ दुःख का नष्ट होना है तलम् न्याय के अनुसार जातां इति जगत् होता है । जिस प्रकार ये जगत दुःख का मूल कारण है शिव प्राण हैं तो इसमें जब हम प्राण को जानते हैं तो दुःख त्रय का नाश होकर गणपति का सायुज्य प्राप्त होता है एवं मोक्ष मिल जाता हैं मात पार्वती प्रकृति स्वरूपा हैं तो भगवान शिव प्राण स्वरूप हैं जब भगवान शिव मस्तक जोड़कर सिद्ध करते हैं जब हम प्रदान को जानेंगे तो सायुज्य मुक्ति प्राप्त होता है इसमें गजासुर नामक असुर का मस्तक छेदन किया था तो इसका अर्थ ये हुआ कि असुर प्रवृत्ति वाले भी

गणेश चतुर्थी पर गणपति भगवान का रोचक तथ्य-१

गणपति भगवान का रोचक तथ्य  गणेश भगवान हमारे पांच ब्रह्म में से एक माना जाता हैं गण्पत्यागम के अनुसार गणपति भगवान का ३२ रूप हैं। इसे द्वात्रिंशति कहा जाता है इसके अंक गणित अनुसार ऐसा लिख सकते हैैं। ३और २ लेकिन यहां दोनों ० समाहित हैं। तलम् न्याय में भगवान गणेश को त्रय दुःख विनाशक और सत रजस तमस का त्रय रूपात्मक ब्रह्म मानते हैं। शुन्य का अर्थ अभाव नहीं बल्कि पुर्ण हैं इसलिए भगवान गणपति भगवान को परिपूर्ण  ब्रह्म कहते हैं इनका कुछ रूप इस प्रकार हैं १)बाल गणपति : यहां गणपति बाल रूप में गणपति इसलिए बताते हैं कि बकार को तंत्र में तो ओष्ट  अर्थात अभ्यांतर भेद में मानते हैं। सब ज़बान के अग्र में अर्थात जिह्वाग्र में अग्नि रूप समाहित होता है तो ब कार अर्थात गणपति भगवान का बाल्य रूप प्रकट होता है इसका बाल गणपति की रूप में बताते हैं। जिस प्रकार बाल सुर्य उदित होने पर अर्थात शुभा के समय सुर्य तम्र वर्ण का होता हैं उसी प्रकार गणपति भगवान ताम्र और रक्त वर्ण के होते हैं लकार का अर्थ उत्पत्ति लकार पंच देवता में त्रिशक्ति सहित हैं इससे बाल गणपति का प्रक्ट्य होता हैं। इसका हाथ में कोमल पुष्प केला तथा कटहल