Skip to main content

Posts

Showing posts from March, 2019

एक सत विप्र बहुधा वदन्ति

आर्य समाजी और मुल्ला इस मंत्र में एक ईश्वर वाद सिद्ध होता है लेकिन इनमें से एक का अर्थ गलत है। इस कर्म कांड के मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार है। इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि अहु रथो दिव्यः स सुपर्णों गरुत्मान एकं सत् विप्रं बहुधा वदन्तिमग्नि यमं मातुरिश्वनमाहुः एक ही सत् वस्तु वही एक ही विप्र अनेक विश्वास वही इंद्र मित्र वरुण अग्नि अग्नि कहते हैं एक ही दिव्य सुपर्ण और गरुत्मान का यही भाव है कि सभी देवता एक ही होते हैं एक ही अग्नि में सब का हविस देते हैं (अत्रकेचित् अग्नि: सर्व देवता ऐ ब्रा 2:3) इसलिए अग्नि को शब्द को प्रथम निर्देशित किया जाता है। इसलिए ऋग्वेद 1:1 में सबसे पहले अग्नि का ही आह्वान हुआ ऋग्वेद 164:64:46

पुराण में ज्ञान विज्ञान

मत्स्य पुराण भगवान शिव के उन्नत Shaolin kung fu के ज्ञान भगवान शिव ने आडि नामक दैत्य को योग शक्ति के  एक उन्नत  रिती  से मार दिया थें। मेढ्रे  वज्रास्त्रमादाय दानवं तमसूदयत अबुध्यद्वीरको नैव दानवेन्द्रं विषूदितम् १५६ /३७ मत्स्य पुराण भगवान शिव ने अपने आकार छुपाते हुए मेढ्र अर्थात स्वाधिष्ठान चक्र के अग्नि तत्व बल को वज्रास्त्र अर्थात बिजली  शक्ति  के रूप में अभि मन्त्रित करके उस दानव (आडि) को मार दिया यहां योगा के अन्तर्गत हमारे स्वाधिष्ठान को संबोधित करते हैं यहां चमकम में नव च में कहा है यहां  नवद्वार को योग से संकुचित करके क्रिया करने से योग के बल उत्पन्न होता है इसे करने के तरीका योग में दर्शा गया है  अर्ध पद्मासन में बैठकर मूल एवं उदियान बंद से प्राण अन्तः मुखी करके और अपान को उर्धव मुख करने से स्वाधिष्ठान में वे दोनों मिल जाता हैं और इनके आपस के घर्षन से कुण्डलिनी संचालित होता है  तब हम हमारे ७२००० नाडी को संचालित करके अग्नि तत्त्व उत्पन्न कर सकते हैं और अनेक रूपों को भी उत्पन्न कर सकते हैं। अथर्ववेद १०:२:३१/ १०:२:६  श्वेताश्वरो उपनिषद ३/१९ में भी इन  नव द्वारों के बारे मे

सच्चा दोस्त के खोज उपनिषद में

ये द्वैत प्रकरणं का श्लोक है द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ऋग्वेद म.1| सू.164| म.20||  मुण्डक ।।3.1.1।। दो सुपर्णा ( पक्षी) एक समान नाम वाले सुन्दर गतिशील परस्पर दोस्तों जैसे प्रेम से  एक सुपर्णा आत्मा के प्रतीक हैं  दुसरे बुद्धि के प्रतीक हैं वे दोनों एक  ही समान शाखा वाले शरीर रुपि वृक्ष को आश्रय लेकर रहते हैं इनमें से एक पिप्पलं ( मीठे या कड़वे फल खाने में लगे रहते हैं) अर्थात अपने अच्छे और बुरे कर्म फलों को भोक्ता हैं दुसरे बस देखता रहता हैं अर्थात कर्म फलों को नहीं भोक्ता बस केवल मीठे या कडवे फल खाने वाले अर्थात कर्म फल  भोगने वालेअपने मित्र को देखता रहता हैं। अद्वैत पक्ष में क्योंकि ” पैङ्ग्यरहस्य ब्राह्मण ” में यह अर्थ लिखा है तयोरर्न्यपिप्पलं स्वद्वत्ति इति सत्त्वमनश्नन्नन्योअभिचा कशीत्यनश्नन्नन्योऽभिपश्यति ज्ञस्तावेतौ सत्त्वक्षेत्रत्राविति सत्व { बुद्धि } कर्म फलका भोक्ता है और द्रष्टा – क्षेत्रज्ञ { आत्मा } है यह श्रुत्यर्थ वेदान्त पक्ष को ही पुष्ट करता है , अतः हमारा अर्थ श्रुति प्रतिपादित और समी

ईश्वर

अगर ईश्वर सर्व व्यापक है तो मल और विष में क्यों नहीं ? ईशावास्यमिद ॅ सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्वनम् ईशावास्यमिति -ईशा ईष्टे इति तेन ईशा इस प्रयोग से पता चलता हैं कि ईश्वर ने खुद संकल्प किया यहां सर्व ऐश्र्वर्यो अर्थात भौक्तिक विषयों को बनाने वाला वो ईश्वर ही हैं क्यों कि यहां ईशा ऐश्वर्ये इति धातोः क्षिपि रूपमीडिति प्रयोग होता है इसलिए ईशिता परमेश्वर ही समस्त जगत् के समस्त जन्तु के आत्म होने के कारण उपादान भी हैं आच्छादनीयं आत्मा रूपेण ईश्वरः आच्छादितः यहां पर वस- आच्छादने ऋहलोर्ण्यदिति ण्यत्प्रत्यय इति भावः यत् किंचित जगत्यां पृथिव्यां जगत तत् सर्वं यहां पर सर्व पृथ्वी के स्वाभविक भाव रुप रस शब्द गंध स्पर्श भाव वाले तत्व अधिभाव के प्रदायक ईश्वर हैं। लेकिन ईश्वर इनके परे हैं जिस प्रकार चंदनादि एवं औषधि वृक्षों में ईश्वर अधि भूत शक्ति रूप स्वाभविक गुण का भी उत्पत्ति के कारण है इनके ज्ञान केवल इन्द्रिय के अनुभव से होता है अगर कोई दुर्गंध युक्त वस्तु होता है उसमें ईश्वर नाच्छादित हैं लेकिन इनके स्वभव जो जैसे दोनों तत्त्व मिलने से जो दुर्गंध उत्पन्

महीधर और उवट सही भाष्य के विष्लेषन

यजुर्वेद २३/१९ महीधर और उवट कभी वेद के  ग़लत प्रचार नहीं कीये थे बिना  संस्कृत के ज्ञान के बिना अर्थ करना असंभव है आर्य समाजी एवं विधर्मी बिना संस्कृत ज्ञान गलत प्रचार इनके उद्देश्य मूर्ति पुजा खण्डन और हिन्दू धर्म को तोडना हैं इनके बात पर ध्यान न दें। देखिए सही भाष्य क्या हैं गणानां त्वा गणपतिं ँ हवामहे प्रियानां त्वा प्रियापतिं ँ हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम अहमाजानि गर्भधाम त्वाजासि गर्भधम् यजुर्वेदः 23/19 भाष्यः अश्व अग्निर्वा अश्वः (शत°ब्रा° ३:६:२५) शक्ति अभिमानी गतं जातवेदस ( इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यंवहतु परजानन ऋग्वेद १०/२६) परब्रह्मण तन्स्त्रीनां मध्ये अश्वो यत् ईश्वरो वा अश्वा( शत°ब्रा°२३:३:३:५) सः एवं प्रजापति रुपेण प्रजापतिः हवामहे प्रजा पालकः वै देवम् जातवेदसो अग्ने तान सर्वे पितृभ्यां मध्ये प्रथम यज्ञकार्यार्थम् गणनां गणनायकम् स गणपतिं सर्वे  देवेभ्यो मध्ये  आह्वायामि इति श्रुतेः। प्रियपतिम्  सः गणपतिं निधिनां (गणनां प्रियाणां निधिनामतिं का°श्रौ° २०:६:१४) सर्वाः पत्न्यः पान्नेजानहस्ता एव प्राणशोधनात् तद जातवेदो प्रतिबिम्बं स अश्वं कृद्दशाः इयं अश

वेदांत दर्शन कक्षा-०४

  तत्तु समन्वयात् १:१:४ तु = तथा तत् =वह ब्रह्म समन्वयात्=समस्त जगत् में अनुगत (व्याप्त) होने के कारण (उपादान भी हैं) व्याख्या- जिस प्रकार अनुमान और शास्त्र प्रमाण के अन्तर्गत यह सिद्ध होता हैं कि इस विचित्र जगत् का निमित्त कारण परब्रह्म हैं उसी प्रकार यह भी सिद्ध होता हैं कि वही इसका उपादान कारण भी हैं क्यों कि वह इस जगत में पुर्णतया अनुगत (व्याप्त) हैं इसका अणुमात्र भी परमेश्वर से शुन्य नहीं हैं भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि  यच्चापि सर्वभूतनां बीजं तदहमर्जुन  न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् १०/३९ यह सब भूतों के उत्पत्ति का कारण मैं ही हुं क्यों कि ऐसा कोई चर और अचर कोई भूत नहीं है जो मुझे से रहित हो। अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवयम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ९/४ उत्पत्ति विनाश धर्म वाले सब अधिक्षभूत हैं हिरण्मय पुरुष अधि दैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस शरीर मैं वासुदेव ही अन्तर्यामीरूप से अधि यज्ञ हुँ । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ - तैत्तिरीयोप

वेदांत दर्शन कक्षा-०३

शास्त्रयोनित्वात्   १:१:३ शास्त्रोनित्वात् = शास्त्र (वेद) में उस ब्रह्म के सत्य ज्ञान आदि लक्षण बातायें गये हैं उसी प्रकार उसको ही जगत कारण भी बताया है इसलिए पुर्व सुत्र के कथानानुसार  परब्रह्म परमेश्वर को जगत कि उत्पति स्थति और प्रलय का कारण मनना सर्वथा उचित ही हैं  ब्रह्माण्ड वल्ली ॐ ब्र॒ह्म॒विदा॑प्नोति॒ पर॑म् । तदे॒षाऽभु॑क्ता । स॒त्यं ज्ञा॒नम॑न॒न्तं ब्रह्म॑ । यो वे॑द॒ निहि॑तं॒ गुहा॒यां पर॒मे व्यो॑मन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान्त्सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ॥ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृ॒थि॒व्या ओष॑धयः । ओष॑धी॒भ्योन्न॑म् । अन्ना॒त्पुरु॑षः । स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः । तस्येदमेव शिरः । अयं दक्षि॑णः प॒क्षः । अयमुत्त॑रः प॒क्षः । अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लो॑को भ॒वति ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः अन्वयः  १ ) जो ब्रह्म को जनता हैं वो ब्रह्म धाम को प्राप्त होता हैं अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं। २) जो ब्रह्म को ही सत्य , ज्ञान एवं अनन्त करके जानता हैं। वो  परम व्योमन् अर्थात उसके हृदय में अर्

वेदांत दर्शन ०२

जन्माद्यस्य यतः १:१:२ अस्य =इस जगत के जन्मादि =जन्म आदि ( उत्पति , स्थति और प्रलय) यतः जिससे (होता हैं वह ब्रह्म हैं) व्याख्या : १)यह जो जड़ - चेतनामत्क जगत सर्वसाधारणके देखने, सुनने और अनुभव में होता हैं २) जिस के अद्भुत कार्य क्षमता से विज्ञान भी आश्चर्यचकित होता हैं ३)इस जगत के विचित्र जन्मादि जिस से होता हैं वहीं सर्व शक्तिमान परात्पर अर्थात प्रकृति से भिन्न जो इन प्रकृति तत्व से रहित हैं इस परब्रह्म के उस रूप को लिंग पुराण में ऐसा समझाया हैं अलिङ्गो लिङ्गमूलं तु अव्यक्तं लिङ्गमुच्यते। अलिङ्गः शिव‌ इत्युक्तो लिङ्गं शैवमिति स्मृतम्।।३:१।। अलिङ्गो ( प्रकृति तत्व से रहित ) लिङ्गमूलं ( प्रकृति तत्व के उत्पादन का मूल ) परमात्मा आप के इस अव्यक्तं ( प्रकृति तत्व में अव्यक्त से रहने वाले एवं नित्य इसके सृजन करने वाले आपसे ही उत्पन्न हुवा इस प्रकृति तत्व को लिङ्ग कहते हैं इस के विपरित जो प्रकृति तत्व से रहित  पृथक जो हम मानते वहीं अलिङ्ग रूप को शिव या परब्रह्म तत्व कहते हैं शैव मत में आपके इस उत्तम स्व कृत प्रकृति को लिङ्ग कहा हैं ४) अब सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक

वेदांत दर्शन

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा १:१:१ इस सुत्र में ब्रह्म विषयक विचार आरंभ करते हैं इस सुत्र में ये सुचित किया गया हैं १) ब्रह्म कौन हैं। २) उसके स्वरुप क्या हैं। ३) आत्मा के मूल स्वरुप क्या है ४) उससे वेदांत में कैसे समाझया गया है ५) किन किन उपायों से ब्रह्म को जान सकते हैं अब आते हैं धर्म के तरफ १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पुराक वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म ही ब्रह्म चोदन होता है उदाहरण : सोचिए अगर आपके पास एक हरा रंग का दीवार हैं उसको देखते ही मन में ज्ञात होवे कि ये हरा रंग की दीवार हैं इसे कोई नही बातया अपने आप स्वभवतः व्यहार  से ज्ञात होने वाले विषय हैं ऐसे ही इन शब्द स्पर्श आदि एवं विलक्षण को भी बुद्धि से अलग कर