ये द्वैत प्रकरणं का श्लोक है
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ऋग्वेद म.1| सू.164| म.20|| मुण्डक ।।3.1.1।।
दो सुपर्णा ( पक्षी) एक समान नाम वाले सुन्दर गतिशील परस्पर दोस्तों जैसे प्रेम से एक सुपर्णा आत्मा के प्रतीक हैं दुसरे बुद्धि के प्रतीक हैं वे दोनों एक ही समान शाखा वाले शरीर रुपि वृक्ष को आश्रय लेकर रहते हैं इनमें से एक पिप्पलं ( मीठे या कड़वे फल खाने में लगे रहते हैं) अर्थात अपने अच्छे और बुरे कर्म फलों को भोक्ता हैं दुसरे बस देखता रहता हैं अर्थात कर्म फलों को नहीं भोक्ता बस केवल मीठे या कडवे फल खाने वाले अर्थात कर्म फल भोगने वालेअपने मित्र को देखता रहता हैं।
अद्वैत पक्ष में
क्योंकि ” पैङ्ग्यरहस्य ब्राह्मण ” में यह अर्थ लिखा है
तयोरर्न्यपिप्पलं स्वद्वत्ति इति सत्त्वमनश्नन्नन्योअभिचा
कशीत्यनश्नन्नन्योऽभिपश्यति ज्ञस्तावेतौ सत्त्वक्षेत्रत्राविति सत्व { बुद्धि } कर्म फलका भोक्ता है और द्रष्टा – क्षेत्रज्ञ { आत्मा } है यह श्रुत्यर्थ वेदान्त पक्ष को ही पुष्ट करता है , अतः
हमारा अर्थ श्रुति प्रतिपादित और समीचीन है ।
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