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वेदांत दर्शन

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा १:१:१
इस सुत्र में ब्रह्म विषयक विचार आरंभ करते हैं इस सुत्र में ये सुचित किया गया हैं
१) ब्रह्म कौन हैं।
२) उसके स्वरुप क्या हैं।
३) आत्मा के मूल स्वरुप क्या है
४) उससे वेदांत में कैसे समाझया गया है
५) किन किन उपायों से ब्रह्म को जान सकते हैं
अब आते हैं धर्म के तरफ
१) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत् 
यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पुराक वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म ही ब्रह्म चोदन होता है
उदाहरण : सोचिए अगर आपके पास एक हरा रंग का दीवार हैं उसको देखते ही मन में ज्ञात होवे कि ये हरा रंग की दीवार हैं इसे कोई नही बातया अपने आप स्वभवतः व्यहार  से ज्ञात होने वाले विषय हैं ऐसे ही इन शब्द स्पर्श आदि एवं विलक्षण को भी बुद्धि से अलग करके देख दिया जायें तो वो एक ही प्रकृति तत्व का बनाया हुआ दिखता है और ये‌ ब्रह्म तत्व ही सब तत्व इसलिए वहीं जनने योग्य है  इसे जानने बुद्धि से आत्म को शरीर से अलग करके देखा जायें तो आत्मा ब्रह्म से कभी अलग नहीं दिखता इसलिए इन श्रृति प्रमाण में भी आत्मा को ही ब्रह्म माना हैं इसलिए आत्मा को ही ब्रह्म जानकर मोक्ष पाना हैं ये ही इस सुत्र का मुख्य उद्देश्य हैं
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
योऽसावदित्ये पुरूषः सोऽसावहम्
ॐ खं ब्रह्म यजुर्वेद ४०/१७
सत्य का सुख स्वर्णिम प्रकाश युक्त पात्र से आच्छादित हैं। आदित्य रूप में विद्यमान जो यह पुरुष हैं वह मैं ही हूं आकाश के सामान परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हैं। सोऽ(अ) सावहम् यहां पुर्वरूप और अयादि  सन्धि होता है  इसलिए इस तोड़ ने पर सोऽसावहमं = सो + असि + अहं होता है
सर्वं ह्येतद्‌ ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌ ॥ {माण्डुक्या उपनिषद  २}
एतत् सर्वं हि ब्रह्म। सः अयम् आत्मा चतुष्पात् ॥
यह सम्पूर्ण 'विश्व' 'शाश्वत-ब्रह्म' ही है यह 'आत्मा' 'ब्रह्म' हैं एवं 'आत्मा' चतुर्विध है, इसके चार पाद हैं।

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