शास्त्रयोनित्वात् १:१:३
शास्त्रोनित्वात् = शास्त्र (वेद) में उस ब्रह्म के सत्य ज्ञान आदि लक्षण बातायें गये हैं उसी प्रकार उसको ही जगत कारण भी बताया है इसलिए पुर्व सुत्र के कथानानुसार परब्रह्म परमेश्वर को जगत कि उत्पति स्थति और प्रलय का कारण मनना सर्वथा उचित ही हैं
ब्रह्माण्ड वल्ली
ॐ ब्र॒ह्म॒विदा॑प्नोति॒ पर॑म् । तदे॒षाऽभु॑क्ता ।
स॒त्यं ज्ञा॒नम॑न॒न्तं ब्रह्म॑ । यो वे॑द॒ निहि॑तं॒ गुहा॒यां पर॒मे व्यो॑मन् ।
सोऽश्नुते सर्वान् कामान्त्सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ॥
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः ।
वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी ।
पृ॒थि॒व्या ओष॑धयः । ओष॑धी॒भ्योन्न॑म् । अन्ना॒त्पुरु॑षः ।
स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः ।
तस्येदमेव शिरः ।
अयं दक्षि॑णः प॒क्षः । अयमुत्त॑रः प॒क्षः ।
अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लो॑को भ॒वति ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः
अन्वयः
१ ) जो ब्रह्म को जनता हैं वो ब्रह्म धाम को प्राप्त होता हैं अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं।
२) जो ब्रह्म को ही सत्य , ज्ञान एवं अनन्त करके जानता हैं। वो परम व्योमन् अर्थात उसके हृदय में अर्थात परब्रह्म परमात्मा के जिदाकाश में वास करता हैं।
३) जो इसे सब कुछ ब्रह्म के तत्व ही करके जानता है वो परब्रह्म से समस्त इच्छा एवं ज्ञान पाल लेता हैं
३) आत्म से अकाश से वायु से अग्नि से जल से पृथ्वी से औषधि एवं अन्न से रेत ( रज ) से मनुष्य उत्पन्न हुई ये बात शतपथ ऐसे समझाया है अष्ठ वसु गण अपने गुण कर्म से ऐसा परस्थिती उत्पन्न करते हैं उससे समस्त सृष्टि एवं पालन होता हैं
४) पुरुष जो इस अन्न के सार को अन्नमय कोश में समा लेता है
५) शरीर के दायिनी भाग स्थित मनो मय कोश से आत्म तत्व को जानता लेता हैं
६) शरीर के बायनि भग में स्थित आत्म को जान लेता है ।
७) यही उससे ( परब्रह्म) को जानने केलिय सब से पहले स्त्रोत हैं
संबंध : मृतिका आदि उपादानो से घटा आदि वस्तुओं के रचना करने वाले कुम्भकार आदि कि भांति ब्रह्म को ही जगत के निमित्त कारण मानना युक्ति पुर्ण हैं इसे उपादान कैसे मानना है ये आगे सुत्र में कहा हैं।
विज्ञान मानते हैं आकाश से वायु से अग्नि से जल से पृथ्वी निकले हैं।
शास्त्रोनित्वात् = शास्त्र (वेद) में उस ब्रह्म के सत्य ज्ञान आदि लक्षण बातायें गये हैं उसी प्रकार उसको ही जगत कारण भी बताया है इसलिए पुर्व सुत्र के कथानानुसार परब्रह्म परमेश्वर को जगत कि उत्पति स्थति और प्रलय का कारण मनना सर्वथा उचित ही हैं
ब्रह्माण्ड वल्ली
ॐ ब्र॒ह्म॒विदा॑प्नोति॒ पर॑म् । तदे॒षाऽभु॑क्ता ।
स॒त्यं ज्ञा॒नम॑न॒न्तं ब्रह्म॑ । यो वे॑द॒ निहि॑तं॒ गुहा॒यां पर॒मे व्यो॑मन् ।
सोऽश्नुते सर्वान् कामान्त्सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ॥
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः ।
वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी ।
पृ॒थि॒व्या ओष॑धयः । ओष॑धी॒भ्योन्न॑म् । अन्ना॒त्पुरु॑षः ।
स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः ।
तस्येदमेव शिरः ।
अयं दक्षि॑णः प॒क्षः । अयमुत्त॑रः प॒क्षः ।
अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लो॑को भ॒वति ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः
अन्वयः
१ ) जो ब्रह्म को जनता हैं वो ब्रह्म धाम को प्राप्त होता हैं अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं।
२) जो ब्रह्म को ही सत्य , ज्ञान एवं अनन्त करके जानता हैं। वो परम व्योमन् अर्थात उसके हृदय में अर्थात परब्रह्म परमात्मा के जिदाकाश में वास करता हैं।
३) जो इसे सब कुछ ब्रह्म के तत्व ही करके जानता है वो परब्रह्म से समस्त इच्छा एवं ज्ञान पाल लेता हैं
३) आत्म से अकाश से वायु से अग्नि से जल से पृथ्वी से औषधि एवं अन्न से रेत ( रज ) से मनुष्य उत्पन्न हुई ये बात शतपथ ऐसे समझाया है अष्ठ वसु गण अपने गुण कर्म से ऐसा परस्थिती उत्पन्न करते हैं उससे समस्त सृष्टि एवं पालन होता हैं
४) पुरुष जो इस अन्न के सार को अन्नमय कोश में समा लेता है
५) शरीर के दायिनी भाग स्थित मनो मय कोश से आत्म तत्व को जानता लेता हैं
६) शरीर के बायनि भग में स्थित आत्म को जान लेता है ।
७) यही उससे ( परब्रह्म) को जानने केलिय सब से पहले स्त्रोत हैं
संबंध : मृतिका आदि उपादानो से घटा आदि वस्तुओं के रचना करने वाले कुम्भकार आदि कि भांति ब्रह्म को ही जगत के निमित्त कारण मानना युक्ति पुर्ण हैं इसे उपादान कैसे मानना है ये आगे सुत्र में कहा हैं।
विज्ञान मानते हैं आकाश से वायु से अग्नि से जल से पृथ्वी निकले हैं।
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