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आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं
संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |  
को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||  
द्वारं किमेक नरकस्य नारी |  
का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला

शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है?
गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध।

शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है?
गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है।

शिष्य - नरक का द्वार क्या है?
गुरु - महिला नरक का द्वार है।

शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं?
गुरु - अहिंसा (अहिंसा)।
अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें देखें कि "महिला" शब्द का क्या संदर्भ है और क्यों हिंदू धर्म शास्त्रों में।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो ।
वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥39॥ श्रीमद्भगवत ३ः३१ः३९
जो योग की समाप्ति तक पहुंचने की इच्छा रखता है और मुझे स्वयं को सेवा प्रदान करके स्वयं को महसूस किया है, उसे कभी भी एक आकर्षक महिला से संबद्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस तरह की एक महिला को पवित्र भक्त के लिए नरक का प्रवेश द्वार घोषित किया जाता हैं

योपयाति शनैर्माया योषिद्देवविनिर्मिता । 
तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः कूपमिवावृतम् ॥40।। श्रीमद्भगवत ३:३९:४०
भगवान द्वारा बनाई गई महिला, माया का प्रतिनिधित्व है, और जो एक सेवा स्वीकार करके इस तरह के माया के साथ सहयोग करता है उसे निश्चित रूप से यह जानना  है कि यह मृत्यु का द्वार है, जैसे कि एक अंधा घास से लिप्त हो जाता है। तो  एसे शब्दों को महिलाओं केलिए नहीं माया के रूप केलिए उपयोग किया जाता है ये जरूरी नहीं है कि एक महिला का अर्थ है महिलाओं की मृत्यु या संलग्न करने के लिए लिया हैं "इस निष्कर्ष में यह प्रतित  होता हैं कि महिला  नरक का द्वार नहीं हैं और वह सीधे महिलाओं की ओर इशारा नहीं करते लेकिन मोक्ष के पथ में जा रहे लोगों के लिए बाधाओं का उदाहरण देकर, मुख्य रूप से सन्यसी को ऐसे भौतिक सुख से दूर रखने की प्रेरणा देने केलिए उपयुक्त हुआ हैं। अर्थात संन्यास मार्ग में रत  मनुष्यों को ब्रह्मचर्य  का पालन करते हुए संसार के इस माया में नहीं पड़ना हैं अर्थात मोह या माया के इस बंधन से धुर रहने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं

यह मुण्डक  उपनिषद के इस श्लोक द्वारा स्पष्ट है, जिस पर श्री आदि-शंकर ने टिप्पणी लिखा था। चूंकि मणि रत्न माला से पद संख्या 3 का मुख्य उद्देश्य सन्यास मार्ग में रत मनुष्य आत्माबोधा से निवृत्ति कि कामना करते हुवे और भौतिक विषयों में इच्छा न करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है इस संदर्भ में पढ़ने पर हमें पता जलता है कि ऐसे शब्द संसार कि माया के संदर्भ में प्रयुक्त होता है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात् ।  
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥ ३.२.४॥
यह आत्मा बलहीन पुरुष को प्राप्त नहीं हो सकता है और न प्रमाद अथवा लिड़्ग अर्थात संन्यास रहित तपस्या से ही  मिल  सकता है परन्तु जो विद्वान इन उपायों से ( उसे प्राप्त करने लियें ) प्रयत्न करता हैं उसे यह आत्मा ब्रह्मधाम में प्रवेश कर देता हैं
भाष्य: बलहीन अर्थात आत्मा निष्ठाजनति शक्ति से रहित पुरूष द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं हैं न लौकिक पुत्र एवं पशु आदि विषयों की आसक्ति के कारण होने वाले  प्रमाद से ही मिल सकता हैं और न लिड्ग रहित तपस्या से ही यहां तप अर्थात ज्ञान  लिंड्ग अर्थात सन्यास तात्पर्य यह कि ये संन्यास रहित ज्ञान से प्राप्त नहीं होता । जो विद्वान यानी विवेक आत्मवेत्ता  तत्पर होकर बल अप्रमाद संन्यास और ज्ञान इन उपायों से ( उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है उस विद्वान का यह आत्मा ब्रह्म धाम में सम्यक रूप से प्रविष्ट हो जाता है
दीपिका : इसके अर्थ यह है कि संन्यास को शारीरिक मोह या भौतिक सुख सुविधाओं को त्याग कर ब्रह्म को तप से  निष्काम भक्ति करके  ज्ञानी भक्त बनें यहां भक्ती तथा ध्यान दोनों के उपासना करके अन्त में ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य ब्रह्म धाम में प्रविष्ट होकर मोक्ष कि प्राप्त करता हैं भगवद्गीता ७ में भी दिया गया हैं।
हरि ॐ तत् सत्

Comments

  1. यदि मान भी लिया जाए कि चर्चित मंत्र में मूर्ति पूजा का नहीं है लेकिन ईश्वर के लिए आये विश्लेषकों जैसे उपमा रहित, नाप तोल से परे है, महान यश दाता है, आदि आदि । इसका अर्थ यह हुआ कि एसे परमात्मा की मूर्ति भी नहीं बन सकती तो पूजा किसकी । यानी मंत्र की उपरोक्त व्याख्या में भी मूर्ति पूजा का विधान सिद्ध नहीं होता ।

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