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दुर्गा सुक्त का सार हिंदी अनुवाद

॥ जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑ मरातीय॒तो निद॑हाति॒ वेदः॑ ।
स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिंधुं॑ दुरि॒ता‌" त्य॒ग्निः ॥१॥

१: हम सोमा(वृक्ष का नाम)  को जातवेदस (देव अग्नि) को हविस देते हैं। कि ये आग सर्वज्ञ ब्रह्म के प्रतिक है़ं ये  हमें अन्त: शत्रुओं के सर्वनाश करके हमें बचाये तथा यें अग्नि हमें सभी
विपदाओं एवं अहित से बचाती है़। ये
हमें एक केवट की तरह अपने साथ ले जाती है जो एक नाव में नदी के पार लोगों को ले जाता है। भाव ये हैं कि जातवेदास  नामक अग्नि जो परब्रहा के प्रतिक होता है उससे जान से हम संसार के परे जाकर ब्रह्म को जानकर मोक्ष पाते हैं और एवं ये अग्नि हमारे मन के बुरे विचारों को दुर करके परब्रह्म को जानने में साहयक होवें ।
ताम॒ग्निव॑र्णां तप॑सा ज्वल॒न्तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा॓म् ।
दु॒र्गां दे॒वीग्ं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॑ नमः॑।   ‌ ॥२॥

२: मैं उस देवी दुर्गा की शरण लेता हूं जो अग्नि के रंग की है, जो अपने तपस (आध्यात्मिक अग्नि) से झुलसती है, जो विरोचन (परमपिता) की पत्नी है और जो कर्मों के फल की अधिकारी है। सांसर के नदी के पार लोगों को लेना जाने में कुशल होने वाले आपके के प्रति हमं आभार हैं। हमें पार करने की कृपा करें।

अग्ने॒ त्वं पा॑रया॒ नव्यो॑ अ॒स्मांथ्-स्व॒स्तिभि॒रति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॓ ।
पूश्च॑ पृ॒थ्वी ब॑हु॒ला न॑ उ॒र्वी भवा॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शंयोः ॥३॥

३: हे दुर्गा रुपि जातवेदास अग्ने, आप ही स्तुति के लायक है, आप ही हमें उन सभी सांसारिक एवं भौतिक विपदाओं से पार ले जाती है एवं हमें सुरक्षित करति हैं। हमारे शहर और हमारी भूमि को विस्तृत करें। एवं आपके बच्चों को खुश करो। अर्थात समस्त मनुष्यों को विविध प्रकार धन संपत्ति से खुश करें
विश्वा॑नि नो दु॒र्गहा॑ जातवेदः॒ सिन्धु॒न्न ना॒वा दु॑रि॒ता‌" ति॑पर्षि ।
अग्ने॑ अत्रि॒वन्मन॑सा गृणा॒नो॓‌" स्माकं॑ बोध्यवि॒ता त॒नूना॓म् ॥४॥

४:हे जाटवेदस्‌ अग्नी आप  ही हैं।जो विपदाओं को दूर करने की कला से अभिव्यक्त हैं, हमें उस सारे विपदाओं से केवट कि तरह  परे ले जाते हैं, जो लोगों को नदी के पार   ले जाता हैं। हे अग्नि, तुम अत्रि जैसे हमारे शरीर के सावधान रक्षक हो  जो सभी प्राणियों के कल्याण के लिए हमेशा चिंतित रहते हैं।
पृ॒त॒ना॒ जित॒ग्ं॒ सह॑मानमु॒ग्रम॒ग्निग्ं हु॑वेम पर॒माथ्-स॒धस्था॓त्।
स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॒ क्षाम॑द्दे॒वो अति॑ दुरि॒ता‌உत्य॒ग्निः ॥५॥

५:जो उच्चतम स्थानों से, अग्नि होता यजमानों के अन्तः शत्रु  जो वनकर्मी‌  शक्तिशाली एवं अजेय होता हैं और जो लोगों हमें देव याग में कष्ट पहुंचते हैं उनके  प्रति आप आक्रमण करी  होकर  आप हमें सभी विपदाओं एवं अहित  से रक्षा करें। भाव ये है कि आप हमारे अन्दर बुरे विचारों को नाश करके हमें आपके इस अनन्त स्वरूप को जानने कि कृपा करें

प्र॒त्नोषि॑ क॒मीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च सत्सि॑ ।
स्वांचा॓‌உग्ने त॒नुवं॑ पि॒प्रय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒माय॑जस्व ॥६॥
६: हे अग्नि आप ही स्तुति  करने योग्य हैं आप को हम हविस देते हैं आप हमारे हवन से आनंदित हो। प्राचीन विपदाओं एवं नवीन विपदाओं  पर  आक्रमणकारी हो तकी वो आपके बल से नाश हो अग्नि, अपने आप को इस हविस से प्रसन्न करो और हमें समृद्धि प्रदान करो।
भाव ये हैं कि अग्नि हमारे अन्तः स्थित पुराण कष्ट एवं नवीन विचारों से उत्पन्न होने वाले कष्टों को नाश करें और हमें परब्रह्म को जानने में सहयाता करें

गोभि॒र्जुष्ट॑मयुजो॒ निषि॑क्तं॒ तवें॓द्र विष्णो॒रनु॒संच॑रेम ।
नाक॑स्य पृ॒ष्ठम॒भि सं॒वसा॑नो॒ वैष्ण॑वीं लो॒क इ॒ह मा॑दयंताम् ॥७॥

 हे इंद्र, मन इन्द्रियों के स्वामी देह में  सर्व व्यप्क इस परब्रह्म को हम आपको मनो और इन्द्रियों से हविस से खुश करेंगे ताकि हम इन मन इन्द्रियों से पारे जाकर परब्रह्म में लीन हो सके  जो आप उन   स्वर्ग के पर रहते हैं, और  विष्णु की चिदा आकाश  दुनिया में चित के प्रार्दूभाव  इस वैश्णव लोग के मातृरूप वैश्णवी आपके इस विष्णु  के जिदा आकाश को प्राप्ता कर सके आप हमें उस विष्णु लोक के समस्त भौतिक संपदाओं को धारती पर लाकर हमें समृद्ध करें

ॐ का॒त्या॒य॒नाय॑ वि॒द्महे॑ कन्यकु॒मारि॑ धीमहि । तन्नो॑ दुर्गिः प्रचो॒दया॓त् ॥
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥८॥

हम कात्यायनी के उस चिदान्द  रूप को जानने के  प्रयास करेंगे, हम कन्याकुमारी पर चिंतन में संलग्न होंगे दुर्गा जो सब प्रकृति के मातृ स्वरुप हैं वो हमें हमारे  अन्तः अग्नि शील आत्म रूप परमात्मा को जानने केलिय हमें मार्गदर्शन करने हेतु एवं आपको प्रसन्न करने हेतु हविस दे कर उपासना करते हैं।
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑

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