Skip to main content

वेद मानव को कैसे मिला?

वेद नाम किम् ? वेद क्या हैं?

१)" वेदयति इति वेदः"। वेद को ज्ञान कहा हैं वेदयति शब्द से स्वय पर ब्रह्म परमात्मा से ही बोधन सिद्ध होता हैं।
२) वेदं इति पदम् " विद् धातोः निष्पन्नः भवति। वेद पद विद् धातु से उत्पन्न हुआ हैं।
३) वेदसहित्यमेव भारतीय संस्कृतेः मुलं । वेद सहित्य से संस्कृत ही मूल हैं।
४) ऋषयः भगवता ज्ञात्वा छात्रान् प्रति बोधितवन्तः। ऋषियों ने भगवान के इस ज्ञान को जानकर शिष्यों केलिए बोधन किया।
५) अतः वेदानाम् " श्रृति " इति नामन्तरं प्रख्यातम्। इसलिए वेद का नामन्तर श्रृति हैं
६) ऋक् यजुस् साम अथर्वण इति चत्वारः वेदाः सन्ति। ऋग, यजु, साम ,अथर्व नाम के चार वेद हैं।
७) वेदेषु ब्राह्मण संहिता,आरण्यक उपनिषत् इति चत्वारः भागाः सन्ति। वेद में आरण्यक, संहिता ,ब्राह्मण , नाम के चार भाग हैं
८) वैदिकवाङ्गमयस्य सारभूतो भागः उपनिषत्। वेद वांग्मय मे के सार भूत भाग को उपनिषद कहते हैं ‌।
९)अत एवस्य वेदान्तः इति नामान्तरं प्रसिद्धम्। इसका ही वेदान्त जो अन्तिम ज्ञान हैं इसके अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं हैं यहां अन्तिम शब्द से वेद के अन्त होना कदापि सिद्ध नहीं होता हैं परन्तु यहां अन्त में जो ज्ञान पान हैं वो यही ब्रह्मविद्या हैं भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।१५:१५।। भगवद्गीता
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ। मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।
१०) वेदस्य निर्णायात्मकं भागः अयमिति अन्तः पदस्य अर्थः आगे इसी ब्रह्म विद्या का 'अयं इति अन्य: अर्थात यही अन्त हैं यही तत्पर्य गीत के श्लोक में वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं ही हूं और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हुं इस पद से सिद्ध होता हैं।
११) उपनिषत् शब्दस्य निष्पत्तिः एवं भवति सद् धातोः प्राक् "उप" "नि" उपसर्गैः तथा क्विप् प्रत्ययः आगत्य उपनिषत् इति रूपः सिध्यति। उपनिषद शब्द का उत्पत्ति सद् धातु के साथ प्राक "उप " नि उपसर्ग के साथ क्विप प्रत्यय के प्रयोग से उपनिषद के रुप सिद्ध होता हैं।
१२) अनेक उपनिषदः सन्ति, परन्तु, तेषु ईश केन कठ प्रश्न मुण्डक माण्डुक्य तैत्तिरीय ऐतरेय छनदोग्य तथा बृहदारण्यक एते दश उपनिषदः प्रमुखाः।
उपनिषदों में बहुत से हैं आज उपलब्ध १५० तक हैं लेकिन इनमें ईश केन कठ प्रश्न मुण्डक माण्डुक्य तैत्तिरीय ऐतरेय छनदोग्य तथा बृहदारण्यक नाम से दश संख्या का उपनिषद प्रसिद्ध हैं अब वेद के ज्ञान कैसे मिला इसके क्रम आदि के व्याख्या करेंगे।

ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥ मुण्डक उपनिषद १:१
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तं पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्‌।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्‌ ॥ मुण्डक १:२
यद्ब्रह्माश्रित्य वर्तते विद्याविद्ये महाभ्रमे ।
तदपह्रवसंसिद्वं तदहं परमाक्षरम् ॥
इह खलु अथर्वणवेदप्रविभक्तमुण्डकशाखामस्तकमुण्डकोपनिषदारभ्यते । उपनिपूर्वस्य षद्लृधातोरर्थस्मरणात् ये ब्रह्मविद्यामुपयन्ति तद्गर्भजन्माद्यनर्थव्रात‌ं शातयति स्वाविद्यामवसादयति, निरविद्यं ब्रह्म वा गमयतीति ब्रह्मविद्यासंप्रदायकर्तृपारं पर्यदर्शनात्।
"ब्रह्मा देवानां" इत्याद्यथर्वाद्यैः महद्भिः परमपुमर्थसाधनत्वेन ब्रह्मविद्या लब्धेति विद्यायां स्तुतायां तत्र सर्वे प्रवर्तेरन्निति विद्या महीकृता ।
विधिप्रतिषेधसाध्यसाधनविषयत्वेन "ऋग्वेदादिलक्षणापरविद्याः सकामिनां अविद्ययामन्तरे वर्तमानाः" इत्यादिना संसारहेतुत्वेऽपि निष्कामिनां कर्मफलार्पण तुष्टेशप्रसादतः सत्त्वशुद्धिद्वारा सर्वकर्मत्यागलक्षणब्रह्मविद्याहेतुत्वमवगम्यते। "न कर्मणा न प्रजया धनेन " "वेदान्तविज्ञानसुनिश्वितार्थः " इत्यादिना अपरा विद्यासाधननिरूपन्नपरविद्यायः स्वोत्पत्तिसमकालः परमाक्षरमवगम्यते । यथा " तदक्षरमधिगम्यते यत्तदद्रेश्यं इत्यादिना प्रबोधसमकालं तद्भावापत्तिरिह श्रूयते। " ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति"
इत्यादिना शास्त्रादावेवानुबन्धचतुष्टयस्य प्रकटितत्वान्नेह वक्तव्यमस्तीति एवमुक्तलक्षणलक्षितोपनिषदोऽल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते ब्रह्मा देवानां इत्यादिना। षड्गुणैश्वरसंपत्त्या ब्रह्मा हिरण्यगर्भो द्योतनवतां इत्यादिदेवनां प्रथमः प्रधानः सन् अग्रे संबभूव अविर्बभूवेत्यर्थः " हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे" इति श्रुतेः। यथा कर्मवशात्संसारिणो जायन्ते न तथायमाविर्बभूव तस्य निरावृतत्वेन स्वांशजप्राण्यदृष्टायत्तस्वतन्त्रत्वात्। स हि विश्वस्य कर्ता चतुराननरूपेन विश्वकृत्त्वात् । स्वोत्फन्नविश्वस्य विष्णु वा विष्णु च में इति मत्वात् शिव रूपेण गोप्ता स्वनिष्ठाद्वयदूषशासनपूर्वकं तदनुवर्तिसज्जनपालयितृत्वात्‌ एवं ब्रह्मण उक्तविशेषणं विद्यामाहात्यं ख्यापयति । स हि ब्रह्मा स्वातिरिक्ता पह्रवतः स्वामात्रतयोपबृंहणात् ब्रह्म ।तस्य " येनाक्षरं पुरूषं वेद सत्यं" इति ब्रह्मविद्या। यद्वा - ब्रह्मणा उक्तेति वा ब्रह्म विद्या । तां सर्वविद्याभिव्यक्ति- हेतुत्वेन " येना श्रुतं भवति" इति सर्वविद्याविद्यं वस्तु यत्र प्रतितिष्ठति तां सर्वविद्याप्रतिष्टां अथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह उपदिदेशेत्यर्थः । ब्रह्मणा सृष्टप्राणिषु अस्य प्रथमसृष्टत्वात् ज्येष्ठत्वात् ॥१॥ पुरा हि ब्रह्मा यां अथर्वणे चाङ्गिर्भारद्वाजाय भारद्वाजगोत्राय सत्यवाहाय प्राह । स हि भारद्वाजोऽङ्गिरसे स्वपुत्राय शिष्याय वा परस्मादाचार्यादवरेण शिष्येण प्राप्तेति परावराम् । परः परमात्मा अवरः प्रत्यगात्मा तद्गतविशेषांशापाये तदुभयैक्यविषयेति वा परावराम् प्राहेत्यनुषज्यते ।
हिन्दी अनुवाद:
समस्त देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का रचयिता और त्रिभुवन का रक्षक था । उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओंकी आश्रयभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया । १:१:१
अथर्वा को ब्रह्माने जिसका उपदेश किया था वह ब्रह्मविद्या पूर्वकालमें अथर्वा ने अङ्गी को सिखायी । अङ्गी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से कहा तथा भरद्वाजपुत्र ( सत्यवह ) ने इस प्रकार श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त होती हुई वह विद्या अङ्गिरा से कही । १:१:२
व्याख्या: ये मुण्डक उपनिषद अथर्ववेद के शाक के अन्तर्गत आता हैं इसके तपार्य हैं कि सब से पहले देवों में से ब्रह्म जी उत्पन्न होकर वेद को अग्नि , वायु आदित्य आदि देवताओं को वेद दिया गया था यहां वेद पहले से था इसके रचना न हि किया गया हैं क्यों कि उपनिपूर्वस्य षद्लृधातोरर्थस्मरणात् इस धातु के तत्पर्य हैं कि पुर्व में ब्रह्मा जो हिरण्य गर्भ में से उत्पन्न हुआ था उसने ही सृष्टि के आरंभ में इस विद्या को इन देवों को ही दिया था यहां वेद के जो ब्रह्म विद्या जो हैं उसे ही अंगिरा नमक ऋषि जो ब्रह्मा जी के जेष्ट पुत्र थे उन्होंने त्रयिवेद से अथर्व वेद अलग करके एक नया वेद के बोधन किया इसि कारण अथर्वेद में गद्य पद्य दोनों शेली में पाया जाता हैं यहां गम धातु से ये सिद्ध होता हैं कि अथर्वेद जो अंगिरा से परंपरा गत भारद्वाज गोत्रजों को प्राप्त हुआ। अतः इससे पाने हेतु संसार के सकामाना रहित कर्म भाव से निषकामना से ही बोध होता हैं इसके प्रबोधन के काल के निष्कर्ष ये निकल सकता हैं। ये अपरा विद्या पहले परमाक्षर था अर्थात नाश रहित ही था उदाहरण केलिए जैसे अन्तः शब्द बाह्य शब्द जो हम सुनते हैं हमें लगता हैं वो नाश होगा गया हैं लेकिन वास्तविकता में ये शब्द अपने मूल तत्व जो आकाश में व्याप्त हो गया हैं इसलिए वहीं शब्द हम सुने थे हैं वो प्रकट हो सकता हैं। वैशेषिक एवं न्याय दर्शनों में शब्द का व्याख्या इस प्रकार दिया गया हैं
शब्द दो प्रकार के होते हैं ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक
ध्वन्यमात्मक को अव्यक्त स्थिति के लक्षण में मानते हैं जैसे डमरू के नाद से उत्पन्न होना या प्रमाणु के संयोग विभाजन आदि से उत्पन्न होना हर शब्द को इसी श्रेणी में रखा जाता हैं इसे र्भर्याद्वौ अर्थात व्यक्त रूप में या बीना कोई रुपों में अभिव्यक्त न होते हुए भी प्रकट होता हैं वा बोध होता हैं।
उदाहरण केलिए बारिश के बुंदे धरती पर गिरने से जो शब्द उत्पन्न होता है उसके कोई शब्द कि रूप नहीं होता न संस्कृत या अन्य भाषा में कोई अर्थ बनता हैं ।
दुसरे शब्द भेद वर्णात्मक हैं इस प्रकार के शब्दों को भाषा रूप में मानते हैं जैसे संस्कृत के वर्ण माला को प्रकट करने केलिए प्रयत्न के अव्श्यकता होते हैं संस्कृत व्याकारण में इसे बाह्य (बाहरी) एवं आभ्यन्तर(अन्तरिक ) प्रयत्नों में विभक्त किया गया हैं । इस शब्द को अक्षरी संज्ञा दिया गया हैं जैसे ऋग्वेदादि ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् १:२६४:३९ इस मंत्र में कह गया हैं जो मंत्र तथा स्त्रोत या जो भी शब्द गुण से संपन्न शब्दाकाश में व्याप्त हैं और इसमें सर्व देवता शक्ति अधि व्याप्त हैं और माण्डुक्या का ॐ मित्येदक्षरमिदं सर्वं इस श्रुति में शब्द ॐ कार कोई अक्षर ब्रह्म कहा हैं इसलिए ये निष्कर्ष निकल सकता हैं ब्रह्म ही शब्द हैं शब्द ही ब्रह्म हैं अगर शब्द को नित्य नहीं माने तो संयोग या विभाग सिद्ध नहीं होता हैं हिन्दू धर्म के अनेक कैवदान्ति ,पुराण
वेद, या शैव दर्शन के अधिगत स्पंदन कारिका में मया वा विद्या जो भी प्रकृति से स्पंदन होता जो ब्रह्म के कारण होता हैं उसे भी शब्द वा ॐ कार कहा गया हैं जैसे बादल के घर्षन से जो गरज उत्पन्न होता हैं उसके कारण ही बिजली दिखाता हैं यहां संयोग या विभाग नहीं होता बिजली उत्पादन के कारण नहीं होता इसलिए वेद से निकला हुआ ये ब्रह्म विद्या सत्य हैं एवं यही ब्रह्म से प्रतिपादित किया गया था। इसके तत्पर्य हैं कि ये शब्द पहले से ही था मंत्र जो अक्षर हैं वो भी शब्द ही हैं
शब्द के व्याख्यान तैतरियक में ऐसा दिया गया हैं
आत्म से आकाश से वायु से अग्नि से तथा जल एवं जल से पृथ्वी उत्पन्न होता हैं इससे निष्कर्ष निकाला जाता हैं जो आत्मा के मुल भूत तत्व जो ब्रह्म अग्र में उत्पन्न हुआ उससे ही सब सृजन हुआ तैतरयक के शिक्षा वल्ली में कहा गया हैं ॐ शीक्षां व्याखास्यामः। वर्णः स्वरः मात्रा बलं सामः सन्तानः इति शीक्षाध्यायः उक्तः॥
शिक्षा के व्याख्यान करते हुए समस्त वर्णामात्क अक्षरों के उत्पत्ति के कारण शब्द हैं वहीं ॐ कार हैं यहां इसके तत्पार्य निकलता हैं कि शब्द से वर्ण तथा स्वर सुरतारत्व' (मात्रा) तथा 'प्रयास' (बल), 'समतान' (साम) तथा 'सातत्य' (सन्तान) इन छहों में हमने शिक्षा के अध्याय का कथन किया है।
अब आत्मा को ज्ञान मिलना के क्रम कौनसा हैं इसके व्याख्या करेंगे वैशेषिक सुत्र में कहा गया हैं
आत्मा का मुख्यतः गुण ज्ञान हैं उसके जो शरीर के मन इन्द्रयों के संयोग जो इच्छा राग द्वेष आदि जो चिह्न हैं उससे इच्छा के प्रयत्न के कारण ज्ञान स्वयं ब्रह्म प्रकट कर लेता हैं उसे जो ब्रह्म से ज्ञान कि अनुभुव हुआ उसी विद्या जो परमाक्षर जो था उसी ज्ञान को ब्रह्म विद्या कहा हैं । इसे एक उदाहरण के रुप में प्रस्तुत करेंगे यहां लिख चतृमुखि ब्रह्म ने जो उक्त किया था वहीं ज्ञान का अनुभव जो वस्तु निष्ठा या आध्यात्म का ज्ञान के अनुभव मन बुद्धि द्वारा हुआ था जैसे विद्यार्थियों को किताब के ज्ञान के साथ अध्यापक के उक्त वाणी से भी ज्ञान प्रकाशित होता हैं कठो उपनिषद एवं मुण्डक २:२:१५/२:११ में कहा हैं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ उसके प्रकाश ही सर्वत्र व्याप्त हैं। यहां आर्य समाज जैसे मतों का खण्डन होता हैं जो कहते हैं की निराकार परमात्मा ने ज्ञान प्रकट किया।ये गलत हैं क्यों यहां जेष्ट पुत्राया प्राह अर्थात अपने जेष्ट पुत्र अथर्वा को सर्व विद्या प्रतिष्ठित जो श्रुत था उसे ही उपदेश किया। यहां आर्य समाज के खण्डन होता हैं क्यों कि यहां निराकार के ४ मुख नहीं होता हैं । दुसरे पक्ष में अन्य देवताओं जो अग्नि वायु आदित्य जो हैं उसे वेद के ज्ञान नहीं दिया था उसे ही वेद रक्षा के कार्य सौंपा था ये बात मनुस्मृति में भी दिया गया हैं।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातन।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमॄग्युजःसाम लक्षणम् ।।१:२५।।

इसके उपरान्त उस परमेश्वर ने यज्ञ की सिद्धि के लिए तीनों देवों -अग्नि, वायु और सूर्य को क्रमशः ब्रह्ममय और सनातन तीनों वेदों - ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद को दोहा अर्थात प्रकट किया
१) प्रारम्भ में वेद तीन थे । कालान्तर में इन तीनों वेदों के अभिचार तथा अनुष्ठानपुरक कुछ मन्त्रों को पृथक करके अथर्व अथर्वणवेद नाम से चतुर्थ वेद अस्तित्व में आया। इस चतृर्थ वेद के सम्पादक महार्षि अंगिरा थे और वे ही कदाचित अभिचार विद्या का भी पुरोहित थे । अतः जहां अभिचार केलिए 'अंगिरस' शब्द का प्रयोग चल पड़ा वहां अथर्वणवेद का भी एक दुसरा नाम 'अंगरिस' वेद प्रचलित हो गया ‌।
२) यहां एक उल्लेखनीय तथ्य यह हैं कि मूलतः वेद एक हैं। उस एक ही वेद का विषय -भेद से ऋग्यजुसाम तीन भागों में विभाजन हुआ हैं यही कारण हैं कि यहां मनु महाराज ने त्रयम एक वचनान्त रूप का प्रयोग किया हैं।
३) एक अन्य ध्यान देने योग्य यह भी‌ हैं का वेद का दोहन किया गया । इसका रचना नहीं की गयी। अनादि परब्रह्म परमेश्वर ने प्रलय काल में अग्नि वायु सुर्य इन देवों को इन्हें अधिष्ठा कहते हैं। अर्थात जैसे अग्नि के समस्त तत्वों के अधिष्ठा अग्नि देव हैं एवं वायु एवं सुर्यो कि समस्त तत्त्वों के अधिष्ठा वायुदेव तथा सुर्य देव हैं ।ये तथ्य निकल सकता हैं की परब्रह्म परमात्मा ने क्रमशः ऋग्यजुसाम लक्षणक वेदों को सुरक्षित रखने का कार्य इन्हीं देवों को सौंपा और पुनः सृष्टि के प्रारम्भ में उनके माध्यम से उसे प्रकट किया। इसी कारण वेद को अपौरुषेय कहा हैं।यहां आर्य समाजी के ऋषि था परमात्मा द्वारा हृदय में वेद प्रकट किया ऐसा मानना मुर्खाता हैं क्यों की यहां हृदय शब्द नहीं हैं न अग्नि वायु सुर्य वेद में ऋषि माना हैं ।ये सब वैदिक देवता हैं।

Comments

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र