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नाट्य एवं काव्य शास्त्र एक अध्ययन

भरतमुनिः
नाटकस्य सर्वेषाम् अङ्गानां विवचेनात्मको ग्रन्थः भरतमुनिना  विरचितं नाट्यशास्त्रम् ।
भावः नवरसानां ,नवभावनां ,च उल्लेख प्रथमतः नाट्यशास्त्रे एव कृतः इति ज्ञायते। नाट्यशास्त्रस्य रचनाकालः क्रिस्ताब्दात्  प्राक् एव इति विदुषाम् अभिप्रायः।

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र व्यवहार नाट्यशास्त्र के प्रत्येक अंक से होता हैं। ये ऐसा एक मात्र किताब हैं। जहां नवरस नवभाव को सबसे पहले इतिहास में उल्लेख किया हैं। विद्वानों के मानना हैं इस शास्त्र के रचना  क्रि पुर्व में ही हुई हैं।

१) शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयनाकः
बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृतः
भावः
अ) शृङ्गार
आ) हास्य
इ) करुण
ई) रौद्र
उ) वीर
ऊ) भयानक
ए) बीमत्स
ऐ) अद्भुत
ओ) शान्ताः
इति नव रसाः नाटकादि रूपकेषु भवन्ति। ये नवरसों को नाट्यशास्त्र में माना गया हैं।

२)रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भय तथा।
जगुप्साविस्मशामः स्थयिभावाः प्रकृर्तिताः

भावः यथा नवरसाः तथा
अ) रतिः
आ) हासः
इ) शोकः
ई) क्रोधः
उ) उत्साहः
ऊ) भयम्
ए) जुगुप्सा
ऐ) विस्मयः
ओ) शाम
ऐसे ९ स्थायि भाव को नाट्य तथा काव्य में मना गया हैं।

३)च इति नवस्थायीभावः इति उक्ताः
न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो‌ रसवर्जितः।
परस्पकृता सिद्धः तयोरभिनये भवेत्।

भावः श्रृङ्गरादिरसाः रत्यादिभावैः विहीनाः भवितुं न‌ शक्यते। रसवर्जितः भावः न अस्ति। रसभावयोः परस्पर सहकृते तु रूपकाणां  अभिनये सहृदयेन अनुभूयते ।

रस एवं भाव के बीच स्वतन्त्र सत्ता नहीं हैं। अर्थात रस के बिना भाव या भाव के बिना रस नहीं हो सकता हैं। एवं भाव और रस के संयोग से ही सहृदय इसके अनुभव हो सकता हैं।

४)व्याञ्जनौषधिसंयोगो यथान्नं स्वादुतां नयते।
एवं भावा रसाश्चैव भावयन्ति परस्परम् ।

भावः यथा व्यञ्जनस्य मिश्रणेन आहांर स्वादुतां नयते्। तथा भावः च रसाः परस्परं मिलित्वा स्वादिष्टताम् उत्पादयन्ति।

जिस प्रकार अन्न अचरा के संयोग स्वाद कर होते हैं।ऐसा ही रस भाव के संयोग से काव्य में रूचि उत्पन्न होता हैं।

५)यथा बीजाद्भवेद्वृक्षो वृक्षात् पुष्पं फलं यथा।
तथा मूलं रसाः सर्वे तेभ्यो भावा व्यवस्थिताः।

भावः यथा बीजात् वृक्षः ,यथा वृक्षात् फलं च सर्व रसाः मूलं  काव्यनन्दस्य मूलभावेन स्थिताः। रसेभ्यः भावाः व्यवस्थिताः।

जिस प्रकार वृक्ष एवं फल  मूलतः बीज से मिलता हैं ऐसे ही सब रस काव्य अनन्द के मूल भाव के संयोग से रसों से भाव व्यस्थित हो जाता हैं।

६)योऽर्थो हृदयसंवादी तस्य भावों रसोद्भवः ।
शरीरं व्याप्यते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।।

भावः यः काव्यार्थः आस्वादकस्य हृदयं स्पृशति, तस्य भावः रसात् उद्भूतः‌। यथा शुष्कम् काष्ठम् अग्निना अव्रियते तथा भावेन शरीरं व्याप्यते।

जब काव्य रसभावों से व्याप्त हो जाता हैं तब वो हृदयसंवादी (पढ ने वाले) को जैसे सुखा लकड़ी पर आग आवृत हो जाता हैं। ऐसे त्वरित रूप से भाव नाट्यकार के शरीर में व्याप्त हो जाता हैं।

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