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Showing posts from September, 2019

दुर्गा सुक्त का सार हिंदी अनुवाद

ॐ ॥ जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑ मरातीय॒तो निद॑हाति॒ वेदः॑ । स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिंधुं॑ दुरि॒ता‌" त्य॒ग्निः ॥१॥ १: हम सोमा(वृक्ष का नाम)  को जातवेदस (देव अग्नि) को हविस देते हैं। कि ये आग सर्वज्ञ ब्रह्म के प्रतिक है़ं ये  हमें अन्त: शत्रुओं के सर्वनाश करके हमें बचाये तथा यें अग्नि हमें सभी विपदाओं एवं अहित से बचाती है़। ये हमें एक केवट की तरह अपने साथ ले जाती है जो एक नाव में नदी के पार लोगों को ले जाता है। भाव ये हैं कि जातवेदास  नामक अग्नि जो परब्रहा के प्रतिक होता है उससे जान से हम संसार के परे जाकर ब्रह्म को जानकर मोक्ष पाते हैं और एवं ये अग्नि हमारे मन के बुरे विचारों को दुर करके परब्रह्म को जानने में साहयक होवें । ताम॒ग्निव॑र्णां तप॑सा ज्वल॒न्तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा॓म् । दु॒र्गां दे॒वीग्ं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॑ नमः॑।   ‌ ॥२॥ २: मैं उस देवी दुर्गा की शरण लेता हूं जो अग्नि के रंग की है, जो अपने तपस (आध्यात्मिक अग्नि) से झुलसती है, जो विरोचन (परमपिता) की पत्नी है और जो कर्मों के फल की अधिकारी है। सांसर के नदी के पार लोगों को ले

नाट्य एवं काव्य शास्त्र एक अध्ययन

भरतमुनिः नाटकस्य सर्वेषाम् अङ्गानां विवचेनात्मको ग्रन्थः भरतमुनिना  विरचितं नाट्यशास्त्रम् । भावः नवरसानां ,नवभावनां ,च उल्लेख प्रथमतः नाट्यशास्त्रे एव कृतः इति ज्ञायते। नाट्यशास्त्रस्य रचनाकालः क्रिस्ताब्दात्  प्राक् एव इति विदुषाम् अभिप्रायः। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र व्यवहार नाट्यशास्त्र के प्रत्येक अंक से होता हैं। ये ऐसा एक मात्र किताब हैं। जहां नवरस नवभाव को सबसे पहले इतिहास में उल्लेख किया हैं। विद्वानों के मानना हैं इस शास्त्र के रचना  क्रि पुर्व में ही हुई हैं। १) शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयनाकः बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृतः भावः अ) शृङ्गार आ) हास्य इ) करुण ई) रौद्र उ) वीर ऊ) भयानक ए) बीमत्स ऐ) अद्भुत ओ) शान्ताः इति नव रसाः नाटकादि रूपकेषु भवन्ति। ये नवरसों को नाट्यशास्त्र में माना गया हैं। २)रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भय तथा। जगुप्साविस्मशामः स्थयिभावाः प्रकृर्तिताः भावः यथा नवरसाः तथा अ) रतिः आ) हासः इ) शोकः ई) क्रोधः उ) उत्साहः ऊ) भयम् ए) जुगुप्सा ऐ) विस्मयः ओ) शाम ऐसे ९ स्थायि भाव को नाट्य तथा काव्य में मना गया हैं। ३)च इति नवस

नारायण सुक्त का सार

नारायणसूक्तम् ॐ स॒ह ना॑ववतु। स॒ह नौ॑ भुनक्तु। स॒ह वी॒र्यं॑ करवावहै । ते॒ज॒स्विना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै᳚ ॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ परम आत्मान्!  कृपया हम दोनों (शिक्षक और शिष्य) एक साथ रक्षा करें हमें एक साथ पोषन करें।  हमें जो ज्ञान मिली है, वह महिमा और परिश्रम से युक्त होकर। हमारे बीच कभी  विरोधी भवना ना हो तीनों दुःख अध्यात्मिक अधिभौतिक आधिदैविक दुःखों से हम शांन्ति मिलें ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः १)ॐ ॥ स॒ह॒स्र॒शीर्॑षं दे॒वं॒ वि॒श्वाक्षं॑ वि॒श्वश॑म्भुवं । विश्वं॑ ना॒राय॑णं दे॒व॒म॒क्षरं॑ पर॒मं प॒दम् । सहस्र शिर से युक्त अर्थात सब दिशाओं में देखते हुए परम पुरुष नारायण परमात्मा समस्त विश्व को प्रकाश देने वाला समस्त प्राणियों यो के द्रष्टा होते हुए विश्वाक्ष हैं अर्थात समस्त जगत के जीवों को ज्ञान देने वाला भगवान नारायण परमात्मा ही  समस्त देवताओं को एवं समस्त विश्व को बनाने वाला भगवान नारायण अविनाशी तथा नित्य रहने वाले नारायण परमात्मा इस विश्व में स्थित हैं। अतः इस जगत के प्राण रक्षा भगवान ही करता हैं ये जो पुरुष नारायण परमात्मा हैं वो अन्त सर्व व्यापक होते हुए भगवान

आर्य समाजी दयानंद सरस्वती के अद्भुत विचार

आज कल आर्य समाज को हर हिन्दू मत को झूठे आरोपित करने के बड़ा शौक हो गया भारत के इतिहास तोड़ मरोड़ कर बतना और आर्य समाजी आदि शंकराचार्य मध्वाचार्य एवं रामानुजाचार्य के बारे अप‌ शब्द बोलते हैं हिन्दू जैन बौद्ध धर्म के बीच में फुट डालने हेतु ये तक बोल दिया हैं कि आदि शंकराचार्य को जैन लोगों ने जहर दिया था इसके कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन आर्य समाज ऐसा इसलिए करते हैं कि दयानन्द ने इन्हें जिहाद भी सीखया हैं दयानन्द अपने सत्यार्थ प्रकाश में इस नीचे दिया हुआ मनुस्मृति के श्लोक में जिहाद के अर्थ किया जो वास्तव में नहीं लिखा हैं जो वेद में मानव धर्म सीखते हैं ऐसा वैदिक धर्म में जिहाद घुसाने केलिए आर्य समाजी को शर्म आना चाहिए आज हम इसके खण्डन करेंगे सच तो ये हैं न तो इसमें जिहाद हैं न तो ऐसा अर्थ होता हैं रथाश्वं हस्तिनं छात्रं धनं धान्यं पशूस्त्रियः सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति  तस्य तत् मनुस्मृतिः ७/९६ दयानन्दास्तु :  इस व्यावस्था को कभी न तोड़ें जो-जो लड़ाई  में जिस जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े,हाथी ,छत्र ,धन धान्य गाय आदि पशु और स्त्रियाँ तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तैल आदि

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें