ॐ ॥ जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑ मरातीय॒तो निद॑हाति॒ वेदः॑ । स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिंधुं॑ दुरि॒ता" त्य॒ग्निः ॥१॥ १: हम सोमा(वृक्ष का नाम) को जातवेदस (देव अग्नि) को हविस देते हैं। कि ये आग सर्वज्ञ ब्रह्म के प्रतिक है़ं ये हमें अन्त: शत्रुओं के सर्वनाश करके हमें बचाये तथा यें अग्नि हमें सभी विपदाओं एवं अहित से बचाती है़। ये हमें एक केवट की तरह अपने साथ ले जाती है जो एक नाव में नदी के पार लोगों को ले जाता है। भाव ये हैं कि जातवेदास नामक अग्नि जो परब्रहा के प्रतिक होता है उससे जान से हम संसार के परे जाकर ब्रह्म को जानकर मोक्ष पाते हैं और एवं ये अग्नि हमारे मन के बुरे विचारों को दुर करके परब्रह्म को जानने में साहयक होवें । ताम॒ग्निव॑र्णां तप॑सा ज्वल॒न्तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा॓म् । दु॒र्गां दे॒वीग्ं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॑ नमः॑। ॥२॥ २: मैं उस देवी दुर्गा की शरण लेता हूं जो अग्नि के रंग की है, जो अपने तपस (आध्यात्मिक अग्नि) से झुलसती है, जो विरोचन (परमपिता) की पत्नी है और जो कर्मों के फल की अधिकारी है। सांसर के नदी के पार लोगों को ले