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Showing posts from 2019

क्या हैं कुब्जा प्रंसग का वास्तविक अर्थ

कुछ लोग जैसे आर्य समाजी वामपंथी एवं अन्य धर्म अनुयायि लोग कुब्जा के प्रसंग गलत तरीके से प्रकटिकरण करते हैं    बोधयामास तां कृष्णो न दासीस्वपि निद्रिताः । तामुवाच जगन्नाथो जगन्नाथप्रियां सतीम् ।। 55 ।।  भाष्य : अविद्या ग्रसितं प्रणिना देहमश्रितं आत्म तत्त्वस्य शोधनं यद भवति तदा ईश्वरस्य अनुग्रहदैव तस्य निवृत्तिः भवति इति दुःखस्य उपसंहारं केवलं धर्म अर्थ काम मोक्ष इत्यादयः पुरूषार्थेण सिद्ध्यति  अथ प्रकारेण आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी इति चत्वरि भक्तीभ्यः मनुष्य ईश्वरम् भजन्ते तद फल स्वरूपेण यदा भक्तः ज्ञानी च भवति तदा तान्  मोह माया निद्रा अपि बोधयितुं देवः स्वयं यतति इति अर्थः उचितः अयं प्रसंगेपि कृष्णः अयं महत् कार्यं कुरतवान् इति भावः तद कुभ्जाम् उदिश्य एवं उवाच प्रिय भक्ते ! अविद्या ग्रसित प्राणि अपने देह में अश्रीत किया गया उस आत्म तत्व के शोधन केलिए भगवान को चार प्रकार भजते हैं अर्थात चार प्रकार के भक्ति जैसे अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु एवं ज्ञानी जब भक्त ज्ञानी भक्ति करते हैं तो भगवान स्वयं ज्ञान प्रकाशित करने के प्रयत्न करते हैं उस समय ऐसा करने केलिए भगवान समस्त दसीयों को न जागकर

सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात का पोल खोल

इस ब्लॉग में हम सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात का पोल खोलते हैं । मुर्ख को संस्कृत तो नहीं पता चला हैं गीता का अनुवाद करने  मुर्ख ने जो अक्षेप किया हैं उसके खण्डन करेंगे दूखिए अक्षेप : मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् यहां मुर्ख सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात  इसका अर्थ करते हैं "अर्थात हे अर्जुन मेरे शरण लेने से पापों से उपजे ये लोग स्त्री , वैश्य ,शुद्र भी परम गति प्राप्त होते हैं। मुर्ख आगे उत्तर न पाया तो खण्डन कि भय से कोई तर्क नहीं दिया क्या लिखा रहा हैं देखिए! हम अपनी ओर से इस प्रयास को चुनौती देने केलिए कोई तर्क प्रस्तुत नहीं करना चाहते। अतः यहां हम गीता के प्रचनीतम् उपलब्ध शंकर भाष्य को उद्धृत करना चाहते हैं । जिसे हिन्दू के आदरणीय विद्वान आदि शंकराचार्य ने ८ वी शातब्दी में लिखे थे।  वै लिखते हैं ‌।  "पापयोनयः पापा योनिः येषां ते पापयोनयः पापजन्मानः। के ते इति? आह -- स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः" अर्थात पापयोनि पापमय हैं योनि जन्म जिन का अर्थात पापी जन्मने वाले वे कौन हैं। इसका उत्तर स्त्री , वैश्य

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र

संख्या दर्शन १:१

संख्या दर्शन १:१ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरयन्तपुरूषार्थः पदार्थ: अथ त्रिविध दुःखात्यन्त  निवृत्ति अन्त एवं पुरूषार्थः इति चेन १)सूत्रार्थ :इस लोक में तीन प्रकार के दुःख आध्यामिक ,अधिभौतिक ,एवं अधिदैविक नाम से प्रसिद्ध हैं। २) इन दुःखो कि अत्यन्त निवृत्ति अर्थात सदा केलिए तिरोभाव ही अत्यन्त पुरूषार्थ अर्थात मोक्ष हैं । ३)इस संसार में धर्म ,अर्थ, काम एवं मोक्ष नाम से चार पुरूषार्थ प्रसिद्ध हैं इनमें से मोक्ष को ही श्रेष्ठतम कहा हैं। और इसको ही परम पुरुषार्थ कहा हैं। १)भा.प्र  याज्ञवल्क्य स्मृति (३/१०६) की  अपरार्कटीका(शब्द निर्माण) में देवल के वचन त्रिविधं दुःखम् से भी दु:ख की त्रिविधता का समर्थन होता हैं। २)अथ शब्द इति : सूत्र के 'अथ' शब्द का उच्चारण मंगल  केलिए होता हैं। ३) उच्चारण मात्रा से ही वह अथ शब्द कोई मंगलचारण कहा हैं ये बात संख्या के पंचम अध्याय के 'मंगलाचरण शिष्टाचारत्' (५;१) नामक सूत्र में कहा हैं । अब सुत्र के व्याख्य सुत्र से करेंगे ४) अथ शब्द का अर्थ अधिकार आरम्भ हैं । ५) 'अथ ' शब्द के प्रश्न आनन्तर्य आदि अन्य अर्थ भी हैं ‌। ६) किन्

दुर्गा सुक्त का सार हिंदी अनुवाद

ॐ ॥ जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑ मरातीय॒तो निद॑हाति॒ वेदः॑ । स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिंधुं॑ दुरि॒ता‌" त्य॒ग्निः ॥१॥ १: हम सोमा(वृक्ष का नाम)  को जातवेदस (देव अग्नि) को हविस देते हैं। कि ये आग सर्वज्ञ ब्रह्म के प्रतिक है़ं ये  हमें अन्त: शत्रुओं के सर्वनाश करके हमें बचाये तथा यें अग्नि हमें सभी विपदाओं एवं अहित से बचाती है़। ये हमें एक केवट की तरह अपने साथ ले जाती है जो एक नाव में नदी के पार लोगों को ले जाता है। भाव ये हैं कि जातवेदास  नामक अग्नि जो परब्रहा के प्रतिक होता है उससे जान से हम संसार के परे जाकर ब्रह्म को जानकर मोक्ष पाते हैं और एवं ये अग्नि हमारे मन के बुरे विचारों को दुर करके परब्रह्म को जानने में साहयक होवें । ताम॒ग्निव॑र्णां तप॑सा ज्वल॒न्तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा॓म् । दु॒र्गां दे॒वीग्ं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॑ नमः॑।   ‌ ॥२॥ २: मैं उस देवी दुर्गा की शरण लेता हूं जो अग्नि के रंग की है, जो अपने तपस (आध्यात्मिक अग्नि) से झुलसती है, जो विरोचन (परमपिता) की पत्नी है और जो कर्मों के फल की अधिकारी है। सांसर के नदी के पार लोगों को ले

नाट्य एवं काव्य शास्त्र एक अध्ययन

भरतमुनिः नाटकस्य सर्वेषाम् अङ्गानां विवचेनात्मको ग्रन्थः भरतमुनिना  विरचितं नाट्यशास्त्रम् । भावः नवरसानां ,नवभावनां ,च उल्लेख प्रथमतः नाट्यशास्त्रे एव कृतः इति ज्ञायते। नाट्यशास्त्रस्य रचनाकालः क्रिस्ताब्दात्  प्राक् एव इति विदुषाम् अभिप्रायः। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र व्यवहार नाट्यशास्त्र के प्रत्येक अंक से होता हैं। ये ऐसा एक मात्र किताब हैं। जहां नवरस नवभाव को सबसे पहले इतिहास में उल्लेख किया हैं। विद्वानों के मानना हैं इस शास्त्र के रचना  क्रि पुर्व में ही हुई हैं। १) शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयनाकः बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृतः भावः अ) शृङ्गार आ) हास्य इ) करुण ई) रौद्र उ) वीर ऊ) भयानक ए) बीमत्स ऐ) अद्भुत ओ) शान्ताः इति नव रसाः नाटकादि रूपकेषु भवन्ति। ये नवरसों को नाट्यशास्त्र में माना गया हैं। २)रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भय तथा। जगुप्साविस्मशामः स्थयिभावाः प्रकृर्तिताः भावः यथा नवरसाः तथा अ) रतिः आ) हासः इ) शोकः ई) क्रोधः उ) उत्साहः ऊ) भयम् ए) जुगुप्सा ऐ) विस्मयः ओ) शाम ऐसे ९ स्थायि भाव को नाट्य तथा काव्य में मना गया हैं। ३)च इति नवस