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क्या हैं कुब्जा प्रंसग का वास्तविक अर्थ

कुछ लोग जैसे आर्य समाजी वामपंथी एवं अन्य धर्म अनुयायि लोग कुब्जा के प्रसंग गलत तरीके से प्रकटिकरण करते हैं   

बोधयामास तां कृष्णो न दासीस्वपि निद्रिताः । तामुवाच जगन्नाथो जगन्नाथप्रियां सतीम् ।। 55 ।। 
भाष्य : अविद्या ग्रसितं प्रणिना देहमश्रितं आत्म तत्त्वस्य शोधनं यद भवति तदा ईश्वरस्य अनुग्रहदैव तस्य निवृत्तिः भवति इति दुःखस्य उपसंहारं केवलं धर्म अर्थ काम मोक्ष इत्यादयः पुरूषार्थेण सिद्ध्यति 
अथ प्रकारेण आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी इति चत्वरि भक्तीभ्यः मनुष्य ईश्वरम् भजन्ते तद फल स्वरूपेण यदा भक्तः ज्ञानी च भवति तदा तान्  मोह माया निद्रा अपि बोधयितुं देवः स्वयं यतति इति अर्थः उचितः अयं प्रसंगेपि कृष्णः अयं महत् कार्यं कुरतवान् इति भावः तद कुभ्जाम् उदिश्य एवं उवाच प्रिय भक्ते !
अविद्या ग्रसित प्राणि अपने देह में अश्रीत किया गया उस आत्म तत्व के शोधन केलिए भगवान को चार प्रकार भजते हैं अर्थात चार प्रकार के भक्ति जैसे अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु एवं ज्ञानी जब भक्त ज्ञानी भक्ति करते हैं तो भगवान स्वयं ज्ञान प्रकाशित करने के प्रयत्न करते हैं उस समय ऐसा करने केलिए भगवान समस्त दसीयों को न जागकर केवल कुभ्जा को जाकर भगवान कृष्ण बोले ये प्रिय भक्ते 
श्रीभगवानुवाच 
त्यज निद्रां महाभागे शृङ्गारं देहि सुन्दरि । पुरा शूर्पणखा त्वं च भगिनीं रावणस्य च ।। 56 ।।
संसार विष वृक्ष मूल भूतानि श्रृंगारं ( देहाभिमानं ) इत्यादयः विषयकं इयं निद्रां त्यक्त्वा महाभागे मां देहि अतः माम् प्रति समर्पणं करु सुन्दरी इति अर्थः प्रतिपादिताः अयं प्रसंगे पुरा काले रावणस्य भगिनी (शूर्पणखा ) ईश्वरस्य विषये तपासाम् आचरेत तस्मात् कृष्णः अस्या पूर्व्या जन्मे शूर्पणखा रूपिणी कुभ्जां प्रकाशयितुं प्रत्यनं चकरा इति भावः ब्रूते 
अनुवाद : संसार विष वृक्ष के मूल भूत देह अभिमान के निद्रा रूप को त्याग करने हेतु सुन्दरी कुभ्जा जो मूल रूप से पीछले जन्म में मूल रूप से रावण की बहन थी तप की थी।इसका अभिप्राय हैं कि उसके फल स्वरूप भगवान स्वयं उसके प्रकाशित करने केलिए प्रयत्न किये 
 रामजन्मनि मद्धेतोस्त्वया कान्ते तपः कृतम् । तपःप्रभावान्मां कान्तं भज श्रीकृष्णजन्मनि ।। 57
भाष्य मम रामावतार समय भवती तपः आचरेत्‌  हे कान्ते भवती इच्छा फल स्वरूपेण कृष्ण रुपेण अवतारितम्  अतः इयं स्थिरता मुख स्वरूपं  भज इति भावः अयं उपसंहरां रुपेण 
अनुवाद: हे कान्या आप मेरे रामावतार के समय आप हमें पाने के लिए तप किया थे अर्थात औलोकिक ज्ञान के लिए तप किये तो उसके फल कृष्ण रूप में प्रकट हो चुका हुं इसलिए मेरे इस स्थिरता मुख भाव को उपसान करें ताकि ज्ञान आप परब्रह्म परमात्मा ही बन सके 
 ।। अधुना सुखसंयोगं कृत्वा गच्छ ममाऽऽलयम् । सुदुर्लभं च गोलोकं जरामृत्युहरं परम् ।। 58 ।। 
अतः अधुना सुख संयोग कृत्वा अतः मम सुख रूपस्य ( सचिदानंद रुप) संयोकेन यथा आत्म ब्रह्म एव भवति तथा अयं सुखं कृत्वा ममाऽऽलयं वैकुण्ठं गच्छा इति भावः अयं सुखदा दुर्लभं वैकुण्ठ नामक इयं गोलोकं जरामृत्युहरं परम् पदमेव अस्ति इति भावः प्रतिपादिताः ब्रह्मलोके ब्रह्ममेव भवति इति अर्थः ब्रूते
अनुवादः इस संबंध में श्लोक का अभिप्राय हैं कि सुख संयोग अर्थात आनंद रुप में प्राप्त होने वाले सचिदानंद भाव से आत्मा ब्रह्म ऐस अ कार रूप ज्ञान तत्व के उपासना से मेरे लोक जो सुखद दूलभ हैं उसको प्राप्त हो एवं जिसके नाम परंपद वैकुंठ या गोलोक हैं यहां मेरे अविनाशी रुप में मिलने से आत्मा ब्रह्म ही बन जाता हैं ‌।
इत्युकत्वा श्रीनिवासश्च कृत्वातामेव वक्षसि । नग्नां चकार शृङ्गारं चुम्बनं चापि कामुकीम् ।। 59 ।।
अयं उक्वा त्वाम् नग्नां चकार ( अतः तस्याः बुद्धि मनो भाव अच अछादितवान इत्यार्थः देहाभिमाने ग्रसितः मनुष्यः परब्रह्मम् न अनुसरति अतः काम( विषयाभिमान इच्छादैव कामुकि च अपि भवति इति अर्थः ब्रूते 
ऐसे बोलते हुए भगवान कृष्ण उसके मन और बुद्धि का आवरण हाट दिया क्यों कि देहाभिमान में रत मनुष्य वास्तव में माया परवश हो जाता हैं ऐसा मनुष्य कभी ब्रह्म के अनुसरण नहीं कर सकता एवं विषय अभिमान से ही इंसान कामुकी बन जाता हैं अर्थात अनेक प्रकार के भौतिक इच्छाओं को प्राप्त हो जाता हैं । ऐसे में भगवान उसके उद्धार हेतु मन करके उसके समस्त भौतिक विषयों को नष्ट करके उसे अपने मैं विलन कर लिया अपने विशाल रूप ब्रह्म को प्राप्त हो गया अतः नादी कि भाती वो समुद्र में विलीन हो गई ये प्रसंग ऋग्वेद उपनिषद आदि में भी दिया गया हैं 
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळ्हि मातरम् ऋग्वेद १०:११४:४
अर्थ यह है कि एकः (एक सुपर्णा प्रणावायु उपादि गत एवं संपुर्णवत रुप से संपुर्ण हैं) सः (वह) समुद्रम् (समुद्र के समान विस्तृत अन्तरिक्ष को अविवेशा (प्रवेश करते हुवें) वह प्राण के उपादि गत परमात्मा इदं(इस) विश्वं भुवनम्) - सर्व लोक एवं लोकान्तर को विचष्टे प्रकाश करते हुए तम् (उस प्राणवृति देव को) पाकेन मनसा (परिपक्व मन के उपसान) से अन्तितः (अपने हृदय कमल में) अपश्यम् देखता हुवा जिस प्रकार से जो तम् (उस प्राण देवता को अध्ययन काल में) माता (माँ कहे सो) रेळ्हि अपने आप में विलीन कर लेती हैं एवं तूष्णीं भावकाल में वह प्राण देवता मातरम् (वाक्  को अपने) में विलीन कर लेता हैं।  एक तो सुपर्ण इस मंत्र से प्राणोपाधिक ईश्वर चेतन प्रतिपाद्य हैं। यहां जो लीनता कहीं हैं वह केवल उपाधि धर्म का व्यवहार हैं विशिष्ट में करा हैं और जो प्राण उपाधिक ईश्वर प्रतिपाद्य इस मंत्र में न होता तो सर्व जगत कि प्रकाशता का प्रमाण निघण्टु अध्याय ३खण्ड ११ में विचष्टे को पश्यति कर्मा कहा हैं इससे केवल जड़ प्राण प्रतिपादित नहीं हैं न तो  केवल जेतन भी प्रतिपादित हैं क्योंकि यहां वाक् में लीन होना कहा हैं  इसलिए इस मंत्र में भी प्राण के उपादि से अरोपित चित को प्रतिपादित किया हैं इसलिए मंत्र में भोक्ता रुप में बुद्धि को दर्शाया हैं अभोक्त रुप में आत्मा को दर्शाया हैं इसलिए इस मंत्र में बुद्धि और आत्मा की बात किया गया है न कि जीव और ईश्वर की इसलिए मेरे अर्थ समीचीन है दयानंद जी के अर्थ गलत हैं यहां चेतना भाव नहीं भोक्ता भाव को दर्शाया हैं यही बात बृहदारण्यकोपनिषदस्य में दिया गया हैं
तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः सहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियत एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते न कंचन स्वप्नं पश्यति॥ बृहदारण्यकोपनिष ४:३:१९
जैसे इस आकाश में सायन करने वालें जो ईश्वर की प्रतिक हैं बडे़ शरीर रूप के ये सुपर्णा  वह अधिक अधिक भ्रमण करने पर श्रम को प्राप्त होकर अपने पंख को विस्तार करते हुए अपने नीवास कि तरफ उडता हैं वैसा ही पुरुष यानि आत्मा बुद्धि उपाधिक अपने अन्तः स्थान जो हृदय कमल में स्थित हैं नीवास कि तरफ उडता हैं वहां सोता हुवा कुछ काम विषय कि इच्छा नहीं चाहता हैं एवं कुछ स्वप्न भी नहीं दिखता इस श्रृति में सुपर्णा के दृष्टांत से बुद्धि उपाधिक जीव सुपर्णवत् जग्रत स्वप्न सुषुप्ति में गमन करने वाले द्वितीया सुपर्णा के कर्मफल भोक्ता को प्रतिपादित किया गया है इसके भाव हैं कि आत्म जो उपधिगत हैं वो अपने बुद्धि से भोक्ता हैं ऐसा प्रतिपादन किया हैं सो यहां दो सुपर्णा इसके वाक्यान्तर में सुपर्णा के २ भेद दर्शया हैं प्राण और बुद्धि नामक उपाधि से अंकित किया गया हैं इसे वेदान्त में स्वीकार किया गाया हैं चेतन ब्रह्म स्वरुप को इस मंत्र में प्रतिपादित किया गया हैं
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
योऽसावदित्ये पुरूषः सोऽसावहम्
ॐ खं ब्रह्म यजुर्वेद ४०/१७
सत्य का सुख स्वर्णिम प्रकाश युक्त पात्र से आच्छादित हैं। आदित्य रूप में विद्यमान जो यह पुरुष हैं वह मैं ही हूं आकाश के सामान परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हैं। सोऽ(अ) सावहम् यहां पुर्वरूप और अयादि  सन्धि होता है  इसलिए इस तोड़ ने पर सोऽसावहमं = सो + असि + अहं होता है इससे पुरुष अर्थात आत्म ही ब्रह्म हैं ये सिद्धा होता हैं
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्‌ ॥ ||कठोपनिषद २:२:१२॥
समस्त प्राणियों के अन्तर् में स्थित, शान्त एवं सबको वश में रखने वाला एकमेव 'आत्मा' एक ही रूप को बहुविध रचता है; जो धीर पुरुष 'उस' का आत्मा में दर्पणवत् अनुदर्शन करते हैं उन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है, इससे इतर अन्य लोगों को नहीं होता हैं
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः श्वेताश्वतरोपनिषद् ४:७
समान वृक्ष पर एक 'पुरुष' (आस्वाद लेने में) निमग्न है और वह 'अनीश' (स्वयं का ईश नहीं) होने के कारण, मोहवशात् शोक करता है; किन्तु जब वह उस अन्य 'पुरुष' को देखता है तथा उससे सायुज्य स्थापित कर लेता है जो 'ईश' है, एवं वह इस समस्त जगत् में 'उसकी' महिमा को जान जाता है, तब वह शोकरहित हो जाता है। इसलिए यहां ऐसे अर्थ प्रतिपादित किया गया है पुरुष अपने से समान अन्य पुरुष को न जानकर सोचता हैं मैं सुखी हुं दुखी हुं अमुक नाम हुं मैं घटा हुं मैं शरीर हुं ऐसे समझकर दुख अनुभव करते हैं ऐसे उपाधि से विभूषित ये पुरूष अपने आप को जन लेता है वो ब्रह्म हो जाता हैं अर्थात अपने मैं ब्रह्म साक्षात्कार करने से अविद्या के आवरण हट जाता है तो वो ब्रह्म बन जाता है इससे से पता चलता है ये एक है इसमें और ब्रह्म में भेद नहीं केवल उपाधि से भेद सिद्ध होता हैं एवं मोह माया के कारण भेद प्रतित होता है

 स सस्मिता च श्रीकृष्णं नवसंगमलज्जिता । चुचुम्ब गण्डे क्रोडे तं चकार कमला यथा ।। 60 ।
इयं प्रसंगे भगवान कृष्णस्य अविनाशि  नवसंगमे लज्जित: अभवतां इति भावः अतः समये सा कृष्णं प्रति आकर्षितं क्रतुं मनसा चकरा तद कृष्ण ताम् क्रोडे लक्ष्मी यथा प्रकृति तत्व च अस्य अविनाशी रुपे अभिव्याक्ततं इति भाव प्रतियते 
अनुवाद: 
भगवान कृष्ण के प्रंसन भाव से उसके प्रकृति के साथ ऐसा नया संगम को देख कर लज्जित(भय को प्राप्त हो गई अर्थात भगवान कृष्ण उस स्वरूप के सामने अपने आपको बहुत कमजोर समझने लगी फिर भी कृष्ण के प्रति आकर्षण होने कि इच्छा की तब भगवान कृष्ण ने उसे परब्रह्म रूप में विलिन करने हेतु भगवान कृष्ण उसे अपने गोद में ऐसे लिया जैसे लक्ष्मी को दिल में अर्थात अपने प्रकृति रूप एवं अविनाशी रुप में अभिव्यक्त कर लिया  अर्थात वो परब्रह्म परमात्मा हो गई

 सुरतेर्विरतिर्नास्ति दंपती रतिपण्डितौ । नानाप्रकारसुरतं बभूव तत्र नारद ।। 61 ।।
स्तनश्रोणियुगं तस्या विक्षतं च चकार ह । भगवान्नखरैस्तीक्ष्णैर्दशनैरधरं वरम् 

उससे वो भगवान के भक्ति  स्वरूप ऐसे विलन हो कर जैसे दो भौतिक वस्तु संयोग में विलन होते हैं और नना प्रकार भक्ति से वो सुरता ( अति पवित्र देवताओं के परमान्न के समान होकर ब्रह्ममय हो गयि उस समय उसे न निंद्रा वश हो गयि भगवान उसके हृदय में अपने मुल स्वरूप के दर्शन से उसके औलिक ज्ञान को प्रकट करवया 
  निशावसानसमये वीर्याधानं चकार सः । सुखसंभोगभोगेन मूर्च्छामाप च सुन्दरी ।। 63 ।।
अन्त में रात्रि के समय भागवन उसके अन्दर के उसके वीर्य (शक्ति) अर्थात ऐसा औलिलक कर्म से ज्ञान रूपी प्रकाश के स्थापन किया। भगवान उस औलोकिक शक्ति संयोग से वो भगवान कृष्ण के गोध में मुर्च्छित हो गई। तब तंन्द्र अवस्था वा सुषुप्त अवस्था जो की र्निविकल्प समाधी में प्राप्त होता हैं उसको ही को प्राप्त होकर दिन रात स्वर्ग धरती जल जैसे द्रव से परे हो गई क्यों की इस प्रसंग में भौतिक विषयों पर से उपर उठाने की बात  हैं केवल कर्मसंन्यास इस अवस्था को प्राप्त हो सकता हैं। 
 तत्राऽऽजगामतां तन्द्रा कृष्णवक्षःस्थलस्थिताम् । बुबुधे न दिवारात्रं स्वर्ग मर्त्य जलं स्थलम् ।। 64 ।। सुप्रभाता च रजनी बभूव रजनीपतिः ।
 पत्युर्व्यतिक्रमेणैव लज्जयेव मलीमसः ।। 65 ।।
दिन होते हैं उसके सोम्य गुण वाले उस अपवित्र शरीर उसके पालक के उस व्याति क्रम से उसके अन्दर के समस्त विकृति नाश हो गयी थी तद्‌ पश्चात वो यान से होकर गोलोक को प्राप्ता हो गई ।

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