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Showing posts from August, 2019

Great Galactic center in rigveda

यः श्वे॒ताँ अधि॑निर्णिजश्च॒क्रे कृ॒ष्णाँ अनु॑ व्र॒ता । स धाम॑ पू॒र्व्यं म॑मे॒ यः स्क॒म्भेन॒ वि रोद॑सी अ॒जो न द्यामधा॑रय॒न्नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥ ऋग्वेद ८:४१:१० इस श्लोक के अनुवाद को ध्यन से पढे इसके पीछे बड़ा विज्ञान हैं अंग्रेजी और हिंदी भाषा में अनुवाद दिया हैं बहुत परिश्रम के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हूं वेद के अनुसार विष्णु हिरण्यगर्भ में स्थित हैं और विज्ञान मानते हैं कि galatic center   धनु और मकर राशि के बीच पड ता हैं अगर वेद और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार विष्णु मकर राशि का स्वामी हैं इसलिए ये अनुमान लगाया जा सकता हैं galactic center में जो शक्ति हैं वो विष्णु नाभि हो सकता हैं सर्व व्यापक विष्णु या भगवान इसकेे पिछे कि शक्ति हैं विज्ञान आज तक पता नहीं हैं galatic center मैं कौनसा शक्ति हैं जो सब Galaxy  एक साथ रखा हैं ऋग वेद ८:४१:१० (यः) जो प्रभु सबका स्वामी सुर्य के समान अति शुद्ध सुर्य(stars) को भी नियम के अनुसार चलता है और जो रात्री के समान अन्धकारमय पृथ्वी के समान लोक (dwarf planets) या पृथ्वी लोक को भी नियम के अनुसार अपने अधीन में रखा हैं(यः) जो (स्कम्बेन-अन्तरिक्षेन) सतीन

कर्म क्या हैं।?

कर्म क्या हैं? "अभिज्ञ धी प्रक्रियाद्गतम् कर्मा"। अर्थात चेतना के विचारों से घटित प्रक्रियाओं को कर्म कहते हैं। "स च कर्मणा वृत्तं कार्यं"। अर्थात इस कर्म के आधार से ही कार्य(प्रक्रिया) होते हैं। इसलिए कर्म को "  Newton's law से समझा सकते हैं। जैसे कि" Every actions must have Reactions" इससे यह पता चलता है कि हर एक कर्म का प्रक्रिया अवश्य होता हैं। कर्म २ प्रकार के होते हैं। नित्य और अनित्य। नित्य कर्म - ये वो कर्म हैं जो स्वभाव से उत्पन्न होते हैं उसे करने से ही शरिर में जीव रहते हैं। जैसे कि शास लेना आदि जिसे रोजाना करना पड़ता हैं। अनित्य कर्म - जो दूसरे विदित या अविदित कर्मों के अवगुण हेतु उत्पन्न होते हैं जिस प्रकार अपने निंदा सुना हुवा व्यक्ति उसके प्रतिकार करता हैं। इसके हेतु इसे प्रतिक्रियाओं से उत्पन्न होने वाले एक कर्म कहा जा सकता हैं। इसके घटित होने के लिए अनेक प्रकार के कारण होते हैं। कर्म के कुछ मुख्य उत्पति और लक्षण निचे दिए हैं। १. मनसामुखेन जाताः प्रभावेन सह उत्पन्नो इति  कर्म लक्षणम् - ये कर्म बहुत ही प्रभावशाली होता हैं मन में घटि

दुःख की उत्पत्ति

संख्या  -०१ अथ दुःख त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरयन्तपुरूषार्थ अथ शब्देन मङ्गलाचरणं विद्यते तस्मात् इमानि त्रिधा आध्यात्मिकं, आधिभौतिकं आधिदैविकं इति दुःखानां अत्यन्तं निवृत्तिः मेव च तानि त्रयोभावद्येव अत्यन्तं षुरूषार्थ सिद्धिः तद्मेव मोक्षो भावः इति अभिधीयते अथ शब्द से मंगला चरण के सिद्ध वचन के ग्रहण होता है तीन दुःख कि निवृत्ति से पुरुषार्थ के सिद्धि वहीं मोक्ष के भाव हैं । दुःख शब्दस्य उत्पत्तिः विषयस्य गतो भावे दुस् उपसर्गस्य संयोगे स्था धातोः सम्बन्धे दुःख शब्दस्य उत्पतिर्जायते इति चैन्। मनो वै दूषितः दुष्टं नीचं च कठोरादि शब्द प्रयोग दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस्  उपसर्ग के साथ स्था धातु  से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं । इस दुःख को सुख का विपरित भाव भी माना जाता हैं  संख्या में दुःख तीन विभागों में वर्गिकरन किया गया हैं १) अध्यात्मिक दुःख - शरीर और मनासिक रुप से होने वाले विपदाओं के कारण को आध्यामिक दुःख कहते इसके अन्तर्गत

अवतार प्रकरण

अवतार प्रकरण आर्य समाजी दयानंद जी ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के ७ समुल्लास मैं लिखते हैं ईश्वर अवतार नहीं लेता हैं क्या ये सच हैं ?सच जानने के लिए इस लेख को अन्त तक पढ़िए इनमें दयानंद के हर प्रत्यक बात खण्डन हैं। प्रश्न ईश्वर अवतार लेता हैं वा नहीं? उत्तर नहीं क्यों कि अज एकपात्  सपर्य्यगाच्छुक्रमकायम् ये यजुर्वेद के वचन हैं । इत्यादि वचनों से परमेश्वर जन्म नहीं लेता हैं। पुनः लिखते हैं और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता जैसे अनन्त आकाश कोई कहें कि गर्भ में आया वा मूठि में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हैं  क्यों कि आकाश अन्त हैं सब में व्यापक हैं इससे से आकाश के बाहर भीतर आना सिद्ध नहीं होता हैं वैसे ही  अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा होने से उसका आना जाना सिद्ध नहीं होता हैं । वहां आना जाना सिद्ध हो सकता जहां परमेश्वर ना हो क्या गर्भ में परमेश्वर सर्वव्यापक नहीं था जो कहीं से आया ? और बहार नहीं था जो भीतर निकला? ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्यहीनता हैं इसलिए परमेश्वर के आना जाना सिद्ध नहीं होता हैं समीक्षण : स्वामी जी यहां ईश्वर को अज अकाय बताकर ईश्वर के अवतार लेने