Skip to main content

दुःख की उत्पत्ति

संख्या  -०१
अथ दुःख त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरयन्तपुरूषार्थ
अथ शब्देन मङ्गलाचरणं विद्यते तस्मात् इमानि त्रिधा आध्यात्मिकं, आधिभौतिकं आधिदैविकं इति दुःखानां अत्यन्तं निवृत्तिः मेव च तानि त्रयोभावद्येव अत्यन्तं षुरूषार्थ सिद्धिः तद्मेव मोक्षो भावः इति अभिधीयते
अथ शब्द से मंगला चरण के सिद्ध वचन के ग्रहण होता है तीन दुःख कि निवृत्ति से पुरुषार्थ के सिद्धि वहीं मोक्ष के भाव हैं ।
दुःख शब्दस्य उत्पत्तिः विषयस्य गतो भावे दुस् उपसर्गस्य संयोगे स्था धातोः सम्बन्धे दुःख शब्दस्य उत्पतिर्जायते इति चैन्।
मनो वै दूषितः दुष्टं नीचं च कठोरादि शब्द प्रयोग
दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस्  उपसर्ग के साथ स्था धातु  से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं । इस दुःख को सुख का विपरित भाव भी माना जाता हैं  संख्या में दुःख तीन विभागों में वर्गिकरन किया गया हैं
१) अध्यात्मिक दुःख - शरीर और मनासिक रुप से होने वाले विपदाओं के कारण को आध्यामिक दुःख कहते इसके अन्तर्गत रोग, व्याधि आदि शारीरिक दुःख और क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं संख्या के अन्तर्गत अध्यात्मिक शब्द रूप के संबंध शरीर एवं मन के अध्यायन को अध्यामिक कहा हैं जैसे हमारे शरीर एवं मन कि विपदाओं केलिए अभिप्रेत किया गया है इस विपदाओं के उत्पादन कारण स्वयं मन या शरीर होता हैं अगर शरीर में पंच महाभूत के कमी के कारण त्रिदोष में जो विकृति जो उत्पन्न होता हैं उसे ही आध्यात्मिक दुःख कहा हैं ये उत्पन्न होने के कारण जैसे तत्व के मिथ्या ज्ञान या उसके अधिवश होना जैसे अर्थशास्त्र में अलफ्रड मार्शल  कहते हैं
Marshall's own words: “Political Economy or Economics is a study of mankind in the ordinary business of life; it examines that part of individual and social action which is most closely connected with the attainment and with the use of the material requisites of well-being.”  यहां कहना है जो भी उपयुक्त जीजों को व्याहारिक सत्ता में उपयोग से अभ्युदय हो लेकिन संख्या इससे आगे केहता हैं जिस उपयुक्त जीजों के विलक्षण को जानते हुए मनुष्य जो जीजों उपयोग प्रकृति संयोग से उपयोग जीवात्मा करता हैं उस hi जीजों के मिथ्या ज्ञान जो प्रकृति से मिलता है उससे दुःख मिलता हैं इनसे ही अध्यात्मिक दुःख कि उत्पत्ति होती हैं । इनमें मन और शरीर के रोग, व्याधि आदि शारीरिक दुःख और क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख ग्रहण होता हैं। मनुष्य इन तात्विक रहस्य को जानता हैं उसमें दुःख उत्पन्न होता हैं
प्रश्न आध्यामिक दुःख के समाधान अगर औषध आदि के सेवन आदि से होता हैं उससे पुनः ग्रहण व्यार्थ हैं?
उत्तर नहीं क्यों कि औषधि सेवन इनके उपशमन होता है किन्तु इनके उत्पन्न होने के निवृत्ति नहीं होता है ऐसा नहीं हैं कि औषधि की सेवन के कारण फिर पृथक दुःख की उत्पत्ति नहीं होता है संख्या में इन दुःखों को रजोगुणी बताया हैं अर्थात बार बार उत्पन्न होने वाले बताया हैं इसलिए इसके पुनः ग्रहण निरर्थक नहीं हैं
२) आधिभौतिक दुःख :- आधिभौतिक दुःख आधि शब्द के अधि के साथ ज्ञा धातु के प्रयोग से आधि शब्द का प्रयोग होता हैं जैसे अधिजानति इति सः आधि जिसके अर्थ पड़ता हैं कि अनुभव करने वाल जो होता हैं उसे आधि कहा हैं किसके भौतिक अर्थात पंच महाभूत के बना शरीर के अनुभव करने वाले को आधिभौतिक कहां इसके उत्पत्ति भूतस्य इयं भौतिकं करके होता हैं अर्थात भूत अर्थात लिंग शरीर जो पंच महाभूत से बना हैं उससे ही भौतिक शरीर कहा हैं आधिभौतिक दुःख वह हैं  जो स्थावर, जंगम (पशु पक्षी साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वार अर्थात पंच महाभूत के शरीर द्वारा  उत्पन्न होता है उसे आधिभौतिक कहा हैं इनके कारण आध्यात्मिक दुःख उत्पन्न होता हैं। उदाहरण केलिए जैसे सर्प आदिके काटने से दुःख उत्पन्न होता हैं।
३) आधिदैविक दुःख :- आधि दैविक अर्थात देवताओं के या प्रकृति शब्द से जो उत्पन्न हो जाते हैं जैसे आँधी, वर्षा, बज्रपात, शीत, ताप इत्यादि से जो दुःख उत्पन्न होता हैं उसे आधिदैविक कहा हैं। यहां दैविक शब्द देवता शक्ती संबंध से जो विपाद उत्पन्न होता हैं या प्रकृति के संयोग वश कोई प्राणघाती दुर्घटना उत्पन्न होता हैं उसे भी आदिदैविक कहते हैं।
संख्या दर्शन में दुःख को राजोगुणी मानते हैं इसे कार्य और चित्त का एक धर्म हम मानते हैं। और आत्मा को अलग रखा हैं।
त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को साख्य ने अत्यंत पुरुषार्थ कहा है एवं शास्त्रजिज्ञासा का लश्य बताया है । प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर अर्थात महाभूत के शरीर की निवृत्ति के बिना चेतन या पुरुष मुक्ती नहीं पा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःख निवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान द्वारा—ही संभव है । वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान द्वारा हो जाती है । योग की परिभाषा में दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है । व्याधि इत्यादि चित्तविक्षेपों के अतिरिक्त योग ने चित्त के राजस कार्य को दुःख कहा हे । किसी विषय से चित्त में जो खेद या कष्ट होता है वही दुःख हे । इसी दुःख सें द्वेष उत्पन्न होता है । जब किसी विषय से चित्त को दुःख होगा तब उससे द्वेष उत्पन्न होगा । योग परिणाम, ताप और संस्कार तीन प्रकार के दुःख मानकर सब वस्तुओं को दुःखमय कहना है ।
बौद्ध दर्शन में इन्हें ४ आर्य सत्यानि से अभिप्रेत कहा हैं बौद्ध कहना हैं।
आर्यसत्य चार हैं-
(1) दुःख : संसार में दुःख है,
(2) समुदय : दुःख के कारण हैं,(3) निरोध : दुःख के निवारण हैं,(4) मार्ग : निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं।प्राणी जन्म भर विभिन्न दु:खों की शृंखला में पड़ा रहता है, यह दु:ख आर्यसत्य है। संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही समुदय आर्यसत्य है। जो प्राणी तृष्णा के साथ मरता है, वह उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है। इसलिए तृष्णा की समुदय आर्यसत्य कहते हैं। तृष्णा का अशेष प्रहाण कर देना निरोध आर्यसत्य है। तृष्णा के न रहने से न तो संसार की वस्तुओं के कारण कोई दु:ख होता है और न मरणोंपरांत उसका पुनर्जन्म होता है। बुझ गए प्रदीप की तरह उसका निर्वाण हो जाता है। और, इस निरोध की प्राप्ति का मार्ग आर्यसत्य - आष्टांगिक मार्ग है। इसके आठ अंग हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। इस आर्यमार्ग को सिद्ध कर वह मुक्त हो जाता है।

जिसका अन्यथाभाव हो अर्थात् जो भविष्य में अवश्य पहुँचे, ताप दुःख वह है जो वर्तमान काल में कोई भोग रहा हो और जिसका प्रभाव या स्मरण बना हो । क्रि॰ प्र॰—होना । मुहा॰—दुःख उठाना = कष्ट सहना । तकलीफ सहना । ऐसी स्थिति में पड़ना जिससे सुख या शांति न हो । दुःख देना = कष्ट पहुँचाना । दुःख पहुँचना = दुःख होना । दुःख पहुँचाना = दे॰ 'दुःख देना' । दुःख पाना = दे॰ 'दुःख उठाना' । दुःख बटाना = सहानुभूति करना । कष्ट या संकट के समय साथ देना । दुःख भरना = कष्ट या संकट के दिन काटना । दुःख भुगतना या भोगना = दे॰ 'दुःख उठाना' । 

२. संकट । आपति । विपत्ति । मुहा॰— (किसी पर) दुःख पड़ना = आपत्ति आना । संकट उपस्थित होना । 

३. मानसिक कष्ट । खेद । रंज ।जैसे,—उसकी बात से मुझे बहुत दुःख हुआ । मुहा॰—दुःख मानना = खिन्न होना । संतप्त । होना । रंजीदा होना । दुःख बिसराना = (१) चित्त से खेद निकालना । शोक या रंज की बात भूलना । (२) जी बहलाना । दुःख लगना = मन मे खेद होना । रंज होना । 

४. पीड़ा । व्यथा । दर्द । 

५. व्याधि । रोग । बीमारी । जैसे,— इन्हें बुरा दुःख लगा है । मुहा॰— दुःख लगाना = रोग घेरना । व्याधि होना ।
इससे आपको पता चला होगा त्री दुःख क्या है इन्हें उत्पन्न होने के कारण क्या हैं एवं इसके निवृत्ति कैसे संभव है
हरि ॐ तत् सत्

Comments

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र