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अवतार प्रकरण


अवतार प्रकरण
आर्य समाजी दयानंद जी ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के ७ समुल्लास मैं लिखते हैं ईश्वर अवतार नहीं लेता हैं क्या ये सच हैं ?सच जानने के लिए इस लेख को अन्त तक पढ़िए इनमें दयानंद के हर प्रत्यक बात खण्डन हैं।
प्रश्न ईश्वर अवतार लेता हैं वा नहीं?
उत्तर नहीं क्यों कि अज एकपात्  सपर्य्यगाच्छुक्रमकायम् ये यजुर्वेद के वचन हैं ।
इत्यादि वचनों से परमेश्वर जन्म नहीं लेता हैं।
पुनः लिखते हैं और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता जैसे अनन्त आकाश कोई कहें कि गर्भ में आया वा मूठि में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हैं  क्यों कि आकाश अन्त हैं सब में व्यापक हैं इससे से आकाश के बाहर भीतर आना सिद्ध नहीं होता हैं वैसे ही  अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा होने से उसका आना जाना सिद्ध नहीं होता हैं । वहां आना जाना सिद्ध हो सकता जहां परमेश्वर ना हो क्या गर्भ में परमेश्वर सर्वव्यापक नहीं था जो कहीं से आया ? और बहार नहीं था जो भीतर निकला? ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्यहीनता हैं इसलिए परमेश्वर के आना जाना सिद्ध नहीं होता हैं
समीक्षण : स्वामी जी यहां ईश्वर को अज अकाय बताकर ईश्वर के अवतार लेने पर संदेह करते हैं तो जीव के आत्मा को भी अज और व्यापक श्रवण कि जाती हैं फिर उसका जन्म नहीं होना चाहिए। आत्मा को अव्यय बताया है तो उसको कोई काल देश जाती आदि के बन्धन नहीं होता हैं देखिए
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते
।।२:१९।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं? क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२:२०॥
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा? नित्य? शाश्वत और पुरातन है? शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।।
न जातो न मृतोऽसि त्वं न ते देहः कदाचन।
सर्वं ब्रह्मेति विख्यातं ब्रवीति बहुधा श्रुतिः
अवधूत गीता १/१३
आत्म को न तो किसी भी काल में जन्म हैं।
आत्म को न तो किसी भी काल में मरण हैं ।
आत्म न तो किसी भी काल में शरीर प्राप्त होता हैं
क्यों कि श्रृति प्रमाण कहते हैं सब कुछ परब्रह्म हैं ।
इसलिए वहीं जानने योग्य हैं। आत्मा को शरीर लेना कोई  दोष नहीं हैं वैशेषिक एवं न्याय में कहा हैं आत्मा का गुण ज्ञान हैं आत्म शरीर एवं इन्द्रियों से भौक्त है लेकिन उसे सुख दुःख दर्द नहीं होता है केवल ज्ञान कि अनुभूति होती हैं उसके जन्म चिताभास से होता है संख्या में भी बाताया हैं आत्म स्वभवतः बन्धित नहीं हैं
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। १.२.१८।।
'इस 'आत्मा' का न जन्म होता है न मरण; न यह कहीं से आया है, न यह कोई व्यक्ति-विशेष है; यह अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, शरीर का हनन होने पर इसका हनन नहीं होता।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तु्ँ हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नाय्ँ हन्ति न हन्यते ।। कठोपनिषद १:२:१९।।
यदि कोई इसे हन्ता यह मानता है कि वह हनन करता है, यदि हनन किया हुआ (हत) यह मानता है कि उसका हनन किया गया है तो उन दोनों को ही ज्ञान नहीं है; 'यह' न हनन करता है न 'इसका' हनन होता है।
अणोरणीयान् महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।। १:२:२०
अणु से भी सूक्ष्मतर, महान् से भी महत्तर, 'आत्मतत्त्व' प्राणी की हृद्-गुहा में निहित है। जब मनुष्य अपने आपको कामादि संकल्पों से मुक्त एवं शोक से रहित कर लेता है तब वह 'उसका' दर्शन करता है। मानसिक प्रवृत्तियों की शुद्धि के प्रसाद से वह 'आत्म-सत्ता' की महिमा का दर्शन करता हैं। इसके अनुसार

मनुष्यशरीर पाकर भी कीटपतङ्ग आदि तुच्छ प्राणियोंकी भाँति अपना दुर्लभ जीवन व्यर्थ नष्ट कर रहा है। जो साधक पूर्वोक्त विवेचनके अनुसार अपनेआपको नित्य चेतनस्वरूप समझकर सब प्रकारके भोगोंकी कामनासे रहित और शोकरहित हो जाता है? वह परमात्माकी कृपासे यह अनुभव करता है कि परब्रह्म पुरुषोत्तम अणुसे भी अणु और महान्से भी महान् -- सर्वव्यापी हैं और इस प्रकार उनकी महिमाको समझकर उनका साक्षात्कार कर लेता है। (यहाँ धातुप्रसादात् का अर्थ परमेश्वरकी कृपा किया गया है। धातु शब्दका अर्थ सर्वाधार परमात्मा माना गया है। विष्णुसहस्रनाममें भी अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः -- धातु को भगवान्का एक नाम माना गया है)।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥ भगवद्गीता ४:६॥
यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी।                          माया से जन्म लेता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।। भगवद्गीता ४:७।।
हे अर्जुन जबजब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तबतब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। भगवद्गीता ४:८।।
साधु पुरुषों के रक्षण दुष्कृत्य करने वालों के नाश तथा धर्म संस्थापना के लिये मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।
अव्यक्तं व्यक्तितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। भगवद्गीता ७:२४।।
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर प्राप्त करनेवाला मानते हैं।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। भगवद्गीता ७:२५।।
जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते) उन सबके सामने योगमायासे अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। भगवद्गीता ९:११।।
समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ भगवद्गीता १०:२॥
मेरी उत्पत्ति (प्रभव) को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदि हूँ।।

प्रमाण
योगश्वित्तवृत्तिनिरोधः (यो ॰पा०१सु ०२)
चितिशक्तिपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च व्यास भाष्य अर्थ- (चितिशक्ति) जीवचेतन अपरिणामी हैं अप्रतिसंक्रम क्रिया रहित हैं (दर्शितवीषया )सर्व विषयों का द्रष्टा हैं शुद्ध और अनन्त व्यापक हैं इस प्रकार व्यास जी तथा कणाद के मत में जीवचेतन व्यापक हैं और जीव का जन्म   वे मानते हैं इससे  व्यापक का जन्म नहीं होता हैं यह कथन कैसे होगा? क्यों कि व्यापक का जन्म व्यासा आदि मानते हैं यदि यह कहो की "हम तो युक्ति मानते हैं जन्म मरण आना जाना परिछिन्न पदार्थ में बन सकता हैं इस कारण जीवात्मा का  स्वरुप व्यापक नहीं मानते इसका उत्तर तब इसका विचार कर्तव्य हैं विभु पदार्थ से पृथक अणुमध्यस्त परिमाणो वाले आत्मा अणु परिमाण हैं या फिर मध्य परिमाण हैं यदि अणु परिणाम मानने से शरीर में शीतल जल संयोग से शीतस्पर्श कि प्रतित नहीं होना चाहिए क्यो की आत्मा को आपने अणुपरिमाणवान् माना हैं सो एक देश में होकर शीत स्पर्श आदि ज्ञान कर सकता हैं आत्म रहित अंगों में शीत स्पर्श का ज्ञान या अनुभूति कैसे संभव होगा?
(प्रश्न) आत्मा यद्यपि एक देश में हैं तथापि जिस प्रकार सुगंध युक्त पुष्प की गंध सर्वत्र विस्तृत होती हैं वैसे भी आत्मा का ज्ञानगुण होने के कारण विस्तृत सकती हैं वा जैसे सूर्य प्रभव से द्रव्य वाला हैं वैसे भी आत्म प्रभाव से द्रव्य वाला ही हैं। तथापि वैशेषिक सूत्रो में वर्णन किया हैं गुण में कार्यं विद्यमान नहीं होता हैं न संयोग विभाग आदि होता हैं इसलिए पुष्म जैसे चीजों को डिब्बे में बन्ध करके रखते हैं नहीं तो उसके सुगंध उड़ जायेगी  एवं प्रभा गुण नहीं किन्तु विरल प्रकाश प्रभा हैं एवं सुर्य ही घनप्रकाश हैं ऐसे मान लेने से आत्मा भी ज्ञान रुपी सिद्ध होता हैं सो ज्ञान एक रस हैं कहीं साधन और कही विरल ऐसा बनता नहीं यदि अनेकारस मानोगे तो अनित्यत्व प्रसक्ति  होगी एवं सर्वथा अणुवादी के मत में क्रिया  तो जरूर माननी होगी नहीं तो अनेक वैशेषिक सुत्र एवं गीता के श्लोक के खण्डन होता हैं देखिए
१)गुणकर्मसु च भावान्न कर्म न गुणः अ°१: आ°२: सुत्र ११अर्थात
गुण कर्मों में रहने से कर्म नहीं होता हैं एवं न गुणः भी नहीं होता हैं।
२) क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् अ॰ १आ॰ १सुत्र१६
क्रिया और गुण के समान समवायिकारण ( उत्पन्न होने वाले समस्त कार्यों का यह द्रव्य का लक्षण हैं
संख्या सुत्र
१) नस्वाभावतोबद्धस्यमोक्ष साधनोपदेशविधिः  अ॰१ सुत्र ७
अर्थात अत्यंत दुःख की निवृत्ति केलिए जो मोक्ष का वर्णन किया जाता हैं इनमें केवल दुःख का योग हैं पुरुष स्वभावतः अगर इन्हें स्वभावतः बन्धित माने तो मोक्ष के विधि नहीं हो सकता
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। भगवद्गीता ॥२:२४॥
यह आत्मा को अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती) अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती) अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है यह नित्य सर्वगत स्थाणु (स्थिर) अचल और सनातन है।।
इत्यादि अनेक वैशेषिक सुत्र एवं संख्या सुत्र तथा गीत के श्लोकों का विरोध पड़ेगा एवं आत्मा विनाशित्व प्रसक्ति तो अवश्य होगी और आत्म जन्यः मध्यमपरिमाणवत्वात् आत्मा विनाशी मध्यमपरिमाणवत्वात्  घटवत् इस कारण अनादि जीवात्मा

को मानकर मध्य परिमाण कैसे मानते हो  क्योंकि मध्यम परिमाण मानने से जन्यत्व की प्रसक्ति होती हैं इससे बिना इच्छा से भी व्यासादि महारथियों के वचनों के अनुसार आत्म को व्यापक और अज अवश्य मानना पड़ेगा तो जन्मशंका ईश्वरत्व जीव में भी बन सकता हैं तो फिर जीव का जन्म कैसे हो सकता हैं अगर जीव का जन्म मानते हैं तो ईश्वर के अवतार मानना होगा जैसे वेदादि शास्त्रों में प्रमाण देखिए या ये कहें कि आप परिछिन्न चार्वाक है देखिए प्रमाण
प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा विजा॑यते। तस्य॒ योनिं॒ परि॑पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मिन्ह तस्थुर्भव॑नानि॒ विश्वा॑ ।३१:१९
उवट महीधरौ भाष्येः- किंभूतं तं विशिष्यते यः सर्वात्मा प्रजापतिः अन्तहृदि स्थितः सन् गर्भे चरति गर्भे चरति  गर्भमध्ये प्रविशति अजायमनः बहुधा विजायते। तस्य योनिम् (गर्भं) परिपश्यन्ति धीराः तस्मिन् ह तस्थुः भुवनानि विश्वा॥ स एव पुरुषः एकांशभूतः प्रजापतिरस्य गर्भस्य अन्तरजायमानश्चरति चतुर्विधेषु भूतेषु। स एव जायमानो बहुधा अनेकप्रकारं विजायते ये धीरा योगिनस्ते तस्य योनिं ( गर्भं) परिपश्यन्ति सर्वत्यागेन परिहरन्ति विश्वे त्रैलोक्ये भुवनानि तस्मिन् आतस्थुः ।
यः सर्वात्मा प्रजापतिः अन्तहृदि स्थितः सन् गर्भे चरति गर्भमध्ये प्रविशति जीवरूपेण अन्तर्यामिरूपेण च। यश्च अजायमानोऽनुत्पद्यमानो नित्यः सन् बहुधा कार्यं कारण रूपेण विजायते मायया प्रपञ्चरूपेण उत्पाद्यते। धीरा बह्मविदस्तस्य प्रजापतेर्योनिं( गर्भं ( प्रकृतिः) स्थानं स्वरूपं परिपश्यन्ति, अहं ब्रह्मास्मि जानन्ति विश्वा विश्वानि सर्वाणि भुवनानि भृतजातानि तस्मिन् ह तस्मिन्नेव कारणात्मनि ब्रह्माणि तस्थुः स्थितानि। सर्वं तदात्मकमेवेत्यर्थः अथेव अर्थः अध्यात्म पक्षे अपि ब्रूते ‌।
हिन्दी अनुवाद:- सर्वात्मा प्रजापति अन्तर्यामी रूप से प्रकृति के गर्भ के मध्य में प्रविष्ट होकर प्रकट होता हैं अर्थात् जन्म लेता हैं जन्म लेते हुवे भी वह परमात्मा तिर्यक् मनुषयादि योनियों में अनेक कारण रूप में प्रकट होता हैं अर्थात राम कृष्णादि के रूप को प्राप्त होकर उत्पन्न ज्ञानी लोग गुण प्रधान पुरुष उस परमात्मा के जन्म का कारण को जानकर ज्ञान से सब ओर से देखते हैं तत्पार्य ये हैं कि ज्ञानी लोग अहं ब्रह्मास्मि इति जनाकर उस में विलीन होकर ब्रह्म ही बन जाते हैं  अज्ञानीयों को उसका जन्म विदित नही  होता हैं जिस परमेश्वर में पुरा ब्रह्माण्ड स्थित हैं‌।
ए॒षो ह॑ दे॒वः प्र॒दिशोऽनु॒ सर्वाः॒ पूर्वो॑ ह जा॒तः            स उ॒ गर्भे॑ अ॒न्तः ।
स ए॒व जा॒तः स ज॑नि॒ष्यमा॑णः प्र॒त्यङ् जना॑स्तिष्ठति स॒र्वतो॑मुखः ३२:४
उवट महीधरौ भाष्येः चतस्त्रस्त्रिष्टुबः एष एव देवः सर्वाः प्रदिशः दिशश्व  अनुतिष्ठति व्याप्य स्थितः तिर्यगूर्ध्वमधश्च वर्तते। हे जनाः, एष पुर्वः प्रथमो जात उत्पन्नो  ह इति प्रसिद्धमेव। गर्भे स उ अन्तः सः एव च मातृरूदरे अन्तगर्भे व्यवतिष्ठते। स एव च जातः स एव जनिष्यमाणः।उत्पत्स्यमनोऽपि स एव प्रत्यङ् सर्वतोमुखः (सर्वतो मुखं मुखाद्यवयवा यस्य सः) मुखमित्यन्येषामप्यवयवानामुपलक्षणम्। सर्वात्मत्वादेव विश्वविराट्तैजसहिरण्यगर्भप्राज्ञाव्याकृतादिव्यष्टिसमष्टिरूपेण सर्वत्र स एव वर्तते। स एव च केनचिद्रपेण मध्येऽस्ति केनचिद्ररूपेण जातः केनचिद्ररूपेण जनिष्यमाणः। स एव च प्रतिपदार्थमञ्चति स एव विराट्स्वरूपेण सर्वतोमुखः सर्वतः पाणिपादः सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः इत्यर्थः।

हिन्दी अनुवादः - यह चतस्त्रस्त्रिष्टुबी प्रख्यात देव ही सब दिशाओं एवं उपदिशावों में व्याप्त हैं सर्व प्रथम यही विराट् पुरूष प्रकट हुवा था जन्म लिया हुआ या जन्म लेने वाले या तत्पर जन्म लेने केलिए  माता के गर्भ में स्थित सभी सर्व प्रणियों में भी  यही महा पुरुष सर्वव्यापक हैं  एवं यही परमात्मा पुनः पुनः जन्म लेकर पुनः पुनः आगे भी जन्म लेता हैं तथा वर्तमान में भी पाणिपादादि मुखाव्यायादि से सर्वतोमुख एवं सर्वव्यापक हैं
पुनः प्रमाण वाल्मीकि रामायण से देते हैं देखिए

१)एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युति:।
शङ्खचक्रगदापाणि: पीतवासा जगत्पति:।।1.15.16।। 

२) ब्रह्मणा च समागम्य तत्र तस्थौ समाहित:। 1
तमब्रुवन्सुरास्सर्वे समभिष्टूय सन्नता:।।1.15.17।।

३)त्वान्नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया।  
राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपते: प्रभो:।।1.15.18। 
४) धर्मज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजस: ।
तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च। विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्
।1.15.19।।
५)तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकम्।
अवध्यं दैवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम्।।1.15.20।।
१) उस समय पर विश्व के स्वामी विष्णु ने अपने  पीले रंग के परिधानों से युक्त तथा हाथों में अत्यधिक भव्य से युक्त शंख चक्र एवं गदा से युक्त हो कर प्रकट हुए
२)भगवान विष्णु ब्रह्मा से मिलने के बाद एक मन बनाकर वहाँ रुके थे और इस प्रकार विष्णु के समक्ष भक्तों को

प्रणाम किया और उन्हें भजनों के साथ भक्त जनों ने उन्हें श्रद्धा भाव से अपने भक्ती भाव  को अर्पित कीयें ।
३) /४ "हे विष्णु हम सभी लोकों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। अयोध्या के राजा, राजा दशरथ एक धार्मिक, सदाचारी और उदार राजा हैं, जो वासना में ऋषियों के समान हैं। प्रार्थना के रूप में चार रूपों में होते हुए उनकी तीन पत्नियों के चार पुत्रों में जन्म ले कर आवतर लिजिए वे हरि सदृश्य विनय , शुभ  किर्ति से युक्त हों
५) "हे विष्णु, मानव रूप का आश्वासन देते हुए, रावण को युद्ध में मार डालने हेतु जो वह संसार को पीड़ा देने वाला बन गया है और देवताओं द्वारा अजेय है। अवतारित हो जाईये ।

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