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धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं।
वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं
१) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र )
यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्रेरक वाक्यों के ज्ञान से ही समादेश  होता हैं)
उदाहरण : सोचिए अगर आपके पास एक हरा रंग का दीवार हैं उसको देखते ही मन में ज्ञात होवे कि ये हरा रंग की दीवार हैं इसे कोई नही बातया अपने आप स्वभवतः व्यवहार  से ज्ञात होने वाले विषय हैं ऐसे ही इन शब्द स्पर्श आदि एवं विलक्षण को भी बुद्धि से अलग करके देख दिया जायें तो वो एक ही प्रकृति तत्व का बनाया हुआ दिखता है और ये‌ ब्रह्म तत्व ही सब तत्व इसलिए वहीं जनने योग्य है  इसे जानने बुद्धि से आत्म को शरीर से अलग करके देखा जायें तो आत्मा ब्रह्म से कभी अलग नहीं दिखता इसलिए इन श्रृति प्रमाण में भी आत्मा को ही ब्रह्म माना हैं इसलिए आत्मा को ही ब्रह्म जानकर मोक्ष पाना हैं ये ही इस सुत्र का मुख्य उद्देश्य हैं
वैशेषिक के परिभाषा में
यतोऽभुदयो निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः१:१:२
यहां वैशेषिक सुत्रकार का भी कहना हैं जिससे यथार्थ उन्नति ,  आत्मा कल्याण एवं मोक्ष समादेशित होता हैं वहीं धर्म हैं उदयनाचार्य के अनुसार अभ्युदय अर्थात तत्वज्ञान उसके द्वारा मोक्ष की सिद्धि जिससे होती हैं वहीं धर्म हैं धर्म के दो फल होते हैं उन्नति और मोक्ष उन्नति आत्मबल से संपादित होता हैं क्यों विना आत्मा बल मनुष्य के उन्नति कदापि सिद्ध नहीं होता है आत्म बल अन्तर हृदय कमल शुद्ध होता हैं और आत्म बोल के कारण परलोक या इस लोक में भी सुखदायक होता हैं विपदावों के परिस्थितियों में आत्म बल के कारण ही मनुष्य सन्तुष्ट ही रहते हैं और परस्थिति कितने भी जटिल हो उसे अपने अनुकूल मोड़ देता हैं इसलिए इसे ही उन्नति कहा हैं और वो अपने कल्याण के साथ दुसरों का भी कल्याण करते हुए अपने आपको अच्छे कर्म में लगाकर जैसे भक्ति योग आदि में मन को केन्द्रित करते हुवे आत्मा का तत्वज्ञान होता हैं जिससे निःश्रेयस होकर मोक्ष प्राप्त करता हैं यहां भी यही उपसंहार बनता हैं हमें वेदोक्त अचछे कर्मों करते हुए ज्ञान पाकर मोक्ष प्राप्त करना हैं  यही इस सुत्र का उद्देश्य हैं।
पुराण एवं मनु स्मृति में लिखा गया हैं
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )।

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)

(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)

इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।

उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।

(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)

श्रीमद्भागवत
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )

युधिष्ठिर! धर्म में ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहें गये हैं। सत्य,दया,तपस्य,शौच, तितिक्षा,उचित ,अनु चितका, विचार,मनका ,सयंम,इन्द्रियों का संयम ,अहिंसा ,ब्रह्मचर्य , त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शो महात्माओं की सेवा धीरे -धीरे संसारिक भोगों की चेष्टासे , निवृत्ति मनुष्य के अभिमान पूर्ण प्रयत्नो का फल उलटा ही होता हैं- ऐसा विचार, मौन, आत्म चिन्तन  प्राणियों को अन्न आदिकाल यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव संतो के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण के नाम गुण लीला आदि का श्रवण किर्तन स्मरण उनकी सेवा पुजा एवं नमस्कार उनके प्रति दास्य सख्य और आत्म समर्पण- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का पर धर्म हैं। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होता हैं

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