यजुर्वेद २३/१९
महीधर और उवट कभी वेद के ग़लत प्रचार नहीं कीये थे बिना संस्कृत के ज्ञान के बिना अर्थ करना असंभव है आर्य समाजी एवं विधर्मी बिना संस्कृत ज्ञान गलत प्रचार इनके उद्देश्य मूर्ति पुजा खण्डन और हिन्दू धर्म को तोडना हैं इनके बात पर ध्यान न दें।
देखिए सही भाष्य क्या हैं
गणानां त्वा गणपतिं ँ हवामहे प्रियानां त्वा प्रियापतिं ँ हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम अहमाजानि गर्भधाम त्वाजासि गर्भधम् यजुर्वेदः 23/19
भाष्यः अश्व अग्निर्वा अश्वः (शत°ब्रा° ३:६:२५) शक्ति अभिमानी गतं जातवेदस ( इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यंवहतु परजानन ऋग्वेद १०/२६) परब्रह्मण तन्स्त्रीनां मध्ये अश्वो यत् ईश्वरो वा अश्वा( शत°ब्रा°२३:३:३:५) सः एवं प्रजापति रुपेण प्रजापतिः हवामहे प्रजा पालकः वै देवम् जातवेदसो अग्ने तान सर्वे पितृभ्यां मध्ये प्रथम यज्ञकार्यार्थम् गणनां गणनायकम् स गणपतिं सर्वे देवेभ्यो मध्ये आह्वायामि इति श्रुतेः। प्रियपतिम् सः गणपतिं निधिनां (गणनां प्रियाणां निधिनामतिं का°श्रौ° २०:६:१४) सर्वाः पत्न्यः पान्नेजानहस्ता एव प्राणशोधनात् तद जातवेदो प्रतिबिम्बं स अश्वं कृद्दशाः इयं अश्वः कार्यब्रह्मणे जताः प्रकृति रूपं अश्वं च जातवेदस अग्निः एव अश्वः इति मान्यते त्रिस्तिः परियन्ति त्रिः त्रिभिर्मन्त्रैः। वसो ममेति त्रिष्वप्यनुषड़्ग: ततश्चैवं क्रम: - प्रथमं गणानां त्वेति त्रि: प्रदक्षिणम् ततः प्रियाणं त्वेति त्रिरप्रदक्षिणा ततो निधीनां त्रिः प्रदक्षिणमिति पितृवन्मध्य इत्यस्यार्थः । अन्ते सकृदितरथावृति। वसो ममेत्यस्य त्रिप्वप्यनुषड़्गः एवं नवकृत्वः परिक्रमणमिति सुत्रार्थः। अत्र मृतेषु पशोः प्राणेषु पत्नीभिरध्वर्युणा यजमानेन च प्रक्षालितेषु शोधितेषु सत्सु महिषी अश्व समीपे शयीतेति सूत्रार्थः अत्र कार्यं जगतः कार्य जगदे जातवेदो अश्वः तस्य कार्य अग्निः समीपे अतः तस्य अग्निः मण्डलस्य समीपे यथा प्रकृतिः सुकृतं तस्य जगतः कार्ये यथा मृताः जीवः तथा एव शयीतेति इति अनन्तरं रेतसा शक्तिः अधिभूतं स अश्वं रेतस् देवानां मध्ये आह्वानं कृत्वा रेतस् विषये सेचनार्थे पतेः रेतस् सम्बन्धिं व्याधिं शनो इति सूत्रार्थः प्रतिपादितम् अतः तत्र गर्भं गर्भधं ददातु इति सेचन अर्थे रेतस् देवस्य प्रजाग्वं रेतसा यजुर्वेद भाष्य २५/७ रेतोऽहम् अतः पतेः वीर्यं वृद्धिः कुर्वन् इति चेन्न इति आ अजासि निष्कृष्य क्षिपामि इत्यस्य कृते महिषी अतः तस्य बलं अतः वीर्यौ वै प्राणः बृ उप॰ १ तेन एव प्राणतत्वं शोध्यते इति मत्वा पतेः शरीरे विद्यमानानां वीर्यं स्थापना जातो येन अज गतिक्षेपणयोः अज वै आत्मनः शतपथ ब्रा॰५:६:१:२
इति अर्थे रेतसाम् पतेः विक्षेपं कुरू इति अर्थः प्रतिपादितम् अतः अग्नीषोमीय पुरोडाश प्राणो वै दक्षोऽपानः क्रतु एतस्माज्जञ्जभ्यमानो ब्रूयान्मयि दक्षक्रतू इति प्राणापानावेवाऽऽत्मन् धत्ते - तै.सं. २.५.२.४ यस्य यज्ञे धूवनं तन्वते परिकल्प्या इति मन्त्रो भवति
भावार्थ: यहां पर यजमान कि पत्नी अश्व ( अर्थात जातवेदो नामक अग्नि कि परिक्रमा से अग्नि स्थल के समीप जाकर ( अर्थात उस यज्ञ के मण्डल में बैठ कर कहती हैं । हे प्रजापति देवता के रूपी अग्नि एवं सब मनुष्यों के गणों के अधिपति (पालनहार) गणपति रुप में विद्यमान परमात्मा हम आपको इस अग्नि में आह्वान करते हैं । संसार के सकल पदार्थ से अधिक प्रिय होने के कारण एवं सर्वपरि रक्षक होने के कारण हम प्रिय पति (अर्थात पालक के रूप में आह्वान करते हैं विद्या एवं समस्त पोषन और निधियों के कारक सब वस रुप में रहने वाले इस वसु देव का भी अह्वान करते हैं एवं महिषी अग्नि के मण्डल में शयन करके बोलती है जिस प्रकार ये समस्त जीव आपके प्रकृति में शयन करते हैं ऐसा ही हम भी आपके इस कार्य स्थल में (अर्थात प्रकृति में ) शयन करते हैं । इसमें कहा गया है मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न होता है प्रकृति से अन्न मिलता है उससे पालन होता है ऐसे होने के बाद मृत होकर भगवान कि उत्कृष्ट प्रकृति में शयन करते हैं अर्थात विलिन होते बीच में इस प्रकृति से उत्पन्न होने वाले इच्छा प्राप्त करने के लिए हम आपको पुरोडाश के हविस देते हैं उसे स्वीकार करें एवं आपके औलोकिक शक्ति रूप में सेचन करने में समर्थ रेतस नामक देवता रुपी भगवान हमारे पति के लिंग के संबन्ध में अधिकत व्याधि को दुर करके हमारे पति में वीर्य स्थापति करें एवं उससे हमारे पति के उस वीर्य से हमारे गर्भ धारण होवें एवं जिस अग्नि हम पुरोडास (आटे की पिण्ड ) से हम हवन करते हैं उसके धुंवा से हमारे समस्त व्याधियों से रक्षा होवें
संबंध : ये मंत्र संतान के कामन के अन्तर्गत भगवान केलिए हवन के अर्थ में प्रयुक्त इस यज्ञ में अनेक औषधि को पुरोडाश के साथ हवन करते हैं यहां अश्व अग्नि केलिए प्रयुक्त होता है प्रगति शील होने के कारण अग्नि का नाम अश्व हैं एवं उस अग्नि में ही अनेक देवों का भी हवन होता हैं ये अनुमान उसके धुंवा से मनुष्य ठिक होता हैं। और मंत्र के शक्ति से शरीर में कंपन उत्पन्न होता है उससे नाडी शोधन होता हैं।
परंतु श्रीमान वाल्मीकी रामायण में माता कौशल्या द्वारा अश्व का वध और फिर उसके निकट एक रात्रि व्यतीत करना तो यही संकेत करता है कि यहां वास्तविक अश्व के बारे में बात हो रही है.
ReplyDeleteकृपया मार्गदर्शन करें इस संदर्भ में
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