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एक सत विप्र बहुधा वदन्ति

आर्य समाजी और मुल्ला इस मंत्र में एक ईश्वर वाद सिद्ध होता है लेकिन इनमें से एक का अर्थ गलत है। इस कर्म कांड के मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार है।

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि अहु रथो दिव्यः स सुपर्णों गरुत्मान
एकं सत् विप्रं बहुधा वदन्तिमग्नि यमं मातुरिश्वनमाहुः
एक ही सत् वस्तु वही एक ही विप्र अनेक विश्वास वही इंद्र मित्र वरुण अग्नि अग्नि कहते हैं एक ही
दिव्य सुपर्ण और गरुत्मान का यही भाव है कि सभी देवता एक ही होते हैं एक ही अग्नि में सब का हविस देते हैं (अत्रकेचित् अग्नि: सर्व देवता ऐ ब्रा 2:3) इसलिए अग्नि को शब्द को प्रथम निर्देशित किया जाता है। इसलिए ऋग्वेद 1:1 में सबसे पहले अग्नि का ही आह्वान हुआ
ऋग्वेद 164:64:46

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महीधर और उवट सही भाष्य के विष्लेषन

यजुर्वेद २३/१९ महीधर और उवट कभी वेद के  ग़लत प्रचार नहीं कीये थे बिना  संस्कृत के ज्ञान के बिना अर्थ करना असंभव है आर्य समाजी एवं विधर्मी बिना संस्कृत ज्ञान गलत प्रचार इनके उद्देश्य मूर्ति पुजा खण्डन और हिन्दू धर्म को तोडना हैं इनके बात पर ध्यान न दें। देखिए सही भाष्य क्या हैं गणानां त्वा गणपतिं ँ हवामहे प्रियानां त्वा प्रियापतिं ँ हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम अहमाजानि गर्भधाम त्वाजासि गर्भधम् यजुर्वेदः 23/19 भाष्यः अश्व अग्निर्वा अश्वः (शत°ब्रा° ३:६:२५) शक्ति अभिमानी गतं जातवेदस ( इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यंवहतु परजानन ऋग्वेद १०/२६) परब्रह्मण तन्स्त्रीनां मध्ये अश्वो यत् ईश्वरो वा अश्वा( शत°ब्रा°२३:३:३:५) सः एवं प्रजापति रुपेण प्रजापतिः हवामहे प्रजा पालकः वै देवम् जातवेदसो अग्ने तान सर्वे पितृभ्यां मध्ये प्रथम यज्ञकार्यार्थम् गणनां गणनायकम् स गणपतिं सर्वे  देवेभ्यो मध्ये  आह्वायामि इति श्रुतेः। प्रियपतिम्  सः गणपतिं निधिनां (गणनां प्रियाणां निधिनामतिं का°श्रौ° २०:६:१४) सर्वाः पत्न्यः पान्नेजानहस्ता एव प्राणशोधनात् तद जातवेदो प्रतिबिम्बं...

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