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ईश्वर

अगर ईश्वर सर्व व्यापक है तो मल और विष में क्यों नहीं ? ईशावास्यमिद ॅ सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्वनम् ईशावास्यमिति -ईशा ईष्टे इति तेन ईशा इस प्रयोग से पता चलता हैं कि ईश्वर ने खुद संकल्प किया यहां सर्व ऐश्र्वर्यो अर्थात भौक्तिक विषयों को बनाने वाला वो ईश्वर ही हैं क्यों कि यहां ईशा ऐश्वर्ये इति धातोः क्षिपि रूपमीडिति प्रयोग होता है इसलिए ईशिता परमेश्वर ही समस्त जगत् के समस्त जन्तु के आत्म होने के कारण उपादान भी हैं आच्छादनीयं आत्मा रूपेण ईश्वरः आच्छादितः यहां पर वस- आच्छादने ऋहलोर्ण्यदिति ण्यत्प्रत्यय इति भावः यत् किंचित जगत्यां पृथिव्यां जगत तत् सर्वं यहां पर सर्व पृथ्वी के स्वाभविक भाव रुप रस शब्द गंध स्पर्श भाव वाले तत्व अधिभाव के प्रदायक ईश्वर हैं। लेकिन ईश्वर इनके परे हैं जिस प्रकार चंदनादि एवं औषधि वृक्षों में ईश्वर अधि भूत शक्ति रूप स्वाभविक गुण का भी उत्पत्ति के कारण है इनके ज्ञान केवल इन्द्रिय के अनुभव से होता है अगर कोई दुर्गंध युक्त वस्तु होता है उसमें ईश्वर नाच्छादित हैं लेकिन इनके स्वभव जो जैसे दोनों तत्त्व मिलने से जो दुर्गंध उत्पन्न होना है इसके ज्ञानता ईश्वर हैं इसलिए प्रकृति के विपरित विलक्षण को भी ईश्वर के उत्कृष्ट ज्ञान माना जाता हैं मूलतः ये ईश्वर के ज्ञान के परे नहीं है इसलिए स्वाभव जो तत्त्वों प्रकृति में संयोग करने से विपरीत तत्व उत्पन्न तत्त्व उत्पन्न हो जाती है जो रसादि तत्व से अलग नहीं है और इनके स्वभवित संयोग के कारण ईश्वर है इसलिए इसे ईश्वर से कृत माना जाता है सब बलों के रूप में एवं संयोग आदि स्वाभव के रूप से ईश्वर आचादित लेकिन ईश्वर गंध एवं दुर्गंध से परे हैं वैसे भी हम कहते हैं अन्न वै ब्रह्म इससे ये अर्थ नही होता है जीव ब्रह्म को खाते हैं सब जीव अन्न एवं प्रणा से स्वाभव से अन्न में ईश्वर के पालन करने वाले शक्ति व्याप्त है इसलिए शरीर पालन करने हेतु अन्न खाना उचित है जैसे विष में विनाश के शाक्ति होता हैं इसलिए जिसे खाने से एवं उसके विपरीत तत्व से शरीर के हानि होती हैं इसे हम परोक्षा अनुभव से जान सकते इसलिए हानिप्रद पदार्थों को सेव करना उचित नहीं हैं तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा यहां पर सब कुछ त्यागना ऐसा अर्थ नही होता हैं जो संसार एवं भौतिक विषयों में रत है उसे कहा है फलों को त्याग कर निष्काम कर्म एवं भक्ति करने के अभिलाष से लिया गया हैं मा गृधः कस्य स्विद्वनम् - यहां पर कहां सब भौतिक ऐश्र्वर्यो को एवं कर्मों को प्रधान करने वाला ईश्वर हैं इसलिए आत्म को मन और शरीर मध्यम से जो भोगने वाले शरीर प्राप्त हैं इतना मिला है उतना ही भोगे कभी अन्य धन की इच्छा न करें ये इस मंत्र का भाव हैं

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