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वेदांत दर्शन ०२


जन्माद्यस्य यतः १:१:२
अस्य =इस जगत के
जन्मादि =जन्म आदि ( उत्पति , स्थति और प्रलय)
यतः जिससे (होता हैं वह ब्रह्म हैं)

व्याख्या :
१)यह जो जड़ - चेतनामत्क जगत सर्वसाधारणके देखने, सुनने और अनुभव में होता हैं
२) जिस के अद्भुत कार्य क्षमता से विज्ञान भी आश्चर्यचकित होता हैं
३)इस जगत के विचित्र जन्मादि जिस से होता हैं वहीं सर्व शक्तिमान परात्पर अर्थात प्रकृति से भिन्न जो इन प्रकृति तत्व से रहित हैं इस परब्रह्म के उस रूप को लिंग पुराण में ऐसा समझाया हैं

अलिङ्गो लिङ्गमूलं तु अव्यक्तं लिङ्गमुच्यते।
अलिङ्गः शिव‌ इत्युक्तो लिङ्गं शैवमिति स्मृतम्।।३:१।।
अलिङ्गो ( प्रकृति तत्व से रहित ) लिङ्गमूलं ( प्रकृति तत्व के उत्पादन का मूल ) परमात्मा आप के इस अव्यक्तं ( प्रकृति तत्व में अव्यक्त से रहने वाले एवं नित्य इसके सृजन करने वाले आपसे ही उत्पन्न हुवा इस प्रकृति तत्व को लिङ्ग कहते हैं इस के विपरित जो प्रकृति तत्व से रहित  पृथक जो हम मानते वहीं अलिङ्ग रूप को शिव या परब्रह्म तत्व कहते हैं शैव मत में आपके इस उत्तम स्व कृत प्रकृति को लिङ्ग कहा हैं
४) अब सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्ति अर्थात बीज रूप माया से जगत कि रचना किया ।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्रामिमं कृतस्नमवशं प्रकृतेर्वशात भगवद्गीत ९/८
अनुवाद:  अपनी प्रकृति को अङ्गीकार करके स्वाभाव के बल से (अर्थात मेरे बल समान योग माया) परतन्त्र हुऐ सम्पूर्ण भूत समुदाय  को उनके कर्मों के अनुसार रचता हुं
५) भगवान इसका धारण, पोषण , तथा नियमित रूप से सञ्चालन करते हैं अन्त में प्रलयकाल आने पर जो इस जगत  फिर से अपने अन्दर विलीन कर लेता हैं। वहीं परब्रहा हैं
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम
कल्पक्षये पुनस्तानि  कल्पादौ विसृजाम्यहम् ९/७
कल्पों के अन्त में सब भूत मेरे प्रकृति को प्राप्त होता है अर्थात उसमें ही विलीन होता है एवं कल्प के आदि मैं उसे फिर रचता हूं।
भाव यह है कि देवता, दैत्य ,दानव ,मनुष्य, पशु आदि जो अनेक जीव से परिपूर्ण हैं एवं सुर्य चन्द्र अन्य जितने समस्त पींड होता है  एवं जितने भी अन्य नान लोक लोककान्तर जो अनेक संपदाओं से संपन्न हैं ऐसे अनन्त ब्रह्माण्ड की कर्ता - ह्रर्ता कोई अवश्य हैं  वहीं ब्रह्म हैं । उसिको परमेश्वर परमात्मा और भगवान् आदि विविध नामोसे कहते हैं। क्यों कि वह सबका आदि सबसे बड़ा, सर्वाधार, (पालनहार) सर्वज्ञ , सर्वेश्वर सर्वव्यापी और सर्व रुप  हैं । यह  दृश्यमान जगत् उसकी अपारा शक्ति के किसी एक अंशका  दिग्दर्शन मात्र हैं।
शङ्का  - अब आपको शंका हो सकता है हमारे ‌उपनिष्दों में इस‌ परब्रह्म को अकार्ता, अभोक्ता, असंङ्ग ,अव्यक्त, अगोचर, अचिन्त्य, निर्गुण, निरञ्जन‌ तथा निर्विशेष बताया गया है।और इस सुत्र में उसे जगत कि उत्पत्ति स्थति एवं प्रलयका कर्ता बता गया है यह विपरित बता कैसे।?
तस्य कर्तारमपि मां      
   विद्ध्यकर्तरमव्यायम् ॥४:१३

परमेश्वर इस संपूर्ण जगत का कर्ता होते हुए भी अकर्ता हैं ‌। अतः उसका कर्तापन सा़धारण जीवों कि भाँति नहीं है सर्वथा एवं अलौकिक हैं। वह सर्व शक्तिमान एवं  सर्वरुप होने में समर्थ होकर भी सबसे सर्वथा अतीत और असङ्ग हैं । सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी निर्गुण हैं तथा समस्त विशेषणोसे‌ युक्त होकर भी निर्विशेष हैं।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी              
     ज्ञानबलक्रिया  च श्वेताश्वर उपनिषद ६/८
इस परमेश्वर ‌ज्ञान , बल, और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार कि सुनी जाती हैं।
एक देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी
      सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्ष सर्वभूताधिवासः         
      साक्षी चेता केवल निर्गुणश्च श्वेताश्वर उपनिषद
     
६/११
वह एक देव ही सब प्राणियों में छिपा हुआ सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा हैं। वही सबके कर्मोका अधिष्ठाता सम्पूर्ण भूतों में स्थित सबका साक्षी चेतना रूप सर्वथा विशुद्ध और गुणातीत हैं।
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्‌।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥
अन्वयः न अन्तःप्रज्ञम्। न वहिःप्रज्ञम्। न उभयतःप्रज्ञम्। न प्रज्ञानधनम्। न प्रज्ञम्। न अप्रज्ञम्। अदृष्टम् अव्यवहार्यम् अग्राह्यम् अलक्षणम् अचिन्त्यम् अव्यपदेश्यम् एकात्मप्रत्यसारं प्रपञ्चोपशमम् शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते विवेकिनः । सः आत्मा सः विज्ञेयः ॥ माण्डूक्या ७

वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, 'आत्मा' के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, 'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है ,(अर्थात वह एक ही हैं) 'उसे' ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है
इस प्रकार उस सर्व शक्तिमान परब्रह्म परमेश्वर में विपरित समावेश स्वाभविक होने से शंका केलिए स्थान नहीं है।
संबंध: कर्त्तापन और भोक्तापन से रहित नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त ब्रह्म को जगत का कारण कैसे माना जा सकते हैं इस पर अगर सुत्र पर कहा हैं

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