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वेदांत दर्शन कक्षा-०४

 तत्तु समन्वयात् १:१:४
तु = तथा तत् =वह ब्रह्म समन्वयात्=समस्त जगत् में अनुगत (व्याप्त) होने के कारण (उपादान भी हैं)
व्याख्या- जिस प्रकार अनुमान और शास्त्र प्रमाण के अन्तर्गत यह सिद्ध होता हैं कि इस विचित्र जगत् का निमित्त कारण परब्रह्म हैं उसी प्रकार यह भी सिद्ध होता हैं कि वही इसका उपादान कारण भी हैं क्यों कि वह इस जगत में पुर्णतया अनुगत (व्याप्त) हैं इसका अणुमात्र भी परमेश्वर से शुन्य नहीं हैं भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि 
यच्चापि सर्वभूतनां बीजं तदहमर्जुन 
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् १०/३९
यह सब भूतों के उत्पत्ति का कारण मैं ही हुं क्यों कि ऐसा कोई चर और अचर कोई भूत नहीं है जो मुझे से रहित हो।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवयम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ९/४
उत्पत्ति विनाश धर्म वाले सब अधिक्षभूत हैं हिरण्मय पुरुष अधि दैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस शरीर मैं वासुदेव ही अन्तर्यामीरूप से अधि यज्ञ हुँ ।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति ।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ - तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३
वह जो समझ गया कि ब्राह्मण ही प्राण है।  वास्तव में,ये ब्रह्म ही सब का प्राण यहां सब जीव प्राण तत्व से  उपत्तपन्न होते हैं जब प्राण , छुट जाता है तब  सबके प्राण ब्रह्म के प्राण तत्व प्रवेश करते हैं। अर्थात ब्रह्म बन जाता हैं  आगे कहा गया है कि हमें तपस्या करके ब्राह्मण को समझने की इच्छा रखनी चाहिए। वहीं सब कुछ है वही तप हैं वो भी तप किया था और तप कर रहा हैं अर्थात ब्रह्म समस्त जगत के रचना के लिए अपने तप (बल) को सृजन किया था उसके पालन करने के लिए तप (बल) को सृजन कर रहा हैं इसलिए वहीं समस्त तप (बल) हैं वहीं समस्त भूतों में व्याप्त हैं इसलिए वहीं जानने योग्य हैं। इसलिए उसको कोई उत्पादन एवं निमित्त कारण माना जाता हैं।
संबंध : सांख्य दर्शन में अनुसार त्रिगुणात्मिक प्रकृति भी समस्त जगत में व्याप्त हैं फिर अगर प्रकृति ही व्याप्तरुप हैं तो जगत के उत्पादन कारण ब्रह्म को क्यों मानें इस पर आगे सुत्र में दिया गया हैं

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