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Showing posts from 2020

RIGVEDA 1

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्न धातमम् Translation: The above mantra is benediction to Agni devta it states that verily the priest of the sacrifice and the sage and the fire god himself who invokes the deity let sage and hothar of sacrifice praise Lord Agni with hymn one who is embodied with precious stones and radiant messenger of gods. notes acharya sayana predicate that one should praise LordAgni who is priest of sacrifice who invocate the all god is embodied with precious stones so every sage or होतरा of sacrifice should praise God Agni with hymn and worship the god Agni commentary This is the first mantra of rigveda the worshipers ,the होतराcalled ऋत्विज has been stated all necessary predication has been explained in sacrifice all the relevant parts of the sacrifices necessarily predicated had been imposed on Lord Agni पुरोहितं : The word " पुरोहितं " indicated to chief teacher or chief performer of‌ sacrifice so indicate necessarily that he should be

भागवत महापुराण

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्वार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्  तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यतसूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ १) जन्म आदि अस्य यतः इस में समस्त संसार का जगत के उपादान कारण रुप महानारयण का स्वरूप का कथन किया गया हैं, जड़ वस्तु आदि में स्वयं विवेक प्रत्यय नहीं होता हैं ,जड़ वस्तु अपने अस्तित्व के बारे में नहीं जान सकता हैं। अगर कोई ये मानें की किसी वस्तु एक चेतना के इच्छा के बिना ही प्रकट हो गया तो बहुत ही हस्य सपद बात हैं वेदादि ग्रंथों में बहुत से बार ऐक्ष धातु का प्रयोग होता हैं यहां इसका अर्थ सक्षी के रूप में संकल्प करना अगर कोई ये कहे की भगवान के रहित उस वस्तु ही प्रदान था तो उसमें भगवान निमित्त मात्र था तो भगवान उस वस्तु क्यों जानेगा जिसमें हो निमित्त मात्र था। अगर घड़ा बनाने वाले कुम्हार भी अपने रहित वस्तु जानकर ही कार्य करता हैं घड़े स्वयं नहीं बनते उस का कारण ही एक चेतन ही हैं । संख्या दर्शन ये उदाहरण का अर्थ ये नहीं कुम्हार बहार हैं अंदर भी हैं सो निमित्त मात्र हैं । ये केवल द्वैत में सही हैं। क्यों की

what is advait

what is advait  What is Maya? सदासद विलक्षणो माया  it means that maya is neither extience nor a non existence it is just a peculiarity of existence and non extience  The opposite naturally product that we perceive with the same peculiarity is only because of lack of understanding about absolute reality in the sense that earthen pot is posted to be different from nature of Earth element this only outside quality that we observe but in realative reality it only earthen element so same way persue souls to different but it's nothing but brahman himself in reality  it is stated in vaisheshika that  Pleasure, Pain, Desire, Aversion, and voilition  are marks on  existence of soul here it is noted these are not to be confused as qualities of soul if I take them then soul should have been inexitent in dormant sleep there is no voilition of deeds still soul is withness the action in body it can be other kind of voilition which is called as  source of vitality  soul cannot be taken as bounded

ऋभु गीता का रहस्य १

ऋभुः गीता अध्याय १:१ ये ऋभुः गीता पहले श्लोक हैं इसमें भगवान के सूत्ति से मङ्गलाचरण व्याक्त किया हैं यहां महा गणपति की महिमा किया हैं । महा गणपति शिव गणों या रुद्र गणों के पालनहार या नायक हैं । पुराणों में भगवान गणपति को भगवान शिव के पुत्र बताया हैं। पुर्व में गणपति भगवान कहानी में हम पाते हैं उसके पेट विशाल थे इसके अर्थ ये कदपि नहीं करना चाहिए वो हाथी जैसे हैं गणपति हाथी वाला रुप भगवान शिव के अमोघ प्रेम को बताया हैं रूद्र संहिता में लिखा हैं अपने भक्त गजासुर नमक हाथी को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करने हेतु अमोघ कलात्मक तंत्र विद्या से हाथी के रुप दिऐ तंत्र के कुछ पद्धति से अपने पुत्र को हाथी के रुप दिए यहां भगवान शिव जानते थे वो अपने बैटे हैं किन्तु उसके भक्त को पुत्र रूप में स्वीकार करने के लिए लीला मात्र था दुसरे बात यहां ये सिद्ध होता हैं भगवान गणपति को हाथी के शिर प्राधन करके उससे सब शास्त्र सपन्न विनय शील विद्या शील किये अन्त में उसके उदार पेट ये दर्शाति हैं कि जैसे  भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरे भक्तों के नाश नहीं होगा ऐसे ही सब भगवान हमारे नाश नहीं होने देंगे इसलिए प

स्कन्द पुराण महेश्वर खण्ड भाग -०१

पुराण न तो गलत होते हैं उसमें विश्लेषण कमि से मनुष्य अनर्थ कर लेता हैं इस लेख का उद्देश्य पुराण का सही विश्लेषण हैं अगर कोई धार्मिक व्यक्ति को हमारे कार्य अच्छा लगा हैं तो इसे शेर और लायक जरूर करें इस ब्लॉग को सब्सक्राइब करें धन्यवाद गणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ध्यानं नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ अर्थ : द्विपदा गायत्री महापुरुष महानारयण जो सब मनुष्य में आत्मारूपी नरोत्तम एवं‌ सरस्वती देवी जो बुद्धि वाक् एवं जिह्वासंधन करण रूपिणि मां सरस्वती का मायारूप का नारायण भगवान को नामस्कार करते हुए एवं उसके सरस्वती रूप की मायरुप तथा इस सकन्ध पुराण प्रोक्ता व्यास महार्षी को नमस्कार हैं। अथ पद्मपुराणे महेश्वरखण्डस्य प्रथमोध्याय यस्याज्ञाय जगतस्त्रष्टा विरिंचिः पलको हरिः । संहर्ता कालरूद्राख्यो नमस्तस्मै पिनाकिने ॥१॥ अर्थ:- सब देवताओं के मूल शक्तिस्वरूप पिनाकी धनुष धारि महारूद्र जिसके इच्छा रूपि बंधन के वषिभूत होकर विरिंचि (ब्रह्म) जिसके आज्ञा से सृष्टि करते हैं विष्णु उसके पालन करते हैं।तथा कालरुद्र संहार करते हैं ऐसे अद्भुत शाक्ति स्वरूप भगवान मह

क्या भविष्य पुराण मिलावटी हैं?

आज काल कुछ आर्य समाजी लोग भविष्य पुराण को मिलावटी बोलते हैं क्यों की इनका कहना हैं की वहां अंग्रेजी शब्द पाया जाता हैं इसलिए इसके मुख्य कारण हैं अज्ञात भविष्य पुराण में भविष्य का कथन करते हैं इनमें ऐसा शब्द होना और बनना कोई गलत नहीं हैं। अंग्रेजी लेटिन रूस इत्यादि भाषा में संस्कृत का शब्द का प्रत्योत्तर भेद पाया जाता हैं इसे समझने हेतु इस लेख को पढ़ सकते हैं जानुस्थाने जैनुशब्दः सप्तसिन्धुस्थैव च हप्तहिन्धुर्यावनी च पुनर्ज्ञेया गुरूण्डिका रविवारे च सण्डे च फलगुणे चैव र्फवरी षष्टिश्च सिक्सटी ज्ञेया तदुदाहारमीदृशम् भाष्य: भविष्यति इति भविष्यं इत्यैव प्रक्ते जानु सन्धिः स्थाने इति जैनु वा जैन्ट इति ज्ञायते चेत् इति शका प्रतियोत्तरे योवन भाषा मध्ये अर्थे एव मत्वा सप्तसिन्धोः अर्थे हप्त हिन्दोः इति ज्ञेयम् गुरूण्डिका ( गु + रुण्डिका) नाम विख्यातिं प्राप्तः अङ्गल भाषास्तु रविवारे सुनु शब्दे सण्डे इति ज्ञेयम् द्वितीया अर्थे र्फवरी फल्गुणं इति भवेत् षष्ठी उच्यते षषां मध्ये सस् नामधेयम् शब्दं षष्ठी स्यात् इति भावः तददुदाहरं एव दृश्यं इति चैन् । अनुवादः होने वाले भविष्य अर्थ में जानु या जंगा शब्

नास्तिक का पर्दफास क्या उपनिषदों में अश्लील हैं part १

नास्तिक का पर्दफास सब नास्तिक अपने विज्ञान के किताबी ज्ञान से हर विषय में विज्ञान देखने की कोशिश करते हैं मुर्खों को ये नहीं पता हैं विज्ञान भी धर्म से ही निकाला हैं अगर यहां विज्ञान में भौतिक विज्ञान की बात हो रहा हैं तो धर्म ग्रंथों में पराभौतिक की बात करते हैं लेकिन समझने का प्रयास नहीं करते हैं। बस बीना पैरों शीरों वाली बात करते हैं । विज्ञान का निपटा अंधो को धर्म ग्रंथों विज्ञान नहीं दिखते आज बृहदारण्यक उपनिषद् में विज्ञान की बात करेंगे आप खुद निर्णय करें क्या ये सब विज्ञान की बात गलत हैं। एवं वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपो अपामोषधय ओषधीनां पुष्पाणि पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः॥१॥ भाष्य: एषां वै भूतानां च भूतिप्राणिनां पृथिवी रसः प्रदानं यद तत्वादयो मनुष्य शरीरस्य मधुवत सारभूतं अथ तस्य पृथिव्या आपो रसः आपो वा रसः औषुधयः (सुख करं अन्नं) इत्यर्थः औषुधीनां रसःपुष्पं पुष्पाणां फलानि रसाणी तैः पुष्पाफलादिनां रसदैव पुरूषः तस्य पुरूषस्य रेतः वृर्द्धिभवति इत्यर्थः अनुवादः इन सब भूतप्राणियों में पृथ्वी रस प्रदान होता हैं अर्थात पृथ्वी तत्त्व ही प्रदान होता हैं इसलिए पृथ्

क्या वेद में दयनोसर हैं?

संदीप आर्य नाम एक दुष्ट समाजी वेद में दयनोसर बोल रहा हैं ये यथावत ग़लत है इस मुर्ख ये तक पता नहीं मंत्र जो दिया गया हैं वो भगवान शिव केलिए समर्पित किया गया हैं नीचे इसका खण्डन किया गया हैं ये वृक्षेषु शष्पिञ्जर निलग्रीवा विलोहिताः तेषां ँ सहस्र योजने ऽव धन्वानि तन्मसि यजुर्वेद १६:५८ ये वृक्षेषु आश्रितः अतः वट अश्वतादि विलक्षणः भाव अधिगतम वृक्षं इति तेषु आश्रितः शष्पिञ्जर शष्पं बालतृणं तद् पिञ्जर च हरितवर्णाः च विगतं काश्चन् निलग्रीवा निलं च यद् ग्रिवा यं तान् रुदान् इति भावः तेषु केचन विशेषं लोहितः अतः तेषु काश्चन् रक्तवर्णाः यद्वा विगतं रुधिरं येषां ते लोहितपदं मांसादिनामुपलक्षणम् विगतो लोहितादिधातवस्तेजोमयशरीराः इत्यर्थ तेषां इति उक्तं तेषां सहस्र योजने अतः सहस्रयो जनरहित मार्गे वयमवतन्मसि अवतन्मः अवतारयाम तं धन्वानि धनूंपि दूरं क्षिपामि इत्यार्थः अत्र मन्त्रभिः दुरं कर्तुम इति कर्मणाद्भवः हिन्दी : अश्वतादि विलक्षणों से उत्पन्न होने वाले वृक्षों को आश्रय लेने वाले बाल तृणों के सामन एव हरित रंग वाले और कुछ जो नील ग्रीव वाले एवं मांस और शोणि रहित रुद्रों (भूत गण) जो होतें हैं एवं जो ते

क्या मनुस्मृति का ४/१२३/१२४

न तो ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं न तो गलत है आर्य समाजी इन्हें समझने के बुद्धि नहीं होता है यहां कर्मणा विशेष भाव को अभिव्यक्त किया गया हैं सीधे बात ज्ञान संबंधित मंत्र से हवन नहीं होता हैं पितृसुक्त वा उनके संबंधित मंत्रों से देव हवन वा उपासना नहीं होता हैं । सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदा चन । वेदस्याधीत्य वाप्यन्तं आरण्यकं अधीत्य च ४/१२३ सामवेद के शैली में कभी यजुर्वेद ऋग्वेद नहीं पढ़ना चाहिए क्यों कि यजुर्वेद गद्यात्मक हैं ऋग्वेद पद्यात्मक हैं इसलिए इनमें स्वर रहित हैं ।इसलिए स्वर लगायें बिना साम शैली उत्पन्न नहीं होता हैं आरण्यक उपनिषद पढ़कर हवन न करें इनमें ज्ञान बोधन होने से इनमें कर्म रहित हैं इसलिए इनसे अधययन से हवन नहीं होता हैं । ऋग्वेदो देवदैवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः । सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः ४/१२४ ऋग्वेद देवता संबंधित होता हैं यजुर्वेद मनुष्य संबंधित हैं सामवेद पितृसंबधित हैं इसलिए इनका ध्वनि शोक का व्यक्त करता हैं अतः इनका ध्वनि खेद को प्रकट करते हैं। यहां पढ़ने की बात पढ़ने लिखने की नहीं हो रहा हैं अपितु कर्म बोधक में लिया गया हैं इसलिए यहां केवल उस उ