Skip to main content

भागवत महापुराण

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्वार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् 
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यतसूरयः ।

तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥

१) जन्म आदि अस्य यतः इस में समस्त संसार का जगत के उपादान कारण रुप महानारयण का स्वरूप का कथन किया गया हैं, जड़ वस्तु आदि में स्वयं विवेक प्रत्यय नहीं होता हैं ,जड़ वस्तु अपने अस्तित्व के बारे में नहीं जान सकता हैं। अगर कोई ये मानें की किसी वस्तु एक चेतना के इच्छा के बिना ही प्रकट हो गया तो बहुत ही हस्य सपद बात हैं वेदादि ग्रंथों में बहुत से बार ऐक्ष धातु का प्रयोग होता हैं यहां इसका अर्थ सक्षी के रूप में संकल्प करना अगर कोई ये कहे की भगवान के रहित उस वस्तु ही प्रदान था तो उसमें भगवान निमित्त मात्र था तो भगवान उस वस्तु क्यों जानेगा जिसमें हो निमित्त मात्र था। अगर घड़ा बनाने वाले कुम्हार भी अपने रहित वस्तु जानकर ही कार्य करता हैं घड़े स्वयं नहीं बनते उस का कारण ही एक चेतन ही हैं । संख्या दर्शन ये उदाहरण का अर्थ ये नहीं कुम्हार बहार हैं अंदर भी हैं सो निमित्त मात्र हैं । ये केवल द्वैत में सही हैं। क्यों की भगवान को हम सर्वव्यापक मानते हैं ऐसा कौनसा वस्तु जिसमें वो ना हो । जिस प्रकार हर वो छोटे कण कण स्वयं कंपित होते हैं उस केलिए बहारिक बल की जरुरत नहीं हैं वहीं उर्जा या एनर्जी सर्वव्यापक हैं अगर भगवान को सब का बल या प्राण मान लें तो जो भी था ओ स्वयं उपदान या निमित्त रहेगा उसको बाहर से बल नहीं लगना पड़ेगा कुछ विज्ञानी लोग कहते हैं सब कुछ उर्जा से हुई है तो भगवान को क्यों मानें।ये भी सही नहीं हैं जिस प्रकार सुर्य जब अपने आयु अधिकतम चरम सीमा को प्राप्त होता हैं उसके अंदर का सारे प्रकाश अन्धत्व में परिवर्तित हो जाता हैं तो वो कृष्ण पींड के समान बन जाता हैं । तो उसमें विवेक कहां से आयेगा मेरे अंदर का उर्जा परिवर्तन हो गया हैं । विज्ञान मानते हैं सब कुछ अंधत्व था तो ऐसे कौनसा वस्तु था जिस से उसमें जाकर देखा थे विज्ञान के बात ये ग़लत सिद्ध होता हैं प्रकश के आधार पर अंधत्व को खोजना ग़लत हैं दोनों एक दुसरे विरूद्ध हैं अगर उर्जा को प्रकाश ही था  उसमें विवेक कैसे नहीं था की में प्रकाश हुं यें अंधेरे हैं चेतन पांच गुण प्रदान  हो आलोचना अनुभव ,इच्छा ज्ञान और क्रिया वेद चार लिया हैं जैसे सृष्टि स्थिति संसार नियम  इसलिए आगे कहा हैं वहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में था इसले पुर्ण ज्ञान अवगत था स्वराट् परि पुर्ण से स्वतन्त्र रूप में खुद ब्रह्म एक मात्र चेतन सत्ता था हृदा अर्थात सब का चेतन भी वहीं था जो हमारे हृदय कमल में स्थित हैं ‌। उसने ही उद्येश पुर्वक मूल आलोचक था जिनका माया से बड़े बड़े मोहित होते हैं जैसे तेजोमय सुर्य रश्मियों में जलका , जलमें स्थल का और स्थल में भ्रम होता हैं। वैसे ही जिसमें त्रिगुणमयी जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति रूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान सातसे सत्यवत् प्रतित हो रहा हैं। उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा माया और माया के कार्य से पुर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यारुप परमात्मा का ध्यान करते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्...

महीधर और उवट सही भाष्य के विष्लेषन

यजुर्वेद २३/१९ महीधर और उवट कभी वेद के  ग़लत प्रचार नहीं कीये थे बिना  संस्कृत के ज्ञान के बिना अर्थ करना असंभव है आर्य समाजी एवं विधर्मी बिना संस्कृत ज्ञान गलत प्रचार इनके उद्देश्य मूर्ति पुजा खण्डन और हिन्दू धर्म को तोडना हैं इनके बात पर ध्यान न दें। देखिए सही भाष्य क्या हैं गणानां त्वा गणपतिं ँ हवामहे प्रियानां त्वा प्रियापतिं ँ हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम अहमाजानि गर्भधाम त्वाजासि गर्भधम् यजुर्वेदः 23/19 भाष्यः अश्व अग्निर्वा अश्वः (शत°ब्रा° ३:६:२५) शक्ति अभिमानी गतं जातवेदस ( इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यंवहतु परजानन ऋग्वेद १०/२६) परब्रह्मण तन्स्त्रीनां मध्ये अश्वो यत् ईश्वरो वा अश्वा( शत°ब्रा°२३:३:३:५) सः एवं प्रजापति रुपेण प्रजापतिः हवामहे प्रजा पालकः वै देवम् जातवेदसो अग्ने तान सर्वे पितृभ्यां मध्ये प्रथम यज्ञकार्यार्थम् गणनां गणनायकम् स गणपतिं सर्वे  देवेभ्यो मध्ये  आह्वायामि इति श्रुतेः। प्रियपतिम्  सः गणपतिं निधिनां (गणनां प्रियाणां निधिनामतिं का°श्रौ° २०:६:१४) सर्वाः पत्न्यः पान्नेजानहस्ता एव प्राणशोधनात् तद जातवेदो प्रतिबिम्बं...

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्ष...