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स्कन्द पुराण महेश्वर खण्ड भाग -०१

पुराण न तो गलत होते हैं उसमें विश्लेषण कमि से मनुष्य अनर्थ कर लेता हैं इस लेख का उद्देश्य पुराण का सही विश्लेषण हैं अगर कोई धार्मिक व्यक्ति को हमारे कार्य अच्छा लगा हैं तो इसे शेर और लायक जरूर करें इस ब्लॉग को सब्सक्राइब करें धन्यवाद

गणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
ध्यानं

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अर्थ : द्विपदा गायत्री महापुरुष महानारयण जो सब मनुष्य में आत्मारूपी नरोत्तम एवं‌ सरस्वती देवी जो बुद्धि वाक् एवं जिह्वासंधन
करण रूपिणि मां सरस्वती का मायारूप का नारायण भगवान को नामस्कार करते हुए एवं उसके सरस्वती रूप की मायरुप तथा इस सकन्ध पुराण प्रोक्ता व्यास महार्षी को नमस्कार हैं।

अथ पद्मपुराणे महेश्वरखण्डस्य प्रथमोध्याय
यस्याज्ञाय जगतस्त्रष्टा विरिंचिः पलको हरिः ।
संहर्ता कालरूद्राख्यो नमस्तस्मै पिनाकिने ॥१॥
अर्थ:-
सब देवताओं के मूल शक्तिस्वरूप पिनाकी धनुष धारि महारूद्र जिसके इच्छा रूपि बंधन के वषिभूत होकर विरिंचि (ब्रह्म) जिसके आज्ञा से सृष्टि करते हैं विष्णु उसके पालन करते हैं।तथा कालरुद्र संहार करते हैं ऐसे अद्भुत शाक्ति स्वरूप भगवान महारूद्र को हम नमस्कार करते हैं।
तीर्थानातमुत्तं तीर्थ क्षेत्राणां क्षेत्रमुत्तमम् ।
तथैव नेमिषारण्ये शौनकाद्यास्तपोधनाः ।
दीर्घसत्रं प्रकुर्वंतः सत्रिणः कर्म चेतसः ॥२॥
अर्थ:-
उस नेमिषा नमक अरण्य जो सब तीर्थ क्षेत्र में उत्तम क्षेत्र नाम‌ से विख्यात प्राप्त किया हैं उसमें शौनकादि ऋषियों ने तपसधना यज्ञादि आदि किया करते थे। जिसके मन सदा केलिए पवित्र संस्कार कर्म से प्रगतिमान् था उन्होंने इस क्षेत्र में दिर्घ काल से तप यज्ञानादि प्रारंभ किए थे।
तेषां संदर्शनौत्सुक्यादागतो हि महा तपाः ।
व्यासशिष्यो महाप्राज्ञो लोमेशोनाम नमतः॥३॥
व्यास महार्षी जी के लोमेश नामक महा मेध्वी शिष्य उन्हे देखने के प्रति अति उत्सुक रूप से इच्छा करके वहां उपस्थित हुए।
४) तत्रागतं दद्दशुर्मुनयो दीर्घ सत्रिणः।
उत्तस्थुर्युगपत्सर्वे सार्ध्यहस्तः समुत्सुकाः
अर्थ:-
जैसे ही उन्होंने उसे आते हुए देखते ही सब मुनि जन जो दीर्घ काल से यज्ञा में व्यस्त थे उन्होंने उसको अत्यन्त उत्सुकाता से स्वागत करने केलिए उनके हाथ में ही यज्ञ समग्रि को लेते हुए सब मुनि जन एक साथ खड़े हो गयें।
दत्वार्ध्यपाद्यं सत्कृत्य मुनयो वीतकल्मषाः।
तं पप्रच्छुर्महाभागः शिवधर्मं सविस्तरं ॥४॥
अर्थ :-
तदन्तर वे श्रेष्ठ निष्कल्मष मुनियों ने उसे पैर धोने हेतु जल संर्पित कियें तथा उसे उपासना समग्रियों से सम्मान पूर्वक उपसर्गित कियें उसे अति सत्कार पुर्वक स्वागत कियें। फिर अति श्रेष्ठ मुनियों ने उससे शिवधर्म( शिव भगवान की प्राप्ति हेतु करने योग्य पवित्र कार्यों के रहस्य पुछें ।

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