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Showing posts from March, 2020

भागवत महापुराण

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्वार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्  तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यतसूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ १) जन्म आदि अस्य यतः इस में समस्त संसार का जगत के उपादान कारण रुप महानारयण का स्वरूप का कथन किया गया हैं, जड़ वस्तु आदि में स्वयं विवेक प्रत्यय नहीं होता हैं ,जड़ वस्तु अपने अस्तित्व के बारे में नहीं जान सकता हैं। अगर कोई ये मानें की किसी वस्तु एक चेतना के इच्छा के बिना ही प्रकट हो गया तो बहुत ही हस्य सपद बात हैं वेदादि ग्रंथों में बहुत से बार ऐक्ष धातु का प्रयोग होता हैं यहां इसका अर्थ सक्षी के रूप में संकल्प करना अगर कोई ये कहे की भगवान के रहित उस वस्तु ही प्रदान था तो उसमें भगवान निमित्त मात्र था तो भगवान उस वस्तु क्यों जानेगा जिसमें हो निमित्त मात्र था। अगर घड़ा बनाने वाले कुम्हार भी अपने रहित वस्तु जानकर ही कार्य करता हैं घड़े स्वयं नहीं बनते उस का कारण ही एक चेतन ही हैं । संख्या दर्शन ये उदाहरण का अर्थ ये नहीं कुम्हार बहार हैं अंदर भी हैं सो निमित्त मात्र हैं । ये केवल द्वैत में सही हैं। क्यों की

what is advait

what is advait  What is Maya? सदासद विलक्षणो माया  it means that maya is neither extience nor a non existence it is just a peculiarity of existence and non extience  The opposite naturally product that we perceive with the same peculiarity is only because of lack of understanding about absolute reality in the sense that earthen pot is posted to be different from nature of Earth element this only outside quality that we observe but in realative reality it only earthen element so same way persue souls to different but it's nothing but brahman himself in reality  it is stated in vaisheshika that  Pleasure, Pain, Desire, Aversion, and voilition  are marks on  existence of soul here it is noted these are not to be confused as qualities of soul if I take them then soul should have been inexitent in dormant sleep there is no voilition of deeds still soul is withness the action in body it can be other kind of voilition which is called as  source of vitality  soul cannot be taken as bounded

ऋभु गीता का रहस्य १

ऋभुः गीता अध्याय १:१ ये ऋभुः गीता पहले श्लोक हैं इसमें भगवान के सूत्ति से मङ्गलाचरण व्याक्त किया हैं यहां महा गणपति की महिमा किया हैं । महा गणपति शिव गणों या रुद्र गणों के पालनहार या नायक हैं । पुराणों में भगवान गणपति को भगवान शिव के पुत्र बताया हैं। पुर्व में गणपति भगवान कहानी में हम पाते हैं उसके पेट विशाल थे इसके अर्थ ये कदपि नहीं करना चाहिए वो हाथी जैसे हैं गणपति हाथी वाला रुप भगवान शिव के अमोघ प्रेम को बताया हैं रूद्र संहिता में लिखा हैं अपने भक्त गजासुर नमक हाथी को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करने हेतु अमोघ कलात्मक तंत्र विद्या से हाथी के रुप दिऐ तंत्र के कुछ पद्धति से अपने पुत्र को हाथी के रुप दिए यहां भगवान शिव जानते थे वो अपने बैटे हैं किन्तु उसके भक्त को पुत्र रूप में स्वीकार करने के लिए लीला मात्र था दुसरे बात यहां ये सिद्ध होता हैं भगवान गणपति को हाथी के शिर प्राधन करके उससे सब शास्त्र सपन्न विनय शील विद्या शील किये अन्त में उसके उदार पेट ये दर्शाति हैं कि जैसे  भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरे भक्तों के नाश नहीं होगा ऐसे ही सब भगवान हमारे नाश नहीं होने देंगे इसलिए प

स्कन्द पुराण महेश्वर खण्ड भाग -०१

पुराण न तो गलत होते हैं उसमें विश्लेषण कमि से मनुष्य अनर्थ कर लेता हैं इस लेख का उद्देश्य पुराण का सही विश्लेषण हैं अगर कोई धार्मिक व्यक्ति को हमारे कार्य अच्छा लगा हैं तो इसे शेर और लायक जरूर करें इस ब्लॉग को सब्सक्राइब करें धन्यवाद गणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ध्यानं नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ अर्थ : द्विपदा गायत्री महापुरुष महानारयण जो सब मनुष्य में आत्मारूपी नरोत्तम एवं‌ सरस्वती देवी जो बुद्धि वाक् एवं जिह्वासंधन करण रूपिणि मां सरस्वती का मायारूप का नारायण भगवान को नामस्कार करते हुए एवं उसके सरस्वती रूप की मायरुप तथा इस सकन्ध पुराण प्रोक्ता व्यास महार्षी को नमस्कार हैं। अथ पद्मपुराणे महेश्वरखण्डस्य प्रथमोध्याय यस्याज्ञाय जगतस्त्रष्टा विरिंचिः पलको हरिः । संहर्ता कालरूद्राख्यो नमस्तस्मै पिनाकिने ॥१॥ अर्थ:- सब देवताओं के मूल शक्तिस्वरूप पिनाकी धनुष धारि महारूद्र जिसके इच्छा रूपि बंधन के वषिभूत होकर विरिंचि (ब्रह्म) जिसके आज्ञा से सृष्टि करते हैं विष्णु उसके पालन करते हैं।तथा कालरुद्र संहार करते हैं ऐसे अद्भुत शाक्ति स्वरूप भगवान मह