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नास्तिक का पर्दफास क्या उपनिषदों में अश्लील हैं part १

नास्तिक का पर्दफास
सब नास्तिक अपने विज्ञान के किताबी ज्ञान से हर विषय में विज्ञान देखने की कोशिश करते हैं मुर्खों को ये नहीं पता हैं विज्ञान भी धर्म से ही निकाला हैं अगर यहां विज्ञान में भौतिक विज्ञान की बात हो रहा हैं तो धर्म ग्रंथों में पराभौतिक की बात करते हैं लेकिन समझने का प्रयास नहीं करते हैं। बस बीना पैरों शीरों वाली बात करते हैं । विज्ञान का निपटा अंधो को धर्म ग्रंथों विज्ञान नहीं दिखते आज बृहदारण्यक उपनिषद् में विज्ञान की बात करेंगे आप खुद निर्णय करें क्या ये सब विज्ञान की बात गलत हैं।
एवं वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपो अपामोषधय ओषधीनां पुष्पाणि पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः॥१॥

भाष्य: एषां वै भूतानां च भूतिप्राणिनां पृथिवी रसः प्रदानं यद तत्वादयो मनुष्य शरीरस्य मधुवत सारभूतं अथ तस्य पृथिव्या आपो रसः आपो वा रसः औषुधयः (सुख करं अन्नं) इत्यर्थः औषुधीनां रसःपुष्पं पुष्पाणां फलानि रसाणी तैः पुष्पाफलादिनां रसदैव पुरूषः तस्य पुरूषस्य रेतः वृर्द्धिभवति इत्यर्थः
अनुवादः इन सब भूतप्राणियों में पृथ्वी रस प्रदान होता हैं अर्थात पृथ्वी तत्त्व ही प्रदान होता हैं इसलिए पृथ्वी तत्त्व को सारभूत कहा हैं इस पृथ्वी का रस में जल प्रदान हैं क्यों जल से ही अन्न प्रदान करने वाली वृक्ष उत्पन्न होते हैं। इसलिए जल को पृथ्वी का प्रधान कहा गया है इसे तत्व रहित होने से पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं हो सकता हैं इस जल के सारभूत होने कारण औषधीय अर्थात विभिन्न प्रकार गुण वाले वृक्ष उत्पन्न होते हैं। इनके सारभूत तत्व पुष्पों या फलों में होते हैं इनके सेवन से पुरुष में वीर्य (रेत:) की वृद्धि होता हैं।

स ह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स स्त्रिय ससृजे ता सृष्ट्वाऽध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध उपासीत स एतं प्राञ्चं ग्रावाणमात्मन् एव समुदपारयत्तेनैनामभ्यसृजत्॥२॥
स ह प्रजापतिः ऐक्षते स स्त्रीयां सृजे तदतस्त कार्यान्तरें अध उपास्त इदमस्तु विषये उपास्युः वस्तु विषयकं चाके इत्यर्थः अथ मैथूनि कर्म व्याख्या कर्मणे वा अध गर्भदं विषये चक्त्व पुरूषः वंशोत्पति कुर्यात् इति भावः तदस्तं श्रेष्ठः पुरुषाणां ज्ञानं अनुकरणीयं कीं अनुकरणीयं तदसंद्रभे अहार विहार अभ्यास कर्माणि अनुकरणीयः इति ब्रूते।
अनुवाद: जब ब्रह्म अपने संकल्प से स्त्री तत्व की श्रृष्टि की तब उसको नीचे भाग से सृजन की। इसे नीचे उपसान की यहां उपास्युः वस्तु विषयकं इससे पता चलता हैं उसके समीप से उस तत्व ज्ञान होता हैं इस तत्व कोई अपरा प्रकृति नाम से जाना जाता हैं इसमें समस्त जीवन के पोषक तत्व भी होता हैं जब मनुष्य वंश उत्पत्ति केलिए मैथुन कर्म में आसक्त होते हैं उसमें भी ये ही तत्व होते हैं । जीस प्रकार हर सृष्टि के तत्व में रस होता हैं उससे मनुष्य का वृद्धि होता हैं। मनुष्य में पृथ्वी तत्त्व प्रधान हैं इस पृथ्वी समस्त तत्व जैसे अन्न आहार आदि विषयों पर ध्यान रखते हुए समुचित विहार आहार पद्धति को अपना कर श्रेष्ठ पुरुषों के ज्ञान को अपना कर ग्रहस्थ जीवन व्यथित कर ये समस्त जीवन भी यज्ञ हैं जीस प्रकार यज्ञ में अच्छे द्रव्य का आहुति दिया जाता हैं उस प्रकार वैश्वनर अग्नि जो जो अध भाग में स्थित हैं उसमें अन्न का आहुति दें अर्थात सुपच्य भोजन का सेवन करें
२.१ सृष्टि संबधितं वाजपेय यज्ञं वै कामः वा श्रेष्ठतमः कर्मणा विषयस्तं चाके मनुष्यः ग्रहस्थ धर्में कर्तव्य पराभवेत इत्यार्थः ग्रहस्थ धर्मणि वाजपेयसमान्य क्लृप्तिमाह -स एतं प्राञ्चं प्रकृष्टं गतियुक्तमात्मनो ग्रावाणं इदं प्रसंगे ग्रवास्तोत्रीय कर्मणा अर्थः ब्रूते सोमभिषवोपलस्थानीयं काठिन्य समान्यता प्रजनन विषये स्त्री विषयकं तस्यमिन्द्रयम् यदुत्पूरितवान् तेतैनां स्त्रियमभ्यसृजदमिसंसर्गं कृतवान् इत्यर्थः
अनुवादः जिस प्रकार वाजपेय यज्ञ हैं उसी प्रकार ग्रहस्थ जीवन हैं क्यों की जिस प्रकार ओखल से सोमलाता का रस निकाल कर यज्ञ करते हैं उसी ग्रहस्थ अपने पत्नी के गर्भ में वीर्य सेचन करता हैं यहां विषेश बात ये है की यहां शुक्र ही अग्नि समान प्रकाशित हैं इसलिए इसे अग्नि का रूप माना जाता हैं इसके विषय पर आयुर्वेद में बहुत अद्भुत रूप से वर्णण किया गया हैं ।
शुक्र धातु प्राय शुक्र धातु हर मनुष्य प्रतेक अंग में व्याप्त हैं अर्थात पुरा शरीर में व्याप्त होता हैं इसलिए पुरुष ओजवान तेजोवान धीवान होता हैं तथा शरीर को बल प्रदान करता हैं।
जैसे दुध में धी सर्व व्यापक रूप से विद्यमान होता हैं या ईख में गुड़ के सामन सर्व व्यापक रूप से विद्यमान होता हैं चरक संहिता के अनुसार इस शुक्र का कारण ही मनुष्य ज्ञानवान होता हैं शुक्र को बल युक्त धातु इसलिए माना गया हैं इसके रहते शरीर में कभी अनाशक्ती नहीं होता हैं
शुक्र धातु स्वरूप
स्फटिकामं द्रव्यं स्निग्धं मधुरं मधुगन्धिच् ।
शुक्रमिच्छन्ति केचित् तेलक्षौद्रनिमं तथा ॥ सश्रृत
स्फटिक के समान द्रव्य जिसमें स्निग्ध , मधुर एवं मधुवाली गंध गुण होता हैं उसे शुक्र कहा गया हैं कुछ विद्वान इसे मधु या तेल के समान गुण वाले मानते हैं।
शुक्र की उत्पत्ति के विषय में अयुर्वेद इस प्रकार दिया गया हैं
शुक्र धातु की उत्पत्ति मज्जा धातु के अणु भाग पर ध्तावग्नि की क्रिया के परमाणु स्वरूप होता हैं । शुक्र उत्पत्ति का कार्य दोनों वृषण में होता हैं। शुक्र सर्वर्शरीरस्थ होता हैं । जिस प्रकार ईख में रस दूध या दही में धृत या तिल में तेल के सदृश्य समान रूप में सर्वांश में संपुरित होता हैं । वैसे ही शुक्र भी मनुष्य के सर्वांग में व्याप्त होता हैं। यथा इसके कार्य के बारे में कथन करते हैं।
यथा पायसि सपस्तु गूढ़श्चेक्षौ रसो यथा
शरीरेषु तथा शुक्र नृणां विद्यद्भिषग्वरः। सु शा ४/२१
रस इक्षौ यथा दहिन सपस्तैलं तिले यथा सवर्त्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पशर्ने यथा चु चि ४/४३
इसके कथन करते हुए आयुर्वेद में उल्लेख किया गया हैं शुक्र धातु का कार्य कौनसा हैं
धैर्य - अर्थात सुख दुःख आदि से विचलित न होना , शूरता , निर्भरता,शरीर के बल उत्साह , पुष्टि, गर्भोत्पति के लिए बीज प्रदान करना, इन्द्रिय ,हर्ष , उत्तेजना प्रसन्नता आदि का कार्य वीर्य के द्वारा ही संभव हो सकता हैं ‌। इस प्रकार शुक्र धातु शरीर के साथ साथ मन केलिए भी महत्वपूर्ण हैं इन सबसे अतरिक्त मुख्य कार्य सन्तानोपत्ति हैं। वैसे ही स्त्री के गर्भ में भृण का पोषण होता हैं इसके कारण इसे सोम तत्व कहा गया हैं वीर्य और रज का मिलने से तथा अण्डाश्य में अण्डे के संसर्ग होने से सन्तान उत्पत्ति होती हैं यही बात यहां पर बात दिया गया हैं आगे कथन किया गया हैं जब षुरूष अपने इन्द्रयों से वीर्य सेचन करत हैं फिर गर्भ भृण को आवृत कर लेता हैं और सन्तान उत्पत्ति के समय विदारण कर लेती हैं। जिस लोम से कार्य स्पष्ट होते हैं वो लोम वैद्य के समान स्वेदन क्रिया से क्रिमी तथा विषणु इत्यादि अन्य नेष्ट तत्व का नाश होता हैं । इसके पवित्र गर्भधान विधी को यज्ञवत मानते इसलिए इन्हें अलंकार संकेत रूप में बताया गया है आहुति पात्र के समान गर्भ हैं तथा उसमें जो वीर्य आहुति दिया जिसे दिया जाता हैं वो पुरूष इन्द्रिया हैं जिस प्रकार स्त्री तत्व ( प्रकृति तत्व) में सृष्टि समय समस्त पीण्ड इत्यादि धारण होकर बाद में समय का चलेते विदरान किया जाता हैं वैसे ही वीर्य रज के संसर्ग से गर्भ में भृण आवृत्ति होकर समय के बाद उसके विदराण होकर सन्तान उत्पत्ति हो जाता हैं। अगर इस प्रकार क्रिया न होते तो सन्तान उत्पन्न नहीं होती। अगर ये सब विज्ञान में भी लिखा है तो उसमें नास्तिक को अश्लील देखना है उसमें भी वही वीर्य भृण इत्यादि विषयों पर चर्चा किया गया हैं यहां पुरुष एवं स्त्री तत्व के। बिना सृष्टि संभव नहीं हो सकता हैं
तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापति स मिथुनमुत्पादयते। रायिं च प्रणं चेत्येतौ बहुधा प्रजा: करिष्यत इति प्रश्नोपनिषद १/४
तब पिपलादा ने उनसे कहा कि सृष्टि परब्रह्मा प्रजापति
भगवान ने वास्तव में जीवों की इच्छा करके अर्थात सृष्टि कि इच्छा करके
उन्होंने तप को उत्पन्न किया अर्थात् अपने अंदर की बल को उत्पन्न किया उन्होंने उस तप अर्थात बल से
एक जोड़ी में रायि (पदार्थ) और जीवन शक्ति प्राण का उत्पादन किया, यह सोचकर कि ये दोनों मेरे लिए एकिगत होकर जीव बनाएंगे इससे यही पता चलता हैं सभी जीव प्राण और रायि का संमिलन हैं।
👉 प्राण शक्ति गुरुत्वाकर्षण गति या बल का एकिकृत तत्त्व है जिसे वेदांत में पुरूष तत्त्व भी कहा जाता है
👉 रायि प्रकृति की एकिकृत तत्त्व जो कई रूपों को पकड़ने और प्रदान करने या बदलने में सक्षम है जिसे वेदांत में स्त्री तत्त्व कहा जाता हैं। इसके आधार पर स्त्री के गर्भ में भृण का विकास इस प्रकृति के तत्व के कारण होता हैं यहां इसका कारण भी पुरुष तत्व हैं अगर गर्भधारणा पुरुष के कारण हो तो स्त्री के गर्भ में भृण का पोषण विकास विदारण होता हैं ऐही लोकिक सत्य हैं।

मुर्ख नास्तिक बुद्धि नष्ट हो चूका हैं जरा वो अपना विज्ञान के किताब खोल कर देख यही बता किया गया हैं।

हरि ॐ तत् सत् 🙏🏻

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