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क्या मनुस्मृति का ४/१२३/१२४

न तो ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं न तो गलत है आर्य समाजी इन्हें समझने के बुद्धि नहीं होता है यहां कर्मणा विशेष भाव को अभिव्यक्त किया गया हैं सीधे बात ज्ञान संबंधित मंत्र से हवन नहीं होता हैं पितृसुक्त वा उनके संबंधित मंत्रों से देव हवन वा उपासना नहीं होता हैं ।
सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदा चन ।
वेदस्याधीत्य वाप्यन्तं आरण्यकं अधीत्य च ४/१२३
सामवेद के शैली में कभी यजुर्वेद ऋग्वेद नहीं पढ़ना चाहिए क्यों कि यजुर्वेद गद्यात्मक हैं ऋग्वेद पद्यात्मक हैं इसलिए इनमें स्वर रहित हैं ।इसलिए स्वर लगायें बिना साम शैली उत्पन्न नहीं होता हैं आरण्यक उपनिषद पढ़कर हवन न करें इनमें ज्ञान बोधन होने से इनमें कर्म रहित हैं इसलिए इनसे अधययन से हवन नहीं होता हैं ।
ऋग्वेदो देवदैवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः ।
सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः ४/१२४
ऋग्वेद देवता संबंधित होता हैं यजुर्वेद मनुष्य संबंधित हैं सामवेद पितृसंबधित हैं इसलिए इनका ध्वनि शोक का व्यक्त करता हैं अतः इनका ध्वनि खेद को प्रकट करते हैं।
यहां पढ़ने की बात पढ़ने लिखने की नहीं हो रहा हैं अपितु कर्म बोधक में लिया गया हैं इसलिए यहां केवल उस उस कार्य अन्तर्गत ही उस उस वेद ग्रहण करते हैं अतः कर्माणा बोध प्रतिपादित होता हैं।

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