Skip to main content

आर्य समाजी के उत्तर क्या अद्वैत वेद विरुद्ध हैं?

आज कल कुछ आर्य समाजी लोग पुराण के प्रमाण से आदिशंकराचार्य जी के खण्डन करते हैं इनके कोई औकात नहीं है अद्वैत वेदांत के खण्डन करने केलिए इनके दयानंद जी ही परिछिन्न नास्तिक थे हम इनके प्रमाण से पहले आर्य समाजी और अद्वैत और अन्य हिन्दू मत बहुत से अन्तर है आर्य समाजी ब्राह्मण उपनिषद अरण्यक आदि को नहीं मानते पुराण को भी नहीं मानते इसके नीच परिछिन्न नास्तिक अग्निव्रत ब्राह्मण से झूठ बोलते हैं। इनके अग्निव्रत से पुछे जब तुम ब्राह्मण में विज्ञान मानते हैं तो तेरे चेले उसे क्यों अवैदिक कहते हैं  अग्निव्रत ठिक से ब्राह्मण के व्याख्या नहीं कर सकता विज्ञान क्या सिखायेगा
अब आते हैं प्रमाण पर न तो ये इसके सही भाष्य है इसके अर्थ गलत किया है वास्तव मायावद बौद्ध धर्म के एक परिछिन्न मत है महायान विरजयान और  शुन्यवाद इसमें प्रकृति कोई कारण माना है वास्तव में शंकराचार्य जी ने ब्रह्म कोई  मूल कारण माना है बौद्ध धर्म के लोग ब्रह्म को नहीं मानते थे इसको खण्डन करने हेतु शंकराचार्य जी अद्धैत मत अपना कर बौद्ध का खण्डन किया अद्वैत   मत अपना कर लोगों को धार्मिक बनाया वेद उपनिषद में इनके प्रमाण है इसके समीक्षा बात में करेंगे 
पद्म पुराण
  |
मायावाकिथिताम् देविकलौ ब्राह्मणां रुपीना ||  पा पुर ६.२३६. || |
बौद्ध (भ्रम) का सिद्धांत एक दुष्ट सिद्धांत (झूठे शास्त्र का उपदेश) है और इसे छद्म बौद्ध कहा जाता है। अर्थात बोद्ध से विपरीत हैं   मैं स्वयं, एक ब्राह्मण के रूप में, इसे खण्डन केलिए काली (आयु) में घोषित करूंगा।  (पद्म पुराण, उत्तारा-ख, ६.२३६.a)

वेदार्थं महा-शास्त्रम् मायावादम् अविदिकम्
मयैव कथिताम् देवि जगतम् नासकारनत ||  पा पुर ६.२३६.११ ||

मायावादा का यह शक्तिशाली सिद्धांत वेदों से मिलता जुलता है, लेकिन प्रकृति गैर मानकर कुछ वैदिक मत हो गया है।  हे देवी, मैं इस अद्वैत दर्शन का प्रचार संसार को नष्ट होने से बचाने केलिए करता हूं।  (पद्म पुराण ६.२३६.११)
अपारर्थमश्रुतिअवकीमनादर्शनालोकेगरहितम् |
  ||  पा पुर ६.२३६. || ||

यह पवित्र ग्रंथों के शब्दों की व्यर्थता को दर्शाता है इसलिए ये मयावाद और दुनिया में इसकी निंदा की जाती है।  इस (सिद्धांत) में केवल अपने कर्तव्यों का त्याग किया जाता है। (पद्म पुराण, उतारा-खसपा, 236.8)
  |
पराशिवजीवाप्राकृत्यमायुप्रतिपद्यते ||  पा पुर ६.२३६.९ ||

और यह उन लोगों द्वारा धार्मिकता कहा जाता है जो सभी कर्तव्यों से गिर गए हैं।  मैंने सर्वोच्च प्रभु और (व्यक्तिगत) आत्मा की पहचान को प्रतिपादित किया है।  (पद्म पुराण, उत्तारा-ख, २३६.९)

ब्रह्माणोन्यस्वाम्यमृपमनिर्गगुणमवक्षते माया |
सर्वस्यजगतोपात्रमोहनअर्थं मकलौयुगे ||  पा पुर ६.२३६.१० ||

  |
मायाविकल्पितमीदेविजगतानशाकरांत ||  पा पुर ६.२३६.११ ||

मैं ने इस ब्रह्मण के स्वभाव को गुणवत्ताहीन बताया।  हे देवी, मैंने स्वयं कल्पित किया है, संसार के विनाश होने के कारण, और इस कलियुग में संसार को बहकाने के कारण जो ये मायावाद बना हैं, महान सिद्धांत वेदों के उद्देश्य से मिलता-जुलता है, (लेकिन) मया सिद्धांत जो पुर्व में विष्णु से प्रतिपादन किया था के सिद्धांत के मया  कारण गैर-वैदिक (भ्रम)  (इसमें आज मौजूद हो गया हैं )। और माना जाता है  (पद्मपुराण 6.236.10-11)
अगर आपके अर्थ सही माने तो ये न तो शंकराचार्य जी के बारे में लिखा है क्यों कि अगर भगवान शिव को जगत के
नाश का कार्य दिया है तो आज हिन्दू धर्म नहीं होता अगर भगवान शिव सच में ये चाहत तो आगे मधवाचार्य रामानुजाचार्य के जन्म भी नहीं होता है शिव समस्त संसार के नाश हो कर चूका होता यहां ब्रह्मणरुपि न कि किसी संन्यासी के बारे में लिखा है न कि कोई नाम लिखा है अगर होगा तो कलियुग में कब होगा ये भी नहीं कहा है अब तक सारे रिति विद्यमान है अगर यहां कुछ नाम नहीं लिया है तो ये दयानन्द जी पर लागू क्यों नहीं होता हैं दयानन्द जी वास्थव में असत परिछिन्न चर्वाक या ईसाई या मुल्ले भी कहें तब भी सही होगा उसने मुर्ति पुजा  विरोध किया है श्राद्ध कर्म का विरोध किया है
जिस अद्वैत सिद्धान्त  में ब्रह्म को प्रतिपादित किया गया है वो मिथ्या नहीं है न जगत को मिथ्या माना जाता है वास्तव में हमें ये लग रहा है कि ये बौद्ध धर्म से जो अलग अलग मत बनायें थे उसके बारे मैं लिखा है ये अद्वैत दर्शन के लिए उत्तम नहीं माना जाता है अद्वैत न असत कार्य वाद न सत कार्य इसे ब्रह्मपरिणामवाद या अद्वैत वाद कहा हैं अद्वैत लोक कारण में ब्रह्म जीवात्मा एवं प्रकृति में कोई भेद नहीं मानते हैं इसलिए इसे ब्रह्म परिणाम वाद माना हैं इनसे पुछे आप लोग शंकराचार्य जी के गुरु गौड़पाद को शेषनाग के अवतार और गोविंद भगवत पाद को पंतजली के अवतार हैं क्या ये लोग परिछिन्न  बौद्ध थे क्या आपके शेषनाग असत कार्यवादी था लज्जा नहीं आती आपके भगवान के सिद्धांत को विरोध करते हुए अगर आपको वो अर्थ अदैत केलिए माना है तो दोष शेषनाग और पंतजली पर भी आयेगा उन्हे भी मायावादी मान लिजिए  या कहे सब भगवान अवैदिक थे और आपके निराकार परमात्मा और दयानन्द को छोड कर दयानन्द जन्म से नीच था ऐसे लोगों के चेले से नीचता का ही उम्मिद ही कर सकते हैं क्यों कि यथा गुरु तथा शिष्य जैसे गुरु वैसे चेले
क्यों जी कृष्ण विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर पुराण मानना है तो अवतार भी मान लो या
ये कौनसा नीति है भगवान शिव को निचा दिखाने केलिए वास्तव में यही आर्य समाजी ही मायावादी हैं या परिछिन्न चर्वाक कहे तब भी दोष नहीं है आर्य समाजी भगवान कृष्ण को महा पुरुष कहते हैं
क्या भगवान कृष्ण गीता में कहा है अन्य मत को बिना समझे कुछ भी कहो  वास्तव में सब आत्मा या ब्रह्म के निर्गुण रूप है अगर उसे गुण मानते हो तो वो गुण नैमितिक है अर्थात सत रूप वो खुद उत्पन्न करता हैं क्या भगवान ज्ञान वान नहीं जो उसे प्राप्त करेगा ? अगर स्वाभविक मानते हैं तो देह में फसा रहेगा तो भगवान शुद्ध अबद्ध मुक्त नहीं रहेगा।
पहले आर्य समाजी  को सिद्धांत सीखते है
माया: सदास्त विलक्षणो इति माया माया को सत असत के विलक्षण माना जाता है या फिर शश्वतॎः शुन्यस्य अर्थात जिस प्रकृति ब्रह्म तत्व के बिना कुछ ना हो या शुन्य हो मिथ्या को उपाधि संज्ञा के अनुसार माना है जैसे सोने खडा हैं तो खडा स्वयं सोना नहीं है ऐसा नहीं कह सकते अगर खडा नहीं होता है तो सोना के अभाव होता है खडा शुन्य अर्थात अभाव होगा तो सोना भी अभाव नहीं हो गया  क्यों कि वैशेषिक में कार्यद्भावः
अर्थात अगर कार्य के अभाव होने पर कारण अभाव नहीं होता है जैसे धुंवा हैं अग्नि के कारण होना स्वाभाविक है परन्तु धुंवा नहीं  होता तो अग्नि भी नहीं होगा ऐसा कहना ग़लत है इसलिए माया मिथ्या हैं तो इसके अर्थ उसके उपाधि मिथ्या हैं  अब इन्हें माया अर्निवचनिय कहने  पर समस्या है तो मया कोई द्रव्य नहीं है न कोई कारण है किसी भी प्रकार वस्तु उत्पन्न होने का उसे अभाव माना जाता है नाकि भाव अगर कारण के अभाव हो जाने पर कार्य उत्पन्न होता है ये संभव नहीं है इसे ब्रह्म का परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले कार्य ही माना हैं अर्थात ब्रह्म कोई उपादान और निमित्त कारण माना जाता है जैसे सब हिन्दू मानते हैं वेदांत सुत्र में कहा हैं ततु समन्वयात इसमें शंकराचार्य ब्रह्म ही सब कुछ का कारण है तो क्या ‌ब्रह्म शुन्य होगा कारण ही नहीं होगा तो कार्य कैसे होगा सृष्टि नहीं बनेंगे जैसे आप लोग आर्य समाजी प्रकृति कोई उपादान कारण मानते  हैं तो उसे भी निमित्त भी मान लो यहां छल कपट करने क्या जरुरत है बौद्ध धर्म आपके धर्म अन्तर बस उसमें भगवान एवं आत्म को घुसेड़ा है आप प्रकृति कोई प्रदान मान रहे हो आपके मत ही वास्तव में मायावाद हैं अब अविद्या क्या है
अविद्या भी माया के ही कार्य के उपाधि से माना हैं ये अध्यास से उत्पन्न होता हैं मैं पहले कहा हुं अगर ये प्रकृति नहीं बनती तो ये अविद्या नहीं होता तो इसे प्रकृति से विपरीत ज्ञान माना जाता हैं जैसे घटे स्थित आत्मा सोचता हैं ये शरीर में हुं में घटा हुं इत्यादि इसे ही अध्यास काह हैं ये चित्त के कारण होता है इसलिए इसे
चित्ताभास कहा हैं मन और इन्द्रियों के सनिकर्ष से आत्म के कार्य होता है आत्म को द्रष्ठा कहा है आत्मा में गुण मानते हैं तो और भोक्ता मानते हैं तो उसे भी नाशवान मानना पड़ेगा अब प्रमाण कि बात करते हैं  अद्वैत मायावद नहीं है
अद्वैत मायावद नहीं है, यह ब्रह्मवाद है।  इसे समझने के लिए हम अपने महावाक्य का विश्लेषण करेंगे

1. प्रज्ञानम् प्रजनाम् ब्रह्म

चेतना ब्रह्म है - ऋग्वेद, ऐतरेय उपनिषद ३.३

2. अहं ब्रह्मास्मि अहम् ब्रह्मास्मि

मैं ब्राह्मण हूँ - यजुर वेद, ब्राहाद्र्न्यका (बृहद-अरण्यक) उपनिषद - १.४.१०

3. तत्वमसि तत्त्वमसि - तत् तवम् असि

वह तू कला - अर्थात वह (ब्रह्म) तू है) - साम वेद, चंडोग्य उपनिषद - 6.8.7

4. अयमात्म ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म

यह आत्मान ब्रह्म है - अथर्ववेद, मांडूक्य उपनिषद 2)

इन महाअविकास में कहीं भी माया शब्द दिखाई नहीं देता है।  शब्द ब्रह्मण सभी महावाक्य में प्रकट होता है।  माया को महत्व नहीं दिया जाता है, लेकिन यह ब्रह्मण है जिसे महत्व दिया जाता है।  हम बाद में समझेंगे कि अद्वैत वेदांत ब्रह्मवाड़ा क्यों है। 
ये चार महावाक्य चार अलग-अलग उपनिषदों से हैं, जो ज्ञान-कांड हैं, जो चार अलग-अलग वेदों-एस से जुड़े हैं, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्रुति आत्मान और ब्रह्म की एकता सिखाती है।  इससे पहले अद्वैत को समझने वाली धारा में, हमने अध्ययन किया है कि माया की अवधारणा क्यों महत्वपूर्ण है, क्यों मया के बारे में बहुत (शुरुआत में) बात की जाती है और अंत में माया को उपेक्षित किया जाता है और गैर-दोहरी स्थिति में प्रवेश करने के लिए त्याग दिया जाता है।

सभी आचार्य (मध्वाचार्य सहित) इस बात से सहमत हैं कि दो वास्तविकताएँ हैं

1. स्वतंत्र वास्तविकता - इस्वर

2. आश्रित वास्तविकता - इस्वर का निर्माण

अद्वैत भी इन दोनों वास्तविकताओं को स्वीकार करता है।  स्वतंत्र वास्तविकता को पूर्ण वास्तविकता कहा जाता है और वास्तव में, यह एकमात्र ऐसा है जो मौजूद है।  आश्रित वास्तविकता वह है जो ईश्वर द्वारा बनाई गई है।  यह सापेक्ष वास्तविकता है।  अद्वैत भी जीव और दुनिया को वास्तविक मानता है, लेकिन केवल सम कारण सापेक्ष वास्तविकता पर।  पूर्ण रुप से, केवल ब्रह्म मौजूद है।  क्यों कि या यह निर्माण है, जीवभाव को निरविक्लप  समाधि में अनुभव नहीं किया जाता है, इसलिए
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि:
भगवद्गीता २;१६ के अनुसार वास्तविक और असत्य की परिभाषा का पालन करते हुए, हम ब्रह्मण के अलावा बाकी सभी चीजों को मिथ्या मानते हैं।  चीजों को नकारात्मक रुप से और माया के रुप में लिया जाता है, क्योंकि माया एक अवधारणा है।  माया पूर्ण दृष्टिकोण से मिथ्या है। केवल हम इसे  व्यावहारिक रुप से, इसे अहसास करते हैं, इसलिए यह पूरी तरह से गलत नहीं है।
आप एवेदमग्र आसुस्ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म ब्रह्म प्रजापतिं प्रजापतिर्देवा ते देवाः सत्यमेवोपासते तदेतत्त्र्यक्षर सत्यमिति स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं यमीत्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं तदेतदनृतमुभयतः सत्येन परिगृहीत सत्यभूयमेव भवति नैवंविद्वासमनृत हिनस्ति बृहदारण्यक ५:५:१
पहले आप अर्थात आपस तत्त्व था आप तत्त्व ने एक सत्य उतसृजत किया सत्य ब्रह्म हैं अर्थात आपस तत्त्व से ब्रह्म एवं आपस तत्त्व के हेतु ब्रह्म उत्पन्न हुआ मनु महाराज इनके वाक्य करते हुए ऐसा लिखा हैं ।
आपो नारा इति प्रोक्ता अपो वै नरसुनव:।*
*ता यदास्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। १/१०*
अर्थ: - आपस् तत्व का एक नाम नारा हैं क्योंकि वह नर अर्थात् ब्रह्म ब्रह्म से उत्पन्न हुआ हैं ब्रह्म कि ब्रह्मा रुप में उत्पत्ति इसी नार से हुई इसलिए परमात्मा का एक नाम नारायण हैं। ब्रह्म से प्रजापति उत्पन्न हुवा प्रजापति से देवता उत्पन्न हूयें ये देवता लोगों ने एक सत्य का सम्मान किया हैं ये सत्य तीन अक्षर का है स ती यम् इसके प्रथम और अन्तिम अक्षर हैं मध्य अक्षर असत्य है अर्थात ये  मृत्यु है ये प्रगतिशील हैं परन्तु दोनों तरफ सत्य से परिगृहीत होने के कारण ये एक तत्काल सत्य हैं लेकिन परम कालिक सत्य है जो ये सत्य को जानता हैं उसके अहित कभी नहीं होगा।
तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्मान्दवल्ली ७ अनुवाक असद् वा इदमग्र आसीत्‌। ततो वै सदजायत।तदात्मानं स्वयमकुरुत।तस्मात्* तत्सुकृतमुच्यत इति।यद्वै तत्सुकृतम्‌। रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्‌। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्‌।एष ह्येवानन्द याति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते। अथ सोऽभयं गतो भवति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते।थ तस्य भयं भवति। तत्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।तदप्येष श्लोको भवति॥
आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है; कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 'यही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब हमारी 'अन्तरात्मा' उस 'अदृश्य', 'अशरीरी' (अनात्म्य) अनिर्दशं (अनिरुक्त) एवं 'अनिलयन' 'ब्रह्म' में आश्रय ग्रहण करके दृढ़ रूप से 'उस' प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है। किन्तु जब हमारी 'अन्तरात्मा' स्वयं के लिए 'ब्रह्म ' में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं 'ब्रह्म' ही एक भय बन जाता है। जिसके विषय में 'श्रुति' का यह वचन है।
संक्षिप्त विवरण सब कुछ सृष्टि के मूल कारण परमात्मा है उसके बिना कुछ भी अस्थित्व में नहीं होता वह सब तत्त्व के मूल भूत शक्ति है उसके इच्छा बिना कुछ भी पायदा नहीं होता
अब गौड़पाद कारिका के समीक्षा करेंगे
स्वतो वा परतो वापि न कञ्चिद् वस्तु जायते।
सदसत् सदसद्वापि न किञ्चिद् वस्तु जायते।।
गौड भगवत पद कारिका ४/२२
अगर कुछ पैदा हुआ है तो ये
न तो एक अस्तित्व और न ही अनस्तित्व और न ही इन दोनों प्रकृतिओं में से कुछ पैदा हुआ है
इसमें गौड भगवत पाद जी कथन जिस प्रकार मूल कारण बिना प्रभाव संभव नहीं है उसि प्रकार भगवान के बिना सृष्टि संभव नहीं होता
इसलिए उत्पादन और निमित्त कारण दोनों होता है  आगे गौड़पाद जी ने पहले से ही लिखा है और हम भी पुष्टि किया है माया क्या है इसे सष्ठ करते हुए गौड़पाद जी लिखते हैं
अर्थमत्रं प्रभोः शततिरति शतौ निश्चिताः।
कालात्प्रसूतिनीतनानं मन्यन्ते कालचिन्तकः गौड़पाद कारिका १:८
जो लोग प्रकट वस्तुओं की वास्तविकता के बारे में आश्वस्त हैं, वे केवल भगवान की इच्छा के लिए अभिव्यक्ति का वर्णन करते हैं, जबकि जो लोग समय के बारे में बारे में बोलते हैं वो  समय को ही चीजों के निर्माता के रूप में मानते हैं।
ये बात नासदीय सुक्त भी पुष्टि करता हैं
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।

किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥

आदि में ना ही किसी (सत्)आस्तित्व था और ना ही (असत्) अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत एक परिपुर्ण अदृश्य निराकार निर्गुण र्निविकलप ब्रह्म  से हुई।
तब न हवा थी, ना आसमान था और 
समय भी नहीं था परब्रह्म के परे कुछ था, कुछ नहीं था यहां न अस्तित्व या अनस्तित्व था ये क्या मया नहीं है माया कोई ही कार्य रूप से अभाव माना है अब उसी माया को अनादि मानने वाले आप लोग ही मायवादी हैं
२. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥

चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था।
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे,
उस समय दिन और रात भी नहीं थे।
उस समय बस उसके शक्ति  सब में  व्याप्त था उसने अपने बल से प्रकृति को प्रकट किया था अब नित्य मानने से क्या दोष अगर प्रकृति पहले से ही था तो अपने आपको बना लेगी भगवान को मानने के जरूरत नहीं हैं अगर कोई व्यक्ति घटा बनया हम उसे कर्ता नहीं कह सकते क्यों यहां केवल परिवर्तन हुआ है आप उसे कर्ता घोषित नहीं कर सकते जब तक उसने मिट्टी को भी नहीं बनाया या था इसलिए सबकुछ प्रकृति से बन रहा है तो आपके मत ही परिछिन्न चर्वाक या बौद्ध धर्म हैं या ईसाई मुल्ले भी कहें तो कोई दोष नहीं है  आपके निराकार परमात्मा मेंस्त्री था क्या ? मनो जैसे प्रकृति लेकर बैठा था आपके घर बनाने केलिए आप प्रकृति जड़ किस आधारे पर मानते हैं वैशेषिक में लिखा हैं जब कारण स्वयं विद्यमान हो कार्य स्वयं होता है इसमें भगवान के जरूरत नहीं है  सदनित्यं द्रव्यत्कार्यं कारणं   समान्यविशेषवदति द्रव्य गुण कर्माण विशेषः वैशेषिक १:१:८ अनित्य या नित्यात पर समान रुप से द्रव्य गुण कार्य विद्यमान होता है अगर कहे तो अगर अग्नि हैं तो प्रकाश भी स्वभवतः  नित्य है क्यों कि  अग्नि के स्वभाविक गुण प्रकाश हैं  यहां आपके भगवान कहा सिद्ध हो रहा हैं अगर प्रकृति कोई नित्य मानते उसे ही निमित्त और उपादान मान लिजिए सब  में ग्रंथों में घफोड करने के क्या जरुरत हैं
अब देखिए  अद्वैत के गुरु परंपरा
नारायणं पद्मभुवं वशिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रं पराशरं च व्यासं शुकं गौडपादं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रं अथास्य शिष्यम् ।
श्री शंकराचार्यं अथास्य पद्मपादं च हस्तामलकं च शिष्यम् तं तोटकं वार्त्तिककारमन्यान् अस्मद् गुरून् सन्ततमानतोऽस्मि ॥
यहां भगवान नारायण पराशर वसिष्ठ आदि के नाम हैं ये भी माया वादी थे क्या ? लज्जा नहीं आती सबको अवैदिक बोलते हुए इसके प्रमाण से सिद्ध होता हैं अद्वैत वेद  विरुद्ध नहीं  है दयानन्द जी मत ही अवैदिक हैं इसके समीक्षा अलग से करेंगे

 

Comments

  1. चल भाग नमाज़ी

    ReplyDelete
  2. कोन गलत है और कोन सही है ये तुम जैसे अर्ध ज्ञानी के पोस्ट से जानने की जरूरत नही है ।। आर्य समाज पौराणिक , शंकराचार्य सभी को अपना मानता है लेकिन मैं तुझ जैसे पौराणिक कुत्ते से यह पूछना चाहता हु की तुम जैसे हरमखोर से तो आर्य समाज बोहोत अछा है जो धर्मांतरण को रोक रहे है और मूर्ति पूजा बलिप्रथा आदि पाखंडी का विरोध करते है ।। त्रैतवाद की जय हो 🕉️🕉️

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्...

महीधर और उवट सही भाष्य के विष्लेषन

यजुर्वेद २३/१९ महीधर और उवट कभी वेद के  ग़लत प्रचार नहीं कीये थे बिना  संस्कृत के ज्ञान के बिना अर्थ करना असंभव है आर्य समाजी एवं विधर्मी बिना संस्कृत ज्ञान गलत प्रचार इनके उद्देश्य मूर्ति पुजा खण्डन और हिन्दू धर्म को तोडना हैं इनके बात पर ध्यान न दें। देखिए सही भाष्य क्या हैं गणानां त्वा गणपतिं ँ हवामहे प्रियानां त्वा प्रियापतिं ँ हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम अहमाजानि गर्भधाम त्वाजासि गर्भधम् यजुर्वेदः 23/19 भाष्यः अश्व अग्निर्वा अश्वः (शत°ब्रा° ३:६:२५) शक्ति अभिमानी गतं जातवेदस ( इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यंवहतु परजानन ऋग्वेद १०/२६) परब्रह्मण तन्स्त्रीनां मध्ये अश्वो यत् ईश्वरो वा अश्वा( शत°ब्रा°२३:३:३:५) सः एवं प्रजापति रुपेण प्रजापतिः हवामहे प्रजा पालकः वै देवम् जातवेदसो अग्ने तान सर्वे पितृभ्यां मध्ये प्रथम यज्ञकार्यार्थम् गणनां गणनायकम् स गणपतिं सर्वे  देवेभ्यो मध्ये  आह्वायामि इति श्रुतेः। प्रियपतिम्  सः गणपतिं निधिनां (गणनां प्रियाणां निधिनामतिं का°श्रौ° २०:६:१४) सर्वाः पत्न्यः पान्नेजानहस्ता एव प्राणशोधनात् तद जातवेदो प्रतिबिम्बं...

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्ष...