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विवेक आर्य के पोल खोल

विवेक आर्य के पोल खोल
यहां आर्य जी के स्थति बिगड गये जब दयानंद जी को अद्वैत समझने में  बल नहीं रहे बेचारे आर्य समाजी क्या समझते?
बेचारों को स्कूल जाना उचित होगा
पहला माय क्या हैं ?  सदासद विलक्षणो माया
इसके पात चलता हैं असत (अनस्थित्व) या सत‌ ( अस्थित्व) का विलक्षण को माया कहते हैं ।
इसके विपरित प्रकृति के विपरित लक्षण से मूलतः लक्षण भिन्न भिन्न भास होता हैं जैसे घटा भिन्न भिन्न दिखाई देता है लेकिन उसके मुल स्वाभविक रुप मिट्टी तत्व से बाना हैं नैमित्तिक (बाहरिक ) रुप अलग अलग दिखाई देता हैं उसी प्रकार ब्रह्म का अलग-अलग रुप एक ही हैं लेकिन व्यवहार में अलग पहचान से पाता चलता हैं न्याय और वैशेषीक मैं आत्मा के इच्छा राग द्वेश प्रयत्न आदि को आत्मा के लक्षण माना जाता है न कि इसके गुण अगर इसको आत्मा के गुण मानने पर आत्म में दोष हो जाता है और आत्मा कभी अजर अमर नहीं होगा डाक्टर साहब आप क्या आत्मा को दवा दे सकते हैं?
आपको बुद्धि केलिए मेडिकल सैंस से ही उदाहरण देते हैं मान लिजिए अगर आपके पैसंट मैं कोई वैरस के कारण रोग के लक्षण उत्पन्न होता हैं तो क्या वैरस में भी लक्षण होता हैं ये केवल नैमित्तिक हैं आत्म के संयोग वश शरीर में पाया जाता हैं अविद्या क्या हैं?
यसमद प्रकृतेः लक्षणस्य विपरित ज्ञानं
जिस प्रकृति से मूलतः ज्ञान के विपरित ज्ञान को अविद्या कहा है जैसे अपने वैरस मैं ही रोग के लक्षण माना लिए
आपके समझ केलिए बीच रुप जो दिखाई नहीं देता है और जो लक्षण रुप दिख सकते हैं
देखिए
लक्षण - बीज
१) व्यक्त - अव्यक्त
२) क्षर - अक्षर
३) सत - असत
४) विदित -अविदित
इत्यादि
अब माया प्रकृति के गुण धर्म के गुण हैं ये बदलाव या परिवर्तन के अनुरुप है भगवान कृष्ण गीता में कहते "परिवर्तन संसार का नियम हैं" न कि ब्रह्म का नियम है इसको मिथ्या कहा हैं इसलिए पुर्व में जो वस्तु नहीं रहते वो वस्तु के अनेक या नया विलक्षण प्रकट हो जाते हैं कौनसा वस्तु
को आप सच मानोगे ? उदाहरण अगर तूफ़ान से मुंबई शहर द्विप  बना जायेगा तो उसके नक्शा अलग होगा तो कौनसा नक्शा को सही मानें? इसे माया कहा हैं
प्रतिबिंब वाद - यहां साकार  आकार कि बात नहीं दिमाग कि बात हो रहा हैं भांग खाने वाले दयानंद सरस्वती के चेले में बुद्धि नाम कि कोई चीज नहीं हैं अगर हम कहें आपको जो प्रतिबिंब अयाने में दिख रहा हैं वस्ताविक में आपके वो  व्यक्त रुप हैं वो आप नहीं मूलतः आपके अव्यक्त रुप हैं वो आत्मा को ब्रह्म कहा हैं न कि आपके शरीर को आपके कुछ मंत्र का खण्डन करते हैं देखिए
ये द्वैत प्रकरणं का श्लोक है
जब दयानंद जी के बुद्धि में इस मंत्र नहीं घुसते तो अर्थ के अनर्थ करने के क्या जरूरत बात ये हैं कि यहां भोक्ता अभोक्ता के विषय में कहा है न कि चेतना अचेतना के विषय में कहा हैं इसमें आपको त्रेतावाद दिखाई देता हैं धन्य हैं आपके बुद्धि अब यहां लग रहा होगा आत्म को भोक्ता क्यों कहा हैं वास्तव में यहां भोक्तापन आत्मा में घटित नहीं होता है पहले कहें चुके आत्मा को भोक्ता मानने से आत्मा को नाश होता हैं वैशेषिक और न्याय में आत्म को ज्ञान गुण से संबोधित किया हैं जो ज्ञानी उसे क्या भोग कर मारने के शोक होगा संख्या में आत्म को स्वभवतः बन्धित नहीं माना हैं एवं संख्या में अविद्या के आवरण को हाटा कर मोक्ष पा सकता हैं ये संख्या और अद्वैती दोनों मानते हैं
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ऋग्वेद म.1| सू.164| म.20||  मुण्डक ।।3.1.1।।
दो सुपर्णा ( पक्षी) एक समान नाम वाले सुन्दर गतिशील परस्पर दोस्तों जैसे प्रेम से  एक सुपर्णा आत्मा के प्रतीक हैं  दुसरे बुद्धि के प्रतीक हैं वे दोनों एक  ही समान शाखा वाले शरीर रुपि वृक्ष को आश्रय लेकर रहते हैं इनमें से एक पिप्पलं ( मीठे या कड़वे फल खाने में लगे रहते हैं) अर्थात अपने अच्छे और बुरे कर्म फलों को भोक्ता हैं दुसरे बस देखता रहता हैं अर्थात कर्म फलों को नहीं भोक्ता बस केवल मीठे या कडवे फल खाने वाले अर्थात कर्म फल  भोगने वालेअपने मित्र को देखता रहता हैं। यही प्रकाश करने वाला सुपर्ण मंत्र प्रतिपादित हैं
अद्वैत पक्ष में

क्योंकि ” पैङ्ग्यरहस्य ब्राह्मण ” में यह अर्थ लिखा है
तयोरर्न्यपिप्पलं स्वद्वत्ति इति सत्त्वमनश्नन्नन्योअभिचा
कशीत्यनश्नन्नन्योऽभिपश्यति ज्ञस्तावेतौ सत्त्वक्षेत्रत्राविति सत्व { बुद्धि } कर्म फलका भोक्ता है और द्रष्टा – क्षेत्रज्ञ { आत्मा } है यह श्रुत्यर्थ वेदान्त पक्ष को ही पुष्ट करता है , अतः
हमारा अर्थ श्रुति प्रतिपादित और समीचीन है ।
दयानंद जी के अर्थ गलत हैं इससे श्रृति विरोध हो जाता हैं देखिए जो सुपर्णा मंत्र प्रतिपादित हैं उसके आशय इस मंत्र में दिया हैं।
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळ्हि मातरम् ऋग्वेद १०:११४:४
अर्थ यह है कि एकः (एक सुपर्णा प्रणावायु उपादि गत एवं संपुर्णवत रुप से संपुर्ण हैं) सः (वह) समुद्रम् (समुद्र के समान विस्तृत अन्तरिक्ष को अविवेशा (प्रवेश करते हुवें) वह प्राण के उपादि गत परमात्मा इदं(इस) विश्वं भुवनम्) - सर्व लोक एवं लोकान्तर को विचष्टे प्रकाश करते हुए तम् (उस प्राणवृति देव को) पाकेन मनसा (परिपक्व मन के उपसान) से अन्तितः (अपने हृदय कमल में) अपश्यम् देखता हुवा जिस प्रकार से जो तम् (उस प्राण देवता को अध्ययन काल में) माता (माँ कहे सो) रेळ्हि अपने आप में विलीन कर लेती हैं एवं तूष्णीं भावकाल में वह प्राण देवता मातरम् (वाक्  को अपने) में विलीन कर लेता हैं।  एक तो सुपर्ण इस मंत्र से प्राणोपाधिक ईश्वर चेतन प्रतिपाद्य हैं। यहां जो लीनता कहीं हैं वह केवल उपाधि धर्म का व्यवहार हैं विशिष्ट में करा हैं और जो प्राण उपाधिक ईश्वर प्रतिपाद्य इस मंत्र में न होता तो सर्व जगत कि प्रकाशता का प्रमाण निघण्टु अध्याय ३खण्ड ११ में विचष्टे को पश्यति कर्मा कहा हैं इससे केवल जड़ प्राण प्रतिपादित नहीं हैं न तो  केवल जेतन भी प्रतिपादित हैं क्योंकि यहां वाक् में लीन होना कहा हैं  इसलिए इस मंत्र में भी प्राण के उपादि से अरोपित चित को प्रतिपादित किया हैं इसलिए मंत्र में भोक्ता रुप में बुद्धि को दर्शाया हैं अभोक्त रुप में आत्मा को दर्शाया हैं इसलिए इस मंत्र में बुद्धि और आत्मा की बात किया गया है न कि जीव और ईश्वर की इसलिए मेरे अर्थ समीचीन है दयानंद जी के अर्थ गलत हैं यहां चेतना भाव नहीं भोक्ता भाव को दर्शाया हैं यही बात बृहदारण्यकोपनिषदस्य में दिया गया हैं
तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः सहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियत एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते न कंचन स्वप्नं पश्यति॥ बृहदारण्यकोपनिष ४:३:१९
जैसे इस आकाश में सायन करने वालें जो ईश्वर की प्रतिक हैं बडे़ शरीर रूप के ये सुपर्णा  वह अधिक अधिक भ्रमण करने पर श्रम को प्राप्त होकर अपने पंख को विस्तार करते हुए अपने नीवास कि तरफ उडता हैं वैसा ही पुरुष यानि आत्मा बुद्धि उपाधिक अपने अन्तः स्थान जो हृदय कमल में स्थित हैं नीवास कि तरफ उडता हैं वहां सोता हुवा कुछ काम विषय कि इच्छा नहीं चाहता हैं एवं कुछ स्वप्न भी नहीं दिखता इस श्रृति में सुपर्णा के दृष्टांत से बुद्धि उपाधिक जीव सुपर्णवत् जग्रत स्वप्न सुषुप्ति में गमन करने वाले द्वितीया सुपर्णा के कर्मफल भोक्ता को प्रतिपादित किया गया है इसके भाव हैं कि आत्म जो उपधिगत हैं वो अपने बुद्धि से भोक्ता हैं ऐसा प्रतिपादन किया हैं सो यहां दो सुपर्णा इसके वाक्यान्तर में सुपर्णा के २ भेद दर्शया हैं प्राण और बुद्धि नामक उपाधि से अंकित किया गया हैं इसे वेदान्त में स्वीकार किया गाया हैं चेतन ब्रह्म स्वरुप को इस मंत्र में प्रतिपादित किया गया हैं
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
योऽसावदित्ये पुरूषः सोऽसावहम्
ॐ खं ब्रह्म यजुर्वेद ४०/१७
सत्य का सुख स्वर्णिम प्रकाश युक्त पात्र से आच्छादित हैं। आदित्य रूप में विद्यमान जो यह पुरुष हैं वह मैं ही हूं आकाश के सामान परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हैं। सोऽ(अ) सावहम् यहां पुर्वरूप और अयादि  सन्धि होता है  इसलिए इस तोड़ ने पर सोऽसावहमं = सो + असि + अहं होता है इससे पुरुष अर्थात आत्म ही ब्रह्म हैं ये सिद्धा होता हैं
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्‌ ॥ ||कठोपनिषद २:२:१२॥
समस्त प्राणियों के अन्तर् में स्थित, शान्त एवं सबको वश में रखने वाला एकमेव 'आत्मा' एक ही रूप को बहुविध रचता है; जो धीर पुरुष 'उस' का आत्मा में दर्पणवत् अनुदर्शन करते हैं उन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है, इससे इतर अन्य लोगों को नहीं होता हैं
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः श्वेताश्वतरोपनिषद् ४:७
समान वृक्ष पर एक 'पुरुष' (आस्वाद लेने में) निमग्न है और वह 'अनीश' (स्वयं का ईश नहीं) होने के कारण, मोहवशात् शोक करता है; किन्तु जब वह उस अन्य 'पुरुष' को देखता है तथा उससे सायुज्य स्थापित कर लेता है जो 'ईश' है, एवं वह इस समस्त जगत् में 'उसकी' महिमा को जान जाता है, तब वह शोकरहित हो जाता है। इसलिए यहां ऐसे अर्थ प्रतिपादित किया गया है पुरुष अपने से समान अन्य पुरुष को न जानकर सोचता हैं मैं सुखी हुं दुखी हुं अमुक नाम हुं मैं घटा हुं मैं शरीर हुं ऐसे समझकर दुख अनुभव करते हैं ऐसे उपाधि से विभूषित ये पुरूष अपने आप को जन लेता है वो ब्रह्म हो जाता हैं अर्थात अपने मैं ब्रह्म साक्षात्कार करने से अविद्या के आवरण हट जाता है तो वो ब्रह्म बन जाता है इससे से पता चलता है ये एक है इसमें और ब्रह्म में भेद नहीं केवल उपाधि से भेद सिद्ध होता हैं एवं मोह माया के कारण भेद प्रतित होता है
अविद्या कोई द्रव नहीं हैं जो पुरुष या ब्रह्म में विद्यमान हैं ये केवल प्रकृति संयोग से ही पुरुष में उत्पन्न होता है ये कारण के विपरित ज्ञान हैं इसे उपनिषद शास्त्रों में इस प्रकार दिया हैं
दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त
कारण, परस्पर सर्वथा भिन्न, विपरीत, अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली ये, एक 'अविद्या' नाम से जानी जाती है तथा दूसरी 'विद्या' । परन्तु, हे नचिकेता! मैं तुम्हें विद्या का सच्चा अभीप्सु मानता हूं जिसे बहुविध काम्य वस्तुऐं भी अपने प्रति स्पृही नहीं बना सके।
पतंजलि ने योग की बहुत ही सरल परिभाषा दी थी – योग चित्त वृत्ति निरोधः। इसका अर्थ है मन में आने वाले सभी विचार रुक जाने पर योग की स्थिति प्राप्त होती है। आर्य जी यहां मन को चंचल कहा हैं यहां मन में जो विचार इंद्रियों संयोग से ही मन में उत्पन्न होता हैं जो भौतिक विषय में रत होने के कारण जो दुखत्रयी जो उत्पन्न हो रहा हैं उसको निवृत्ति होना अवश्य हैं ये ध्यान और योग के 6 संपत
का पालन से सिद्ध होता हैं यहां मन के विचार के‌ वृत्ति के विरोध लिखा है विचार मन उत्पन्न होता है न कि आत्मा में यहां विचार घडित नहीं होता है इसलिए आत्म साक्षात्कार ही उपाया  बाताया हैं ये केवल आपने ब्रह्म स्वरूप जानने से होता हैं इससे पता चलता हैं अविद्या  आत्मा को नहीं घेरता इसलिए वास्तव में आत्मा कभी बंधित नहीं होता है इसलिए अविद्या कोई विशेष द्रव नहीं है केवल प्रकृति गत विलक्षण से प्रतित होने वाले विपरीत ज्ञान  हैं।
अविद्या ज्ञान के विपरित लक्षण है
पतंजलि ने योग की बहुत ही सरल परिभाषा दी थी – योग चित्त वृत्ति निरोधः। इसका अर्थ है मन में आने वाले सभी विचार रुक जाने पर योग की स्थिति प्राप्त होती है। आर्य जी यहां मन को चंचल कहा हैं यहां मन में जो विचार इंद्रियों संयोग से ही मन में उत्पन्न होता हैं जो भौतिक विषय में रत होने के कारण जो दुखत्रयी जो उत्पन्न हो रहा हैं उसको निवृत्ति होना अवश्य हैं ये ध्यान और योग के 6 संपत
का पालन से सिद्ध होता हैं यहां मन के विचार के‌ वृत्ति के विरोध लिखा है विचार मन उत्पन्न होता है न कि आत्मा में यहां विचार घडित नहीं होता है इसलिए आत्म साक्षात्कार ही उपाया  बाताया हैं ये केवल आपने ब्रह्म स्वरूप जानने से होता हैं इससे पता चलता हैं अविद्या  आत्मा को नहीं घेरता इसलिए वास्तव में आत्मा कभी बंधित नहीं होता है इसलिए अविद्या कोई विशेष द्रव नहीं है केवल प्रकृति गत विलक्षण से प्रतित होने वाले विपरीत ज्ञान  हैं।
पतंजलि ने योग की बहुत ही सरल परिभाषा दी थी – योग चित्त वृत्ति निरोधः। इसका अर्थ है मन में आने वाले सभी विचार रुक जाने पर योग की स्थिति प्राप्त होती है। आर्य जी यहां मन को चंचल कहा हैं यहां मन में जो विचार इंद्रियों संयोग से ही मन में उत्पन्न होता हैं जो भौतिक विषय में रत होने के कारण जो दुखत्रयी जो उत्पन्न हो रहा हैं उसको निवृत्ति होना अवश्य हैं ये ध्यान और योग के 6 संपत
का पालन से सिद्ध होता हैं यहां मन के विचार के‌ वृत्ति के विरोध लिखा है विचार मन उत्पन्न होता है न कि आत्मा में यहां विचार घडित नहीं होता है इसलिए आत्म साक्षात्कार ही उपाया  बाताया हैं ये केवल आपने ब्रह्म स्वरूप जानने से होता हैं इससे पता चलता हैं अविद्या  आत्मा को नहीं घेरता इसलिए वास्तव में आत्मा कभी बंधित नहीं होता है इसलिए अविद्या कोई विशेष द्रव नहीं है केवल प्रकृति गत विलक्षण से प्रतित होने वाले विपरीत ज्ञान  हैं।
अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्मा वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। माया की कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदांत में भी स्वीकार किया गया है। माया अचितद्य तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका संबंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माया व्यष्टि रूप में अविद्या है। शुक्ति में रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नामरूप से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गा है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान। अद्वैत वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं। विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से संबंध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपना विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है। साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है। भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल विज्ञान कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है: इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव ) पा सकते हैं इसके पुर्व अनेक जो प्रमाण दिया है उसके खण्डन अगले बल्ग में करेंगे
आपके दयानंद जी के किया हुआ अर्थ अनर्थ हैं उसके भाष्य कोई नहीं मानते ये देखिए दयानंद जी के अश्लील भाष्य लज्जा नहीं आती वैदिक कहते हुवे
पषूणं वनिष्ठुनान्धाहीन्स्थूलगुदाय सर्पान्गुदाभिर्विह्लुत
आन्त्रैरपो वस्तिना वृषणमाण्डाभ्यां वाजिनग्वगं शेपेन
प्रजाग्वं रेतसा चाषान् पित्तेन प्रदरान् पायुना
कृश्माञ्छकपिणडैः यजुर्वेद 25/7
हे मनुष्यों! तुम (वनिष्ठुना) मांगने से (पूषणम्) पुष्टि  करने वाले को (स्थूलगुदया) स्थूल गुदेन्द्रिय के साथ वर्त्तमान (अन्धाहीन्) अंधे संपो को (गुदाभिः) गुदेन्द्रिय के साथ वर्त्तमान विह्रुतः विशेष कुटिल सर्पान् (सर्पाेः र्ें को (आन्त्रैः) आंतों से (अपः) जलों को (वस्तिना) नाभि के नीचे के भाग से (वृषणम्) अण्डकोष को (आण्डाभ्याम्) आंडों से (वाजिनम्) घोड़ा को (शेपेन) लिङ्गं और (रेतसा) वीर्य से (प्रजाम्) सन्तान को पित्तेन पित्त से (चाषान्) भोजन को ( प्रदरान्) पेट के अङ्गों ( पायुना) गुदेन्द्रिय से और (शकपिण्डैः) शक्तियों से (कूश्मान) शिखावटों को निरन्तर लेओ

हे मनुष्यों तुम मांगने से पुष्टि करने वाले को स्थूल गुदेन्द्रिय के साथ वर्त्तमान विशेष कुटिल सर्पाें को आंतो से जल को नाभि के नीचे के भाग से अंडकोष को आंडों से घोडा को लिङ्ग और वीर्य से सन्तान को पित्त से भोजन को पेट अङ्गों को गुदेन्द्रिय से और शक्तियों से शिखावटों को निरन्तर लेओ।
आपके आर्य समाज के त्रेतावाद मान लेने से तत्तु समन्वयात् २:१:५ इस वेदांत दर्शन के सुत्र विरोध होता है आपके दयानंद जी मंत्र का अर्थ करना नहीं आता हैं आप मत वैदिक या अवैदिक कैसे समझोगे आपका आर्य समाजी अवैदिक ईसाई मुल्ले का ही एक ब्रष्ठ धर्म के रुप हैं देखिए मंत्र का सही अर्थ
वनिष्ठुना ( वनौषुदि को रखने वाले पुषनादि देवताओं को हमारे पाचन तन्त्र के संबंधित विविध अंगों के व्याधि को नाश करने हेतु कामना करे यथाहि पुषनं ( स्थुल आॅतों और आँतो में  स्थायि भूत पुषन देवता को घृत से हवन करे कि वो हमारे स्थूल आॅतो और आॅतो के संबंधित व्याधियों को दुर करे और हमे स्वस्थ रखे) अन्धाहीन् साँप और साँप के समान शक्ति में स्थायि भूत सर्प देवता  गुदा और स्थूलगुदा के व्याधियों को ऐसे ही दूर करे जैसे अन्धाहीन् साँप अपने बांबी से निकल जाते हैं और हमे स्वस्थ रखे विह्रत (स्थुलतन्त्र के अन्य मांसपेशियों मे स्थायि भूत विह्रत देवता हमारे इस भाग के मांसपेशियों के संबंधित व्यादियों को दूर करे और हमे स्वस्थ रखे) वस्तिना (जल संबंधित देवता केलिए वस्ति भाग (मुत्रकोष में स्थायि भूत) वस्तिना देवता हमारे वस्तियों के संबंधित व्याधियों को दुर करे और हमे स्वस्थ रखे वृषण-(वृषणमाण्डाभ्यां) अंडाकोष स्थायि भूत देवता हमारे अंडाकोष के व्याधि को दूर करे और हमे स्वस्थ रखे वाजिनं उपस्थ कि शक्ति देवता हमारे उपस्थ संबंधित व्याधियों को दुर करे और हमे स्वस्थ रखे प्रजा अभिमानी देवता प्रचापति देवता को पुत्रादि प्राप्ती करने हेतु  कामना करें कि वो
रेतसा ( हमारे शुक्र धातु के संबंधित व्यादियों को दुर करे और प्रजा कि रक्षा करे) (चाषान् पित्तेन) पित्त चाष देव केलिए हैं इसीलिए पित्त संबंधित व्याधियों को दुर करने और रक्षा करने इसे प्रसन्न करे प्रदारण पायुना (आॅतो के तृतीय भाग में स्थायि भूत प्रसरदेवता हमारे आॅते के तृतीय भाग के व्याधियों दूर करे और हमारे रक्षा करे कूश्माञ्छकपिणडैः (शकपिणडों मे स्थायि भूत कूश्म देवता को शकपिणडों के व्याधियों के मुक्ति थथा सुरक्षा हेतु कामना करें  इसका  भाव ये हैं कि विविध अंगों के  स्थायि भूत में स्थित अर्थात शक्ति स्वरुप में स्थित विविध देवताओं हमारे उस अंगों के व्याधियों को दुर करने और स्वास्थ्य रखने हेतु कमना करें । आगे अधिक मंत्र का भी खण्डन करेंगे ये बस शुरूआत हैं
हरि ॐ तत् सत्

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