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संख्या दर्शन १:१

संख्या दर्शन १:१
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरयन्तपुरूषार्थः
पदार्थ: अथ त्रिविध दुःखात्यन्त  निवृत्ति अन्त एवं पुरूषार्थः इति चेन
१)सूत्रार्थ :इस लोक में तीन प्रकार के दुःख आध्यामिक ,अधिभौतिक ,एवं अधिदैविक नाम से प्रसिद्ध हैं।

२) इन दुःखो कि अत्यन्त निवृत्ति अर्थात सदा केलिए तिरोभाव ही अत्यन्त पुरूषार्थ अर्थात मोक्ष हैं ।

३)इस संसार में धर्म ,अर्थ, काम एवं मोक्ष नाम से चार पुरूषार्थ प्रसिद्ध हैं इनमें से मोक्ष को ही श्रेष्ठतम कहा हैं। और इसको ही परम पुरुषार्थ कहा हैं।

१)भा.प्र  याज्ञवल्क्य स्मृति (३/१०६) की  अपरार्कटीका(शब्द निर्माण) में देवल के वचन त्रिविधं दुःखम् से भी दु:ख की त्रिविधता का समर्थन होता हैं।

२)अथ शब्द इति : सूत्र के 'अथ' शब्द का उच्चारण मंगल  केलिए होता हैं।

३) उच्चारण मात्रा से ही वह अथ शब्द कोई मंगलचारण कहा हैं ये बात संख्या के पंचम अध्याय के 'मंगलाचरण शिष्टाचारत्' (५;१) नामक सूत्र में कहा हैं । अब सुत्र के व्याख्य सुत्र से करेंगे

४) अथ शब्द का अर्थ अधिकार आरम्भ हैं ।

५) 'अथ ' शब्द के प्रश्न आनन्तर्य आदि अन्य अर्थ भी हैं ‌।

६) किन्तु उन अर्थों का यहां पुरूषार्थ के साथ कोई संबंध संभव नहीं हैं

७) यद्यपि ज्ञान के अनन्तर इस प्रकार आनन्तर्य अर्थ का संबंध संभव हो सकता हैं, तथापि उसका प्रतिपादन करना व्यर्थ होगा

८)यही बात सुत्र कार आगे बातया हैं ।

९) यही पर यदि अधिकार (प्रारम्भ) के अतरिक्त अन्य अर्थ तो शास्त्रारम्भ कि प्रतिज्ञा आदि का जो लाभ हो रहा हैं वहीं नहीं होगा ।

१०) अतः उपक्रोमोपसंहार में पुरूषार्थ का उल्लेख  होने से यहां 'अथ ' शब्द को‌ अधिकारार्थ मनना उचित होगा। तदुच्छित्तित्वः पुरूषार्थ: ऐसा उपसंहार होनेवाला है।
अधिकारी  कौन हैं?
१) यद्यपि अधिकार के अर्थ अधिकता से हुआ

२) इसका अर्थ निकलता हैं कि प्रधनातया आरंभ करना।

३) यद्यपि आरंभ साक्षात शास्त्र का ही होगा तथापि शास्त्र द्वारा उसके शास्त्र के अर्थ और उस शास्त्र के अर्थ का विचारों को समझना चाहिये ‌।

४) निष्कर्ष ये होता हैं कि साधनादि उपकारणों के सहित तथाकथित पुरूषार्थ का निरूपण करने के लिए हमने आरंभ किया हैं

५) यही पुरुषार्थ के अधिकृत  का अर्थ हैं।

६) इस प्रकार यह सुत्र वाक्य का अर्थ हुआ।
७) सत रज तम गुण के आश्रय भूत ये प्रकृति के गुण ही दुःख हैं इस दुःख निवृत्ति ही पुरुषार्थ हैं
८) पुरुष आत्मा का गुण ज्ञान हैं उसमें कभी भी अज्ञान  प्रकाशित नहीं हो सकता हैं इसलिए बुद्वे समेष्टी में पुरूष ज्ञान अपेक्षित हैं इसलिए प्रकृति से जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसके कारण मन एवं इन्द्रियाँ हैं इसलिए इनसे परे षुरूष को अनुभूति होती हैं । लेकिन स्वाभाव से वो बन्धित नहीं हैं इसलिए इस दुःख को मनो गत धर्म ही जनना हैं जैसे नीम पते में ईक्षु के रस को डालने से भी उसके अवशेष गुण के रूप में कडवापन शेष रूप में रहता ही हैं उसमें गुण के अभाव नहीं होता हैं । अगर अभाव मानने से उसके भी परिवर्तन धर्म हो जाता हैं अन्तन्त: उसके नाश ही मानना होगा ‌।

दुःख उत्पत्ति एवं वर्गीकरण

दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस्  उपसर्ग के साथ स्था धातु  से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं । इस दुःख को सुख का विपरित भाव भी माना जाता हैं  संख्या में दुःख तीन विभागों में वर्गिकरन किया गया हैं
१) अध्यात्मिक दुःख - शरीर और मनासिक रुप से होने वाले विपदाओं के कारण को आध्यामिक दुःख कहते इसके अन्तर्गत रोग, व्याधि आदि शारीरिक दुःख और क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं संख्या के अन्तर्गत अध्यात्मिक शब्द रूप के संबंध शरीर एवं मन के अध्यायन को अध्यामिक कहा हैं जैसे हमारे शरीर एवं मन कि विपदाओं केलिए अभिप्रेत किया गया है इस विपदाओं के उत्पादन कारण स्वयं मन या शरीर होता हैं अगर शरीर में पंच महाभूत के कमी के कारण त्रिदोष में जो विकृति जो उत्पन्न होता हैं उसे ही आध्यात्मिक दुःख कहा हैं ये उत्पन्न होने के कारण जैसे तत्व के मिथ्या ज्ञान या उसके अधिवश होना जैसे हैं
प्रश्न आध्यामिक दुःख के समाधान अगर औषुध आदि के सेवन आदि से होता हैं उससे पुनः ग्रहण व्यार्थ हैं?
उत्तर नहीं क्यों कि औषधि सेवन इनके उपशमन होता है किन्तु इनके उत्पन्न होने के निवृत्ति नहीं होता है ऐसा नहीं हैं कि औषधि की सेवन के कारण फिर पृथक दुःख की उत्पत्ति नहीं होता है संख्या में इन दुःखों को रजोगुणी बताया हैं अर्थात बार बार उत्पन्न होने वाले बताया हैं इसलिए इसके पुनः ग्रहण निरर्थक नहीं हैं

२) आधिभौतिक दुःख :- आधिभौतिक दुःख आधि शब्द के अधि के साथ ज्ञा धातु के प्रयोग से आधि शब्द का प्रयोग होता हैं जैसे अधिजानति इति सः आधि जिसके अर्थ पड़ता हैं कि अनुभव करने वाल जो होता हैं उसे आधि कहा हैं किसके भौतिक अर्थात पंच महाभूत के बना शरीर के अनुभव करने वाले को आधिभौतिक कहां इसके उत्पत्ति भूतस्य इयं भौतिकं करके होता हैं अर्थात भूत अर्थात लिंग शरीर जो पंच महाभूत से बना हैं उससे ही भौतिक शरीर कहा हैं आधिभौतिक दुःख वह हैं  जो स्थावर, जंगम (पशु पक्षी साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वार अर्थात पंच महाभूत के शरीर द्वारा  उत्पन्न होता है उसे आधिभौतिक कहा हैं इनके कारण आध्यात्मिक दुःख उत्पन्न होता हैं। उदाहरण केलिए जैसे सर्प आदिके काटने से दुःख उत्पन्न होता हैं।
३) आधिदैविक दुःख :- आधि दैविक अर्थात देवताओं के या प्रकृति शब्द से जो उत्पन्न हो जाते हैं जैसे आँधी, वर्षा, बज्रपात, शीत, ताप इत्यादि से जो दुःख उत्पन्न होता हैं उसे आधिदैविक कहा हैं। यहां दैविक शब्द देवता शक्ती संबंध से जो विपादा उत्पन्न होता हैं या प्रकृति के संयोग वश कोई प्राणघाती दुर्घटना उत्पन्न होता हैं उसे भी आधिदैविक कहते हैं।
संख्या दर्शन में दुःख को राजोगुणी मानते हैं इसे कार्य और चित्त का एक धर्म हम मानते हैं। और आत्मा को अलग रखा हैं।

पुनः सुत्रकार ने इसके व्याख्या करते हुए दुःख २ प्रकार वर्गीकरण किया गया हैं

१) एकान्तिक इस दुःख शरीर के कारण उत्पन्न होना मना हैं यहां जैसे बुख लगना वा त्रिदोषज वा पित्त कफ वात एवं रक्तज वा इनके संयोग से होता हैं।
इसे शरीर के अन्तर्ज  क्रिया वा कर्म के कारण होता हैं इसके उपशमन औषधि से तत्कला में होता हैं । फिर निवृत्ति के लिए तथागतित अच्छा विहार आहार शास्त्र उक्त अभ्यास जैसे योगाभ्यास , मंत्र जप भगवान के भक्ति से वा संख्या दर्शन निवृत्ति के विषय के जिज्ञासा से ही होता हैं। अपितु संख्या दर्शन में भगवान के सत्ता को अनुमान में रखा गया हैं फिर संख्या प्राणि मात्र के अभ्यूदय के मानते नि:श्रेयस अर्थात मोक्ष की इच्छा कारण में मानते हैं इसमें कोई इच्छा प्रत्यन आदि के अभिव्यक्त रूप में स्वीकार किया हैं तो इनमें कोई क्रिया करने में दोष नहीं हैं

२) अत्यान्तिक इस के कारण मन से उत्पन्न होने वाले राग इच्छा द्वेष आदि के अन्तर्गत होता हैं इसके निवृत्ति केवल ज्ञान से होता हैं इसके अधार पर योग शास्त्र में वर्णित किया गया हैं "योगोनाम चित्तवृत्ति निरोध: " चित् के विचारों को निरोधक करना ही योग का प्रगत प्रतिपादित वाक्य हैं। जब नियमित रूप से योग अभ्यास को चलते चित्त के विचार क्षिण होता हैं तब मन अपने से पारे तत्त्वों को समझ कर अपने में निःसंदेह मोक्ष का विचार करता हैं।

पुनः संख्या दर्शन में दुःख मनास एवं अमनास रूप में भेद किया गया हैं। जैसे मन पर न सोचते हुए दुःख विशाल समुद्र के लहरे के समान प्रभा शाली होता हैं। जैस समुद्र तट पर क्रिडा करने वाले के सोच के पारे उसको जल के लहरे बहाकर ले जाता हैं उसके रूप अमनसा कहा हैं मनसा दुःख का कारण स्वयं मन  हैं जो मन सोचता उसके बुद्धि समेष्ठी विचार न करते हुए मन दुःख का वशीभूत होता हैं। इस दोनों के अन्तर्गत भाव कोई संख्या दर्शन में मनसा अमनसा रूप में अभिव्यक्त किया गया हैं

त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को साख्य में अत्यंत पुरुषार्थ कहा है एवं शास्त्रजिज्ञासा का लश्य बताया है । प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर अर्थात महाभूत के शरीर की निवृत्ति के बिना चेतन या पुरुष मुक्ती नहीं पा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःख निवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेद ज्ञान द्वारा—ही संभव है । वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान द्वारा हो जाती है । योग की परिभाषा में दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है । व्याधि इत्यादि चित्तविक्षेपों के अतिरिक्त योग ने चित्त के राजस कार्य को दुःख कहा हे । किसी विषय से चित्त में जो खेद या कष्ट होता है वही दुःख हे । इसी दुःख सें द्वेष उत्पन्न होता है । जब किसी विषय से चित्त को दुःख होगा तब उससे द्वेष उत्पन्न होगा । योग परिणाम, ताप और संस्कार तीन प्रकार के दुःख मानकर सब वस्तुओं को दुःखमय कहना है । यही सुत्र के अभिप्राय हैं।

देवल का कथन हैं कि "पुरूषार्थेपदेशः द्विविधः पुरूषार्थः तत्र जरमरणदुःखयोरत्यन्ताभवोऽपवर्गः" एवं श्रृति भी कह रहा हैं दुःखेन अत्यन्त विमुक्तंश्वरति दर्शनों का भी कथन हैं तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः (न्याय सु १।१।२२ ) पुनः कुछ कहते हैं कि निःश्रेयसं पुनः दुःख निवृत्तिः सा दुःखप्रागभाव इति।( उपस्कार १।१।४) योगवार्तिक कारने (२/१३ ) इस सुत्र में उदृध किया हैं । की एव दु:खात्यन्त निवृत्तिः कहा हैं। इन सारे वचन से सिद्ध दुःख निवृत्ति कोई पुरूषार्थ कहा हैं इसे ये निष्कर्ष निकाल जाती हैं। परम पुरुषार्थ मोक्ष अधिकतम भौतिक विज्ञान में न फसते हुए अपने अभ्युदय तथा समस्त प्राणियों के अभ्युदय के अन्तर्गत जितना धर्म अर्थ काम की प्राप्ती करते हुए निश्रेयस करना हैं यही संख्या परिष्ट विषय हैं।
तत्र स्थुलमिति : वर्तमान काल में स्थित दुःख तो द्वितीय क्षण में नष्ट हो जायगा अतः उसके नाश केलिए ज्ञान कि अपेक्षा नहीं हैं। और अतीत (भूतकाल) दुःख जो हैं वो पहले ही विनष्ट हो चुका हैं अतः इसके विनाशार्थ भी कोई साधना अपेक्षित नहीं हैं। शेष रहा अनागतावस्थ (भविष्यत् काल की ) सुक्ष्म दुःख उसी का निवृत्ति कोई प्रकृति में पुरुषार्थ कहा गया हैं। इसके अभिप्राय में योगसूत्रकार कहते हैं की हेयं दुःखमनागतम् ( योग सुत्र २/१३ ) इस सुत्र में बताया गया हैं की इस शास्त्र में निवृत्ति शब्द का अर्थ नाश नहीं हैं । अपितु अतीत अवस्था हैं क्यों कि ध्वंस का अर्थात प्रध्वंसस्वभाव अतीत अवस्था स्वरूप हैं । एवं इसके प्रगभाव अनागतावस्था स्वरुप होता हैं।सत कार्यादि मतों में किसी वस्तु या द्रव्य का अभाव नही मान सकते हैं। क्यों कि द्रव्य कभी भी कारण कार्य से विहिन नहीं होता हैं इसलिए इसे मनो गत धर्म कहा गया हैं।
शंका
मन में एक शंका उत्पन्न हो सकता हैं भविष्यत् काल का दुःख जो कभी भी वर्तमान में नहीं हैं।
उसके भविष्यत काल के अस्थित्व में भी क्या प्रमाण हैं? अतः किसी प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण जिस प्रकार आकाश पुष्प (अर्थात जिस प्रकार आकाश तत्व के गुणों में अनेक प्रकार के लक्षणों से या विलक्षण से संपन्न  गुण अश्रयभूत होता हैं उसी प्रकार भविष्य काल की दु:ख निवृत्ति कहना उचित नहीं हैं।  क्यों कि गुण के अन्त परिस्थिति को देखकर कदापि निवृत्ति संभव नहीं हो सकता हैं न इन्हें पुरुषार्थ मन सकते हैं न इसके अकाश के निराकार गुण का अनुमान संभव नहीं हैं।क्यों कि जब अकाशादि भूत अन्तन्तः जब अपने आप में विलन होकर एक रस हो जाता हैं ।
समाधान
मैवमिति :- दाहादि शक्ति से रहित अग्नि , कही भी देखने में नहीं आता हैं। अतः पातञ्जल योग दर्शन में यह सिद्ध  किया गया हैं कि सर्वत्र स्व स्व कार्य जनन शक्ति यावद् द्रव्यस्थायिनी होती हैं । अपना कार्य करने का सामर्थ्य   व्यावद्  द्रव्यस्थायी रहता हैं वह शक्ति (सामर्थ्य ) अनागतावस्थतत्तत्कार्यरूप होती हैं । इस कोई उत्पादनकारणस्वरूप योग्यता भी कहते हैं। इसलिए जब तक चित्त (मन) की सत्ता हैं तभी तक अनागत दुःख की सत्ता के रहने का अनुमान किया जाता हैं।उस अनागत दुःख की निवृत्ति को पुरूषार्थ कहा गया हैं। अगर प्रकृति के मूल सत्ता में सत रज तमो गुण के अधिगत में जो शुद्ध एवं संकिर्ण रूप होता हैं उससे साम्यावस्था  तब महत् तत्व से सजातीय द्रव्य एवं विजातीय द्रव्य का प्रवाह होते हैं इससे कारण विजातीय द्रव्य का प्रवाह से साम्यवास्थ तथा मिश्रण अवस्था उत्पन्न होता हैं एवं विजातीय द्रव्य का प्रवाह से वैषम्यावस्था उत्पन्न होता हैं और संख्या में मानते हैं अध्यास का कारण बुद्धि हैं क्यों कि इनमें सजातीय वा विजातीय दोनों द्रव्य पाया जाता हैं। वहीं से अविद्य  के परावश के कारण दुःख उत्पत्ति होता हैं जब आत्मा एवं प्रकृति के भेद का ज्ञान नहीं होता हैं जब तक पुरूष में पुरूषार्थ सिद्ध नहीं होता हैं इसके कारण उस दुःख की निवृत्ति कोई परम पुरूषार्थ आर्थत मोक्ष कहा गया हैं।
जीवन्मुक्तिदशायामिति । जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति कि अवस्था में अन्तर इतना ही हैं कि जीवनमुक्ति की अवस्था में प्रारब्ध  कर्मफल के अतिरिक्त अनागतावस्था दुःख जिनको बीज शब्द
से कहा जाता हैं। उनका (दाह) नाश होता हैं, और विदेह कैवल्य (मुक्ति) कि अवस्था में चित्त के सहित उनका( शरीर) विनाश हो जाता हैं ।बीजदाह से तत्पार्य ये हुआ कि अविद्यात्मक सहकारी कारण का केवल उच्छेद ( नाश हो जाना) क्यों कि ज्ञान से तो केवल अविद्या का नाश होता हैं।यह सर्वत्र लोकानुभव से सिद्ध हैं। अतएव विदेहमुक्ति में चित्त के सहित ही दुःख की नाश माना जाता हैं। क्योंकि ज्ञान को दुःख का साक्षात नाशक मानने में कोई प्रमाण नहीं है।
प्रशन
१)ननु तथापिति :- दुःख कोई पुरुषार्थ कहना कैसे संभव हैं? क्यों कि दुःख को चित्त का धर्म हैं ।तब उस दुःख की निवृत्ति भी नहीं होगी , जहां उसकी स्थिति हो । स्थिति कहीं हो और निवृत्ति कहीं हो यह कैसा संभव हैं।? अतः उस दुःख की निवृत्ति उस षुरूष में होना संभव नहीं हैं यदि दुःख निवृत्ति का शब्द अर्थ दुःख का अनुत्पाद (अनुत्पति) भी कहें तब भी कोई लाभ नहीं होगा क्यों कि वह दुःख उत्पत्ति तो पुरुष में नित्य सिद्ध हैं और वह (दुःख) तो चित्ता का धर्म हैं।
२) यह जो किसीका कहना हैं कि कण्ठ में सर्वण मणि के समान षुरुष में दुःख उत्पत्ति नित्य सिद्ध रहने पर भी नित्य सिद्ध न होने का भ्रम हो सकता हैं। अतः दुःख निवृत्ति कोई पुरुषार्थ कहा जा सकता हैं।
उत्तर : १तन्नेति किन्तु यह ठीक नहीं है , उपर्युक्त उत्तर दिये जाने पर भी 'पुरुष' निर्दुःख (दुःख शुन्य हैं) इस प्रकार श्रवण तथा उसके मनन करने के पश्चात दुःख के हानार्थ निदिध्यासन में प्रवृत्ति हो नहीं पायगी । क्यों कि अनेक कष्ट साध्य उपया में प्रवृत्ति तभी हो पाती हैं।  जब फल का पूर्ण निश्चित हो। प्रकृति में श्रवण और मनन के द्वारा सिद्धाता का ज्ञान हो ऐसे जाने से फल की असिद्धि का निश्चय अप्रमाण्य ज्ञान से अनास्कन्दित नहीं हैं।
२) किञ्चेति दुसरी बात यह हैं कि कादचित भ्रम आदि से दुःख भाव पुरुष की इच्छा का विषय बन भी जाय किन्तु मोहविनाशिक श्रृति " तरति शोकमात्मवित् (छा॰उ ७/१/३) विद्वान हर्ष शोकौ जहति (क॰ उ १/२/१२) इन श्रृतियों में  सिद्ध को फल स्वरुप में कैसे बात सकते हैं ।

इस पर उत्तर देते हैं - न नित्यशुद्धबुद्ध मुक्त-स्वभावस्य तद्योगस्तद्योगादृते (सां सू १/१६ )इस हेतु - हेतु के अवधारक सुत्र से ही उक्त पूर्वपक्ष का समाधान करेंगे। तथाहि - षुरूष में भी सुख - दुःख प्रतिबिंब के रूप में रहते हैं । यदि इन्हें स्वीकार न किया जाये तो उन दोनों (सुःख दुःख) का भोग्यत्व उत्पन्न नहीं हो सकेगा। अर्थात सुख दुःख में भोग्यता नहीं बन सकेगा । इस सुख दुःख का ग्रहण कोई भोग कहते हैं। और तदाकारत सुख दुःखकारत को ग्रहण कहते हैं।उस तदाकारातरुप ग्रहण का कुटस्थ चितशक्ति में बुद्धि के अर्थाकर कि तरह परिणत होना संभव नहीं हैं । इसलिए अगत्य  प्रतिबिंब रुप में रहने में ही उसके पार्यवासन होता हैं।
३) अयमेवेति : इसी बुद्धि बुद्धि वृत्ति बिम्ब को योगसुत्र में ' वृत्ति -साख्प्यमितरत्र के द्वारा कहा गया हैं । और सत्त्वे तु तप्यमाने तदाकारानुरोधत् षुरूषोऽयनुतप्यत इव दृश्यते इति योगभाष्ये - इस योग भाष्य में भी तदाकारानुरोध शब्द से तापादिदुःख का स्वरूप विशेष रूप से बताया गया हैं। इसी कारण सुत्र कार ने षुरूष का बुद्धिवृत्ति से संबंध होने पर कुसुमवच्च मणिः (संख्या सूत्र २/३५) नाम के इस सुत्र के द्वारा स्फटिक के दृष्टान्त को सुत्रकार बताया हैं।
४) वेदान्तिभिरपीति : वेदान्तियों ने भी चेतन में दृश्य के भान को अध्यास के रूप में बताया हैं ।वह अध्यास प्रतिबंब के बिना  हो ही नहीं सकता । ज्ञानमात्र को यदि अध्यास कहें तो - अध्यास से ज्ञान और ज्ञान ही अध्यास ऐसा प्रतिपादित होगा इससे आत्माश्रय के दोष होगा इसि कारण योगवाशिषठा में भी कहा हैं
तस्मिँश्विदृर्पणे स्फारे समस्ता वस्तुदृष्टयः
इमास्ताः प्रतिबिंबन्ति सरसीव तटद्रुमाः।
९१/१२३
तस्मिँश्विदिति : चिद्रूपि निर्मल दर्पण में ये संपुर्ण वस्तुवृत्तियां सरोवर में तटवर्ती वृक्षों के समान प्रतिबिंब होती हैं।

५) अत्र हीति - यहां पर दृष्टि शब्द सामन - युक्ति के बल पर बुद्धि वृत्ति सामान्य परिक्षा हैं  तत्तद् उपाधियों में चित्त का बिंबाकार परिणाम ही प्रतिबिंब हैं। इसलिए षुरूष में प्रतिबिंब से जो दुःख संबंध हैं , वहीं भोग नाम से प्रसिद्ध हैं। अतः उसी रूप से उसको (निवृत्ति को) पुरूषार्थ कहना उचित हैं।अतएव यह प्रार्थना (इच्छा) दुःखं मा भुञ्जीय मैं दुःख न भोगना ही हैं किन्तु आपमार साधारण दिखाई देती हैं । उस दुःखभोग कि निवृत्ति कि पुरुषार्थ कीसी अन्य का अंग (शेष) होकर नहीं रह सकती । इसलिए वहीं स्वयं पुरूषार्थ हैं। कण्टकादिनिवृत्ति की समान दुःख निवृत्ति भी उसके लियें होने से वह स्वयं पुरूषार्थ नहीं हैं। उसी प्रकार सुख भी स्वयं पुरूषार्थ नहीं हैं । किन्तु उसका भोग ही स्वयं पुरूषार्थ हैं।

६) तदिदमिति : इस दुःख -भोग निवृत्ति की पुरूषार्थता को व्यासदेव ने अपने योग्यभाष्य में बताया हैं - तस्मिन् निवृत्ते पुरूषः पुनरिदं तापत्रयं न भुङ्क्ते इति (यो सू व्या भा ३/५० - उसके निवृत्ति होने पर षुरूष इस तापत्रय को नहीं भोगता हैं।इस लिये श्रृति में भी दुःख निवृत्ति की पुरुषार्थता जो बताई गई हैं। उसे विषयता -संबंध से ही समझना चाहिये । इस विषय को हमने योगवार्तिक  में बड़े ऊहामोह के साथ बताया हैं

७) तदेवमिति : इस प्रकार इस प्रथम सूत्र से दो व्यूहों को संक्षेप में बताया गया हैं। इन दोनों का सविस्तार वर्णन आगे होगा

८) अतः परमिति । इसके अनन्तर आगे बातये जानेवाले होनीपाय व्यूह की अकांक्षा के लिये  तदतिरिक्त की  होनीपायता का खण्डन कतिपय सूत्रों से कर रहे हैं

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