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आर्य समाजी दयानंद सरस्वती के अद्भुत विचार

आज कल आर्य समाज को हर हिन्दू मत को झूठे आरोपित करने के बड़ा शौक हो गया भारत के इतिहास तोड़ मरोड़ कर बतना और आर्य समाजी आदि शंकराचार्य मध्वाचार्य एवं रामानुजाचार्य के बारे अप‌ शब्द बोलते हैं हिन्दू जैन बौद्ध धर्म के बीच में फुट डालने हेतु ये तक बोल दिया हैं कि आदि शंकराचार्य को जैन लोगों ने जहर दिया था इसके कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन आर्य समाज ऐसा इसलिए करते हैं कि दयानन्द ने इन्हें जिहाद भी सीखया हैं दयानन्द अपने सत्यार्थ प्रकाश में इस नीचे दिया हुआ मनुस्मृति के श्लोक में जिहाद के अर्थ किया जो वास्तव में नहीं लिखा हैं जो वेद में मानव धर्म सीखते हैं ऐसा वैदिक धर्म में जिहाद घुसाने केलिए आर्य समाजी को शर्म आना चाहिए आज हम इसके खण्डन करेंगे सच तो ये हैं न तो इसमें जिहाद हैं न तो ऐसा अर्थ होता हैं
रथाश्वं हस्तिनं छात्रं धनं धान्यं पशूस्त्रियः
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति  तस्य तत्
मनुस्मृतिः ७/९६
दयानन्दास्तु :  इस व्यावस्था को कभी न तोड़ें जो-जो लड़ाई  में जिस जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े,हाथी ,छत्र ,धन धान्य गाय आदि पशु और स्त्रियाँ तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तैल आदि के कुप्ये (coins) जीते हों वही उस उस का ग्रहण करों
इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं।

भाष्य: योधैर्जितम् रथं  अश्वं हस्तिनं छात्रं धनं धान्यं और गो अन्य पशूम्  वा स्त्रियः एवं च सर्वाणि द्रव्याणि वस्त्रादीनि लोहादि धातुनाम् गुडं वा लवनं वा सर्वं अपि च यज्जयति तदेवं समर्पणीयं इति चेन् एना अपि यो पृथग्जित्वा  सततं गृहमानयति तस्यैव तद्भवति न तु राज्ञः कर्तव्यम् इति अतः  राज्ञः एवं समर्पणीयं इत्येवं अर्थं परि गणनीयं
भावार्थ :- युद्ध के संदर्भ में जीते हुवे रथ अश्व हाथी छात्र गव्यादि पशु स्त्री तथा लोहे आदि धातु को भी राजा समर्पित करें क्यों कि जीते हुवे वस्तु उसके नहीं होते जो लूठ करने हेतु पृथक जीत कर सब माल को अपने घर ले जाता उसके वो वस्तु होता हैं ऐसा करना र राजा के धर्म नहीं हैं इसलिए इसके अर्थ संर्पन कि भाव से लेना योग्य माना हैं। इसलिए राज जीते हुए सब कुछ त्याग कर हारे हुए राज्य के प्रजा तथा योध्या को यथावत वापस करें।
मनुस्मृति
अब  ऐसा जिहादियों के मानसिकता वाले आर्य समाजी को विधर्मिक आर्य समाज को आंतकवादी माने या विधर्मी खुद निर्णय करें धन्यवाद

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