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नारायण सुक्त का सार

नारायणसूक्तम्

ॐ स॒ह ना॑ववतु। स॒ह नौ॑ भुनक्तु। स॒ह वी॒र्यं॑ करवावहै ।
ते॒ज॒स्विना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै᳚ ॥

ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥
परम आत्मान्!  कृपया हम दोनों (शिक्षक और शिष्य) एक साथ रक्षा करें
हमें एक साथ पोषन करें।  हमें जो ज्ञान मिली है, वह महिमा और परिश्रम से युक्त होकर। हमारे बीच कभी  विरोधी भवना ना हो तीनों दुःख अध्यात्मिक अधिभौतिक आधिदैविक दुःखों से हम शांन्ति मिलें ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

१)ॐ ॥ स॒ह॒स्र॒शीर्॑षं दे॒वं॒ वि॒श्वाक्षं॑ वि॒श्वश॑म्भुवं ।
विश्वं॑ ना॒राय॑णं दे॒व॒म॒क्षरं॑ पर॒मं प॒दम् ।

सहस्र शिर से युक्त अर्थात सब दिशाओं में देखते हुए परम पुरुष नारायण परमात्मा समस्त विश्व को प्रकाश देने वाला समस्त प्राणियों यो के द्रष्टा होते हुए विश्वाक्ष हैं अर्थात समस्त जगत के जीवों को ज्ञान देने वाला भगवान नारायण परमात्मा ही  समस्त देवताओं को एवं समस्त विश्व को बनाने वाला भगवान नारायण अविनाशी तथा नित्य रहने वाले नारायण परमात्मा इस विश्व में स्थित हैं। अतः इस जगत के प्राण रक्षा भगवान ही करता हैं ये जो पुरुष नारायण परमात्मा हैं वो अन्त सर्व व्यापक होते हुए भगवान नारायण ही निरपेक्ष हैं नारायण पुरुष से ही समस्त पाप नष्ट होते हैं।

२)वि॒श्वतः॒ पर॑मान्नि॒त्यं॒ वि॒श्वं ना॑राय॒णꣳ ह॑रिम् ।
विश्व॑मे॒वेदं पुरु॑ष॒स्तद्वि॒श्वमुप॑जीवति ।

ये जगत जो हैं वो वास्तव में पुरूष ही नित्य हैं कभी इस पुरुष का अभाव नहीं होता हैं ‌। इस जगत में जीने या उत्पन्न होने जो भी जीव वो नारायण परमात्मा का ही अंश हैं नारायण परमात्मा अकाय होते हुए भी शरीरधारी जीवों आत्मा में भी अभिव्यक्त हैं वहीं जन्म अवतार लेकर भक्तों के कष्ठ नाश‌ करने के लिए समय-समय पर अवतार लेते हैं।
३)पतिं॒ विश्व॑स्या॒त्मेश्व॑र॒ꣳ॒ शाश्व॑तꣳ शि॒वम॑च्युतम् ।
ना॒राय॒णं म॑हाज्ञे॒यं॒ वि॒श्वात्मा॑नं प॒राय॑णम् ।

ये जो पुरुष नारायण परमात्मा हैं वहीं ब्रह्माण्ड के पालन एवं रक्षा करते हैं।ये पुरुष अपने आप में परब्रह्म का प्रतिरूप हैं ये नारायण पुरुष ही शुभ अविनाशी इसके ज्ञानात्मक रूप के ये सृष्टि का समस्त लक्ष्य भी समस्त ज्ञान भी योग्य हैं। प्रकृति के सर्वोच्च वस्तु या सब प्राणियों के आत्म शरणागत देकर लय एवं विलय करने वाला परमात्मा भी ऐहि पुरूष हैं अर्थात महा नारायण परमात्मा हैं महानारयण परमात्मा ही सर्वज्ञ हैं।तथा समस्त प्राणियों आत्मा का भी आत्मा तथा वहीं निष्ठावान हैं।

४)ना॒राय॒णप॑रो ज्यो॒ति॒रा॒त्मा ना॑राय॒णः प॑रः ।
ना॒राय॒ण प॑रं ब्र॒ह्म॒ त॒त्त्वं ना॑राय॒णः प॑रः ।
ना॒राय॒णप॑रो ध्या॒ता॒ ध्या॒नं ना॑राय॒णः प॑रः ।‌।

भगवान नारायण ही ज्योति के स्वरुप हैं अर्थात सब आत्मा को प्रकाश देने वालें हैं। भगवान नारायण ही परमकलिक सत्य हैं। भगवान नारायण ही परमकलिक प्रकाश अर्थात सब आत्मा एवं प्रकृति सब को यथार्थ प्रकाश ज्ञान देने वाला  भगवान ही महानारयण हैं इसको वेद में सर्वस्य प्रकाश कहा हैं। नारायण परमात्मा ही परब्रह्म परमात्मा के तत्त्व के याथार्थ स्वरूप हैं। नारायण परमात्मा ही ध्याता तथा ध्यान हैं अर्थात  समस्त उपासना या उपास हैं वो भी नारायण परमात्मा हैं

५)यच्च॑ कि॒ञ्चिज्ज॑गत्स॒र्वं॒ दृ॒श्यते᳚ श्रूय॒तेऽपि॑
अन्त॑र्ब॒हिश्च॑ तत्स॒र्वं॒ व्या॒प्य ना॑राय॒णः स्थि॑तः ।

इस समस्त ब्रह्माण्ड में कुछ भी हम देखते हैं कुछ भी हम सुनते हैं जो आन्तरिक या बाहरिक हो सब कुछ नारायण परमात्मा ही हैं। अर्थात
लौकिक या अलौकिक प्रकाश रूपि ज्ञान हैं।

६)अन॑न्त॒मव्य॑यं क॒विꣳ स॑मु॒द्रेऽन्तं॑ वि॒श्वश॑म्भुवम् ।
प॒द्म॒को॒श प्र॑तीका॒श॒ꣳ॒ हृ॒दयं॑ चाप्य॒धोमु॑खम् ।

महानारयण परमात्मा ही अनन्त अव्यय (नाश रहित) सर्वज्ञ समुद्र के समान विस्तृत जगत में व्याप्त एकमात्र भगवान ही महानारयण हैं कमल रूपी पद्म कोश आथवा हिरण्यगर्भ वा कमल रूपी हृदयकाश में व्याप्त हैं सब कार्य कारण में से प्रकट करने वाला वा प्रकट होने वाला भी भगवान नारायण परमात्मा हैं महानारयण परमात्मा नाभि कमल के समान अपने नाभि कमल में से सब जगत तथा जीवात्मा के सृजन करता हैं ये महानारयण परमात्मा ही सब में अधोमुख तथा बाहर मुखी हैं अर्थात सब शरीरधारी जीवों के दृष्ठा तथा जगत का भी दृष्टा महानारयण परमात्मा हैं।

७) अधो॑ नि॒ष्ट्या वि॒तस्या॒न्ते॒ ना॒भ्यामु॑परि॒ तिष्ठ॑ति ।
ज्वा॒ल॒मा॒लाकु॑लं भा॒ति॒ वि॒श्वस्या॑यत॒नं म॑हत् ।
नाभी के उपरि भाग में हमारे हृदय कमलासन के समान हमारे हृदय गुहा में चेतन रूप में स्थित हैं ज्वाला लपटों के माला के समान प्रकाश के समान पुरे ब्रह्माणड एक रस रूप में व्याप्त हैं ।

८) सन्त॑तꣳ शि॒लाभि॑स्तु॒लम्ब॑त्याकोश॒सन्नि॑भम् ।
तस्यान्ते॑ सुषि॒रꣳ सू॒क्ष्मं तस्मि᳚न् स॒र्वं प्रति॑ष्ठितम् ।
तंत्रिक धारयाँ से चारो ओर से घिरा हमारे नरनाडी जो हृदय कमल में बंद हो जाता हैं। इसमें जो सुक्ष्म स्थान में जो सुषुम्न नाडी पाया जाता हैं वहीं सबके आधार हैं अतः भगवान नारायण ही सब जीवों में व्याप्त होते हुए सब जीवों के आधार हैं ।

९) तस्य॒ मध्ये॑ म॒हान॑गग्निर्वि॒श्वार्चि॑र्वि॒श्वतो॑मुखः ।
सोऽग्र॑भु॒ग्विभ॑जन्ति॒ष्ठ॒न्नाहा॑रमज॒रः क॒विः ।

हृदय कमल के अन्दर जो महा प्रकाश रूप अग्नि जो अविनाशी जीसके जीभ चारों ओर विस्तृत हुआ हैं जिसके मुख हर दिशा वो में देखते हुए जो भी भोजन हम देते हैं उसको पचता हुआ जो भी  स्थित  हैं वहीं आत्मा सता हैं  अर्थात वैश्वानर अग्नि जठराग्नि जो खाने पचाते हैं या प्रकाश देता हैं अर्थात ज्ञान देता हैं जैसे हमें अपने जीभ के स्वाद से मिठे कड़वा खट्टा पदर्थों के अनुभव होता हैं उसी प्रकार मन इन्द्रयों के संयोग से आत्मा अनुभव कर लेते हैं अतः अपने का साक्षात्कार हो जाता हैं।

१०) ति॒र्य॒गू॒र्ध्वम॑धश्शा॒यी॒ र॒श्मय॑स्तस्य॒ सन्त॑ता ।
स॒न्ता॒पय॑ति स्वं दे॒हमापा॑दतल॒मस्त॑कः ।
तस्य॒ मध्ये॒ वह्नि॑शिखा अ॒णीयो᳚र्ध्वा व्य॒वस्थि॑तः ।
इस महानारयण पुरुष के प्रकाश रुपी रश्मियां उर्धव तिर्यग  रुप अर्थात चारों ओर प्रकाशित हैं। इनके मध्य में रसना के अग्नि रुप से शिर से लेकर पाद तक का शरीर संतप्त रहित होता हैं लेकिन इनके सुक्ष्म कारण शरीर  सब से परे होते हैं
कहने का तात्पर्य हैं कि जीव मोह माया फस कर अच्छे बुर कर्म फलों को भोगते हुए। चेतना शक्ति वस्तु निष्ठा में निहित होकर ये समझते हैं कि मैं शरीर हूं मैं घडा हुं ऐसा समझते हुए जीव अंधकार में गिर जाता हैं।उस कला बदलों के समान अंधकार में गिर कर जीव अपने आपको छोठे लकीर के रूप में प्रतित कर लेता हैं जब संसार के भौतिक जगत उठ लेता हैं तब अपने आपको महान प्रतित कर लेता हैं अर्थात अहं ब्रह्मास्मि इति जनाकर अपने आपको महान ब्रह्म प्रतित कर लेता हैं।

११) नी॒लतो॑यद॑मध्य॒स्था॒द्वि॒द्युल्ले॑खेव॒ भास्व॑रा ।
नी॒वार॒शूक॑वत्त॒न्वी॒ पी॒ता भा᳚स्वत्य॒णूप॑मा ।
महानारयण पुरुष नीले आकाश में वर्षा करने वाले बादलों के बीच में बिजली की एक छोटी सी रेखा के समान प्रकाशित होकर भी सब लोग लोकन् तर प्रकाशित कर लेता हैं एवं धान के दाने सुवर्ण रंग से युक्त होकर तथा सुक्ष्मतं अणुओं में भी अणु के बार बार में अपने रूप में परिपुर्ण होते हुए अपने रसना स्वाद जैसे ज्ञान को अनुभव करते हुए अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए सर्व प्राकशित हो जाता हैं।

१३)तस्याः᳚ शिखा॒या म॑ध्ये प॒रमा᳚त्मा व्य॒वस्थि॑तः ।
स ब्रह्म॒ स शिवः॒ स हरिः॒ सेन्द्रः॒ सोऽक्ष॑रः पर॒मः स्व॒राट् ॥
उस हृदय कमल के मध्य में प्रकाशित आत्मा शक्ति  मध्य में आत्म रूपी परब्रह्म व्यवस्थित हैं। सृष्टि करता ब्रह्मा संसार के पालन करता हरि लय करता शिव तथा शासक इन्द्र तथा जो परमाक्षर ॐ कार हैं मैं भी वहीं महानारयण परमात्मा नील काय तथा पीत वस्त्र से युक्त नारायण ही परापर शक्ति में अधि व्याप्त हैं।
१४)ऋ॒तꣳ स॒त्यं प॑रं ब्र॒ह्म॒ पु॒रुषं॑ कृष्ण॒पिङ्ग॑लम् ।
ऊ॒र्ध्वरे॑तं वि॑रूपा॒क्षं॒ वि॒श्वरू॑पाय॒ वै नमो॒ नमः॑ ।
उस महानारयण परमात्मा को बार बार नमन करते हैं वहीं जो सत्य परब्रह्म नील काय पीत वस्त्र से युक्त हैं ।महानारयण  परमात्मा ही समस्त विश्व हैं वही  विरूपाक्ष हैं अर्थात उसके माया के अन्तर्गत जिस के अध्यास से चिदाभास होता हैं अर्थात प्रकृति के विलक्षण रूप प्रतित होती हैं वहीं उसके माया या अविद्या शक्त वह उदर्वरेता हैं अर्थात मोह माया आदि के बंधन में नहीं पढ़ते अपने रुप में स्थिर हैं ये महारषुरूप जो विश्व में अधिभूत उसको नमन करें।

विष्णुगायत्री
१५)ॐ ना॒रा॒य॒णाय॑ वि॒द्महे॑ वासुदे॒वाय॑ धीमहि ।
तन्नो॑ विष्णुः प्रचो॒दया᳚त्।
उस महानारयण परमात्मा के ब्रह्म स्वरूप ज्ञान से आत्मा के साक्षतकर करते हेतु उस वासुदेव अर्थात समस्त विश्व के नारायण परमात्मा कि ध्यान करते हैं उसको प्राप्ति केलिए भगवान विष्णु हमें प्रचोदित  करें ।

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