Skip to main content

गजासुर का अलोकिक अर्थ

गणपति भगवान का मस्तक हाथी का क्यों?

गज अर्थात ग कार कण्ठ में अभीप्रेत होता है जैसे यहां उपनिषद का प्रमाण है देखिए

इसका प्रथम रूप 'ग' कार (ग) है, मध्यम रूप 'अ' कार है, अनुस्वार अन्त्यरूप है तथा बिन्दु ही इसका उत्तर रूप है। नाद ही इसका सन्धान है और संहिता इसकी सन्धि कही गई है। ऐसी ही यह गणेश विद्या है॥८॥ 
अब अ कार में स्वयं गणपति परब्रह्म समाहित है अनुसार में लय होता है ज कार में पंच प्राण और पंच देवता सिद्ध होते हैं इनका अग्र पुजा भगवान गणेश का होते हैं इसलिए वहीं ब्रह्म हैं। 
मस्तक छेद का अर्थ दुःख का नष्ट होना है तलम् न्याय के अनुसार जातां इति जगत् होता है । जिस प्रकार ये जगत दुःख का मूल कारण है शिव प्राण हैं तो इसमें जब हम प्राण को जानते हैं तो दुःख त्रय का नाश होकर गणपति का सायुज्य प्राप्त होता है एवं मोक्ष मिल जाता हैं मात पार्वती प्रकृति स्वरूपा हैं तो भगवान शिव प्राण स्वरूप हैं जब भगवान शिव मस्तक जोड़कर सिद्ध करते हैं जब हम प्रदान को जानेंगे तो सायुज्य मुक्ति प्राप्त होता है इसमें गजासुर नामक असुर का मस्तक छेदन किया था तो इसका अर्थ ये हुआ कि असुर प्रवृत्ति वाले भी गणपति सायुज्य प्राप्त कर सकते हैं जैसे वेद का वाक्य असतोमा सद्गमया इसका अर्थ हुआ अंधकार से प्रकाश कवेल गणपति प्रदान ज्ञान से होता है हमारे लिए शिर ही ज्ञान प्रदान हैं क्योंकि शीर में महत तत्व समहित हैं। इसलिए ये कवेल परब्रह्म गणपति का अवतार भेद हैं। क्यों कि इसमें ये ज्ञान मिलता है गणपति ही परब्रह्म परमात्मा हैं उसके मूल गुण ज्ञान है क्योंकि सब भगवान प्राणरूप वा आत्मरूप हैं इनके ज्ञान से ही कवैल्य और सायुज्य मुक्ति प्राप्त होता है जैसे गणपति भगवान उपनिषद में ब्रह्म कहते हैं देखिए गणपति उपनिषद का प्रमाण इस प्रकार है 
गणपति भगवान् को प्रणाम है। तुम्हीं साक्षात् प्रत्यक्ष तत्त्व हो। तुम्हीं एकमात्र कर्ता हो, तुम्हीं एकमात्र धर्ता हो और तुम्हीं एकमात्र हेर्ता हो। एकमात्र तुम्हीं इन समस्त रूपों में विद्यमान ब्रह्म हो। तुम्हीं साक्षात् आत्मस्वरूप हो। मैं सदा ऋत (सत्य से परे) बात कहता हूँ, सत्य का ही प्रतिपादन करता हूँ॥१-३॥
इसलिए इस वचन से गणपति भगवान ब्रह्म सिद्ध होता हैं तो कवेल यहां ज्ञान प्रकारण और निष्काम कर्म की बात है तो ज्ञान प्रकृति का परे जाकर प्राप्त होता है इसलिए सब मनुष्यों को गणपति भगवान कि उपासना से ही मोक्ष मिलता है ऐसी विषय को ही प्रतिपादन किया है ये गजासुर कि वास्तविक कहानी है धन्यवाद जय श्री गणेश 🙏

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र