Skip to main content

क्या भगवत पुराण में मुर्ति पूजा विरोध हैं?

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके
स्वाधोः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः
यत्तीर्थबुद्धि सलिले न कर्हिचि
ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः
१०:८४:१३
यस्य - जो आत्मनः अपने बुद्धि - विचारों कुणपे - पंच महाभूत से बना नश्वर शरीर में त्रिधातुके - त्रि शरीरक रुप ( कर्म ,सुक्षम , स्थूल,) में स्व अपने धीः - विचार को कलत्रादिषु - पत्नी भौमे- पृथ्वी पर इज्य- सम्मान के रूप में  यत् जिसका तीर्थ- तीर्थ स्थान के रूप में बुद्धि: - विचार सलिले-जल में न कर्हिचित् - कभी नहीं जनेषु- जनों में वा - या अभिज्ञेषु - ज्ञानीवो में स - यही गो - गाय खरः - गधा ।
जो अपने बुद्धि को भौतिक तत्व से बाना या त्रि शरीरों में ही या पत्नी आदि के नीजी
रुप में विचार करके पृथ्वी में केवल   इनका ही सम्मन करता हैं या तीर्थ स्थल को केवल जल मानता हैं वो कभी आत्म ज्ञानी नही कहेलता हैं ऐसा व्यक्ति ज्ञानीवों के मध्य में निस्संदेह गाय या गधा कहलाता हैं 
अज्ञात भागवद्धर्मा मन्त्रविज्ञानसंविदः नरास्ते गोखरा ज्ञेया अपि भूपालवन्दितः
जो लोग भगवान के प्रकृति का धर्म को नहीं समझते ऐसे लोग कोई वेदिक मंत्र का  विद्वान हो या राज द्वारा पूजित हो उन्हें गाय या गधे के रूप में जनना हैं। बृहस्पति संहिता
शैली दारुमयी लौही  लोप्या लेख्या च सैकती।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ११:२७:१२
शैली-पत्थर कि बनी दारु - मयी काष्ठ की बनी लौही -धातु की बनी लेप्या मिट्टी चन्दन आदि से बना लेख्या- चित्रित च- तथा सैकती - रेत की बनी मनः मयी - मन में विचारी गई मणि -मयी-मणियों से बनी प्रतिमा - अर्चाविग्रह अष्ट -आठ प्रकरा की स्मृति -ऐसा स्मरण किया जाता हैं
भावार्थ: भगवान् के अर्चाविग्रह रुप का आठ प्रकारों में
१) पत्थर
२) काष्ठ
३) धातु
४) मिट्टी
५) चित्र
६) रेत
७)मन
८) रत्न
में प्रकट होना बतलाया जाता हैं।

Comments

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र