Skip to main content

वैशेषिक दर्शन एवं न्याय दर्शन में विज्ञान

वैदिक विज्ञान एक चिंतन  
भौतिक विज्ञान के अनुसार हर पदार्थ 
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप में गतिमान होता हैं  जैसे कि उदाहरण केलिए जैसे चलना दौड़ना इत्यादि अप्रत्यक्ष रुपता जैसे शास लेना, अणु संयोग इत्यादि 
वैशेषिक एवं न्याय के अनुसार अणु को ऐसे कण माना हैं जिसको अधिक नहीं तोड़ सकते हैं इससे हि हर प्रत्येक  परमाणु के चरम,  अन्तिम,या मुल रूप मानते हैं विज्ञान के अनुसार अणु में ३ सूक्ष्म कण (sub atomic particles)  होता हैं जैसे (electron ,proton neutron) इसको वेद एवं दर्शनों में विद्युदाणु (electron), उद्भुदाणु (proton) और अव्ययाणु (neutron) एवं केन्द्रकोश( nucleus) कहा हैं
विज्ञान में स्थिती परिवर्तन को गति कहा हैं इसे ही हमारे वेद में माया शब्द से आरोपित  किया गया हैं ये स्थिति कार्य में  मूल रूप से विद्यमान होता हैं माया को विलक्षण माना जाता है या फिर शश्वतॎः शुन्यस्य अर्थात जिस प्रकृति ब्रह्म तत्व के बिना कुछ ना हो या शुन्य हो मिथ्या को उपाधि संज्ञा के अनुसार माना है जैसे सोने खडा हैं तो खडा स्वयं सोना नहीं है ऐसा नहीं कह सकते अगर खडा नहीं होता है तो सोना के अभाव नहीं होता है खडा शुन्य अर्थात अभाव होगा तो सोना भी अभाव नहीं हो गया  क्यों कि वैशेषिक में कार्यद्भावः 
अर्थात अगर कार्य के अभाव होने पर कारण अभाव नहीं होता है जैसे धुंवा हैं अग्नि के कारण होना स्वाभाविक है परन्तु धुंवा नहीं  होता तो अग्नि भी नहीं होगा ऐसा कहना ग़लत है इसलिए माया मिथ्या हैं तो इसके अर्थ उसके उपाधि मिथ्या हैं  अब इन्हें माया अर्निवचनिय कहने  पर समस्या है तो मया कोई द्रव्य नहीं है न कोई कारण है किसी भी प्रकार वस्तु उत्पन्न होने केलिए उसे ही अभाव माना जाता है नाकि भाव अगर कारण के अभाव हो जाने पर कार्य उत्पन्न होता है ये संभव नहीं है इसे ब्रह्म का परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले कार्य ही माना हैं अर्थात ब्रह्म कोई उपादान और निमित्त कारण माना जाता है कार्यं में जो स्थिति परिवर्तन जो उत्पन्न होता है उसको विज्ञान में गति कहा हैं ये केवल अप्रत्यक्ष रूप और अनुमान से जाना जाता है वैशेषिक भी भौतिक विज्ञान हैं इसमें भगवान के सत्ता के वर्णन नहीं है वैशेषिक का मुल कथन प्रत्यक्ष तत्व के उसके वास्तविक रूप को जानकर मोक्ष पाना हैं यहां वैशेषिक असत कार्य वाद है यहां केवल कार्य के बात हैं न कि कारण कि विज्ञान भी कार्य वाद हैं अब वैशेषिक के 
द्रव्य लक्षण में वैशेषिक एवं न्याय दर्शन में विज्ञान कि हर बात को‌ पहले से कहा हैं 
न्याय एवं वैशेषिक आचार्यों का अवलोचना  आधुनिक विज्ञान के कसौटी पर भी सटीक बैठते हैं
द्रव्य क्या हैं ?
वैशेषिक एवं न्याय दर्शनों में कहा हैं सारे पदार्थ में पहले ही गुण विद्यमान होता हैं अतः इसमें नित्यत्व द्रव्य में परस्पर भेद उत्पन्न कर लेता हैं एवं इसके द्रव्य लक्षण के सुत्र में लिखा हैं 
क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यं लक्षण
अर्थात जो पदार्थ अपने में क्रियवत हों
१) जो भौतिक पदार्थ अपने अपको बदल सकता हैं जैसे आरूणायस् ( Uranium)
२) जो भौतिक पदार्थ में अन्य द्रव्य के रुप को बदल सकते हैं क्यों कि गति होने के कारण बदल सकते हैं जैसे तो द्रव्य आपस में मिलकर एक दुसरे का रूप बदल सकते हैं जैसे अम्लजनक (oxygen) के १चरम मिलने (oxygen 1 atom) में जलजनक (hydrogen) के २ चरम (hydrogen 2 atom) मिलने से आपस के वायु धर्म के गुण परिवर्तन होकर जलोगुणि का धर्म हो जाता हैं
३) जो  भौतिक में  दुसरे का उपादान कारण बन सकता हैं जैसे कासीस के उत्पत्ति दो प्रकार होता हैं भौतिक रुप ये पदार्थ नैसर्गिक क्रिया  से बनता हैं या फिर  गरम लोहे को गंधकाम्ला में प्रयोग करने से जो द्रव्य बनता है उससे उसे कसीस या ferrum sulphate) ये क्रिया आयुर्वेद के रस रत्न समुच्चय में भी दिया गया है इससे कहा जा सकता है लोह एवं गंधक अम्ला कसीस का उपादान कारण बन सकता है  इसको ही द्रव्य माना जाता हैं 

द्रव्य गुण निरुपण 
भौतिक विज्ञान के अनुसार अणु संयोग के कारण एक दुसरे के कारण एवं एक दुसरे के संयोग अधार पर माना जाता है इस को संख्या एवं वैशेषिक परिभाषा संयोग कहा हैं‌ लेकिन विज्ञान के पास इसका उत्तर नहीं हैं संयोग के पीछे का कारण क्या हैं इससे संख्या में सत् रजस् तमस् के कारण मान जाता हैं इससे नित्य उत्पन्न होने वाले बतया हैं वेद में भगवान के कारण माना जाता हैं विज्ञान में पदार्थ को समझाने केलिए तीन सिद्धांत का सहरा लेते हैं 
Theroy of Empiricism अनुभव वाद 
Theroy of objectivity निष्पक्षतावाद
Theroy of reductionism सरलीकरण  ये सब विज्ञान के सिद्धांत से अप्रत्यक्ष या अगोचर तत्व के सिद्धि नहीं होता हैं ये केवल प्रत्यक्ष चीज़ें पर लागु होता हैं इसलिए ये गलत हैं क्यों कि केवल प्रत्यक्ष जो हैं उसमें कार्य भाव अव्श्य होता हैं लेकिन जब कोई कार्य कारण हो रहा हैं उससे कारण के अभाव नहीं मान सकते लेकिन भौतिक में जो कार्य हो रहा है उसमें कारण अगोचर हैं इसलिए उसको जनना असंभव हैं यहां अनुमान या संशय नामक संज्ञा उत्पन्न होता हैं जैसे विद्युत से बल्ब जलती हैं यहां विद्युत के कारण बल्ब जलता हैं लेकिन विद्युत से बल्ब नहीं बन सकते हैं इसलिए विद्युत को करण नहीं मान सकते हैं । जैसे ही अन्य कोई दुसरे पदार्थ को कारण मनना अव्श्यक हैं वेद में इसे ही भगवान कहा हैं संख्या के कार्य वाद में भी आत्मा को नैमित्तिक करण माना हैं क्यों कि शरीर धारी मानुषों में आत्म के कारण ज्ञान उत्पन्न होता हैं। जो परिवर्तन होता हैं वो कभी खुद कारण नहीं बन सकते हैं न तो परम काल की सच्चाई हो सकता हैं
ये केवल प्रकृति  कि तत्काल सत्ता हैं जैसे दुसरे प्रचलित उदाहरण हैं इसमें पूरूष को निमित्त माना है जैसे अगर कुंवारा घाट बनता है या ध्यान देने विषय है ये भी परिवर्तन का अनुरूप है घटा तो बनया अब मिट्टी किसने बनाया वो मिट्टी क्यों नहीं बना सकता हैं इसलिए उसने जबतक मिट्टी को भी नहीं बनया तब तक उसे कारण नहीं मन सकते हैं उससे भी परिवर्तन मनना योग्य है़ं   न तो घटा खुद उत्पन्न हो सकता है यहां पर भी कार्य विद्यमान है न कि कारण आत्मा न तो करता है न तो भक्ता हैं अगर आत्मा को ही स्वभवतः कारण माने तो उसे बन्धित मानना होगा तो उसे कभी मोक्ष नहीं मिलेगा  इसलिए भगवान को मानना अव्श्यक हैं उपनिषदों और वेद में इसको इस प्रकार दिया हैं 
भगवान को इच्छा हुई 
उसने दो तत्वों को बनया ये सोच कर कि ये मेरे लिये सृष्टि उत्पत्ति करेंगे इसके अद्वैत में पुरुष तत्व एवं स्त्री तत्व कहा हैं
तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापति स मिथुनमुत्पादयते। रायिं च प्रणं चेत्येतौ बहुधा प्रजा: करिष्यत इति प्रश्नोपनिषद १/४
तब पिपलादा जी ने उनसे कहें कि सृष्टि के हेतु परब्रह्मा प्रजापति
भगवान ने वास्तव में जीवों की इच्छा करके अर्थात सृष्टि कि इच्छा करके
उन्होंने तप को उत्पन्न किया  अर्थात् अपने अंदर की बल को उत्पन्न किया उन्होंने उस तप अर्थात बल से
एक जोड़ी में रायि (पदार्थ) और जीवन शक्ति प्राण का उत्पादन किया, यह सोचकर कि ये दोनों मेरे लिए एकिगत  होकर जीव बनाएंगे इससे यही पता चलता हैं सभी जीव प्राण और रायि का संमिलन हैं।
 प्राण शक्ति गुरुत्वाकर्षण गति या बल का एकिकृत तत्त्व है जिसे वेदांत में पुरूष तत्त्व भी कहा जाता है
 रायि प्रकृति की एकिकृत तत्त्व जो कई रूपों को पकड़ने और प्रदान करने  या बदलने में सक्षम है जिसे वेदांत में स्त्री तत्त्व कहा जाता हैं।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र