Skip to main content

नासदीय सुक्तं एक विश्लेषण


नाससदीय सुक्तं -ऋग्वेद मंडल १० सूक्त १२९
*१.नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।*

*किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥*

आदि में ना ही किसी (सत्)आस्तित्व था और ना ही (असत्) अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत एक परिपुर्ण अदृश्य निराकार निर्गुण र्निविकलप ब्रह्म से हुई।
तब न हवा थी, ना आसमान था और
समय भी नहीं था परब्रह्म के परे कुछ था,
*२. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।*
*आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥*

चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था।
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे,
उस समय दिन और रात भी नहीं थे।
उस समय बस उसके शक्ति से व्याप्त शब्द आकाश था अर्थात शब्द रुप के ॐ कार स्वरुप अक्षर ब्रह्म उसके बल था मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से एक तार (string) रुप में सदा परब्रह्म में व्यक्त हो
*३. तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।*
*तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥३॥*

शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और फिर वो जल की भांति अर्थात आपस् तत्व था जिसका कोई रूप नहीं था, अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है। वो उस परब्रह्म के निरन्तर तप से उत्पन्न हुवा था और उसके हेतु आपस तत्त्व से परब्रह्म उत्सर्जित हुवे।
यहां संदेह हो सकता हैं अगर आपस तत्व पहले से था तो क्या वो ब्रह्य से अलग था?
उत्तर : नहीं इसके उत्पादन के मूल कारण ब्रह्म इनके जो उत्पन्न होने के जो बल होता है वो परब्रह्म ही हैं जिस प्रकार समुद्र के लहर जल के बिना अस्थित्व में नहीं बनते उसी प्रकार आपस तत्त्व के हेतु ब्रह्म सृष्टि का कार्य करता है
प्रमाण
आपो नारा इति प्रोक्ता अपो वै नरसुनव:।*
*ता यदास्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। १/१०*
अर्थ: - आपस् तत्व का एक नाम नारा हैं क्योंकि वह नर अर्थात् ब्रह्म ब्रह्म से उत्पन्न हुआ हैं ब्रह्म कि ब्रह्मा रुप में उत्पत्ति इसी नार से हुई इसलिए परमात्मा का एक नाम नारायण हैं।
*आप एवदेमग्र आसुस्ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म*
*ब्रह्म प्रजापतिं प्रजापतिर्देवा ँस्ते देवाः*
*सत्यमेवोपास्ते तदेत्त्रयक्षर ँ सत्यमिति स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं यमित्येकमक्षरं* *प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्य मध्यतोऽनृतं तदेतदमृतमुभयतः सत्येन परिगृहत ँ सत्यभूयमेव भवति नैवं विद्वा़ ँ समनृतं ँ हिनस्ति बृहदारण्यक उपनिषद्* *५:५:१*
आदि में आपस् तत्व था वहीं ब्रह्म में अव्यक्त था उसे आप तत्व के हेतु आपस् तत्व से ब्रह्म के व्यक्त रुप प्रकट हुआ उससे प्रजापति ब्रह्म उत्पन्न हुआ प्रजापति ने देवताओं को उत्पन्न किया और देवताओं ने भी उसी सत्य के सम्मान किया कि ये सत्य तीन अक्षर का होता है स ती और म इनमें प्रथम और अंतिम अक्षर सत्य है मध्य अक्षर असत्य है क्यों कि ये मृत्यु है अर्थात प्रगति शील हैं और अस्थिर हैं इसलिए मृत्यु ही परिवर्तन हैं लेकिन दोनों तरफ सत्य से लिप्त होने करण ये एक तत्काल सत्य है लेकिन परंकाल सत्य है नहीं है जो इस सत्य को जानते उसके नाश नहीं होगा

*तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्मान्दवल्ली ७ अनुवाक असद् वा इदमग्र आसीत्‌। ततो वै* *सदजायत।तदात्मानं स्वयमकुरुत।तस्मात्* *तत्सुकृतमुच्यत इति।यद्वै तत्सुकृतम्‌। रसो वै सः। रसं* *ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्‌। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्‌।एष* *ह्येवानन्द याति।यदा ह्येवैष* *एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते। अथ सोऽभयं गतो भवति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते।थ तस्य भयं भवति। तत्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।तदप्येष श्लोको भवति॥*
आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है; कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 'यही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब हमारी 'अन्तरात्मा' उस 'अदृश्य', 'अशरीरी' (अनात्म्य) अनिर्दशं (अनिरुक्त) एवं 'अनिलयन' 'ब्रह्म' में आश्रय ग्रहण करके दृढ़ रूप से 'उस' प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है। किन्तु जब हमारी 'अन्तरात्मा' स्वयं के लिए 'ब्रह्म ' में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं 'ब्रह्म' ही एक भय बन जाता है। जिसके विषय में 'श्रुति' का यह वचन है।
*संक्षिप्त विवरण* सब कुछ सृष्टि के मूल कारण परमात्मा है उसके बिना कुछ भी अस्थित्व में नहीं होता वह सब तत्त्व के मूल भूत शक्ति है उसके इच्छा बिना कुछ भी पायदा नहीं होता
*स्वतो वा परतो वापि न कञ्चिद् वस्तु जायते।*
*सदसत् सदसद्वापि न किञ्चिद् वस्तु जायते।।*
*गौड भगवत पद कारिका 4/22*
अगर कुछ पैदा हुआ है तो ये
न तो एक अस्तित्व और न ही अनस्तित्व और न ही इन दोनों प्रकृतिओं में से कुछ पैदा हुआ है
इसमें गौड भगवत पाद जी कथन जिस प्रकार मूल कारण बिना प्रभाव संभव नहीं है उसि प्रकार भगवान के बिना सृष्टि संभव नहीं होता
इसलिए उत्पादन और निमित्त कारण दोनों होता है

*४.कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।*
*सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥*

सबसे पहले रचयिता को कामना यानि इच्छा हुई रचना का, वहि सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था,
इस तरह रचयिता ने विचार करके अपने मया से अस्तित्व व्यक्त न होने वाला अनस्तित्व में अस्तित्व के उत्पत्ति
की परिकल्पना किया।

*५.तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।*
*रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥*

फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान प्रकाश त्तव उत्सर्जित हुआ तब देव ने उसके रायि अर्थात(प्रकृति) से प्राण को‌ मिलकर सृष्टि रचना किया।तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापति स मिथुनमुत्पादयते। रायिं च प्रणं चेत्येतौ बहुधा प्रजा: करिष्यत इति प्रश्नोपनिषद १/४
तब पिपलादा ने उनसे कहा कि सृष्टि परब्रह्मा प्रजापति
भगवान ने वास्तव में जीवों की इच्छा करके अर्थात सृष्टि कि इच्छा करके
उन्होंने तप को उत्पन्न किया अर्थात् अपने अंदर की बल को उत्पन्न किया उन्होंने उस तप अर्थात बल से
एक जोड़ी में रायि (पदार्थ) और जीवन शक्ति प्राण का उत्पादन किया, यह सोचकर कि ये दोनों मेरे लिए एकिगत होकर जीव बनाएंगे इससे यही पता चलता हैं सभी जीव प्राण और रायि का संमिलन हैं।
👉 प्राण शक्ति गुरुत्वाकर्षण गति या बल का एकिकृत तत्त्व है जिसे वेदांत में पुरूष तत्त्व भी कहा जाता है
👉 रायि प्रकृति की एकिकृत तत्त्व जो कई रूपों को पकड़ने और प्रदान करने या बदलने में सक्षम है जिसे वेदांत में स्त्री तत्त्व कहा जाता हैं।

*६.को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥*

अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है की कब और कैसे इस सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्यूंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अतः वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णण नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके पीछे के कारण क्या था।

*७.इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥*

सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता?
सृष्टि का संचालक, अवलोकन करता, ऊपरि आकाश में सदेव स्थित सबका स्वामी वहि सच मुच में जानता होगा या नहीं भी जानता होगा

(हिरण्यगर्भ-ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 121

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्
*१ स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । १।*
आदि में हिरण्यगर्भ परमात्मा ही सब कुछ सब देव और तत्वों के ईश्वर था
उन्होंने ही पृथिवी और अन्तरिक्ष को धारन किया हैं।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*२ य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देव:*
*यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम । २ ।*
ऐही जो परमात्मा आत्मा और सब पदार्थों का बल के प्रदायक हैं
उसके आधीन में प्राणी और देवता सभी बसते हैं मृत्यु और अमरता जिसकी छाया प्रतिबिम्ब हैं अर्थात सब को मृत्यु के बात अपने प्रकृति हिरण्यगर्भ में समा लेता हैरान और मोक्ष का प्रदायक हैं और अविनाशी हैं ।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*३ यः प्राणतो निमिषतो महित्वै क इद्राजा जगतो बभूव*
*यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ३ ।*
प्राणवान् और पलकधारियों का महिमा से अपनी ईश्वरी शक्ति प्रकट किया हैं।
इस ईश्वर ह
पृथिवी के राजा आर्थात पालन करने वाला हैं जो संपूर्ण धरती का स्वामी है
जो द्विपद और चतुष्पद जीवों का भी ईश्वर हैं।।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*४ यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसय यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम । ४ ।*
हिमावत पर्वत को बनाने हेतु इसके महिमा को व्यक्त किया हैं नदियों सहित सागर भी हेतु जिसकी यश गाथा गुण गान करने योग्य हैं।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*५ येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ५।*
गतिमान अंतरिक्ष, जिसनें धरती अर्थात
पृथ्वी के समान समस्त ग्रहों संधारित किया है आदित्य अर्थात सुर्य के समस्त और देवलोक अर्थात देवलोक के समान अन्य लोक और जो भीअन्य खगोल पिण्ड भी उसके बल से ही स्थित हैं।
अंतरिक्ष में भी जल अर्थात आपस् तत्व का भी संरचना किया हैं।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*६ यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने*
*यन्नाधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम । ६।*
सबकी संरक्षा में स्थित हुवे आकाश और पृथिवी इसके परम शब्दाकाश में ही स्थित‌ हैं
पर्यवेक्षकण करते उस भगवान को जिससे प्रकाश तत्व उत्सर्जित होकर सूरज और समस्त पिण्ड सुशोभित हुवा हैं।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*आपो ह यद् वृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम
ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ७ ।*
इसि भगवान के द्वरा अग्नि अर्थात प्रकश तत्त्व प्रकट हुवा और कारण भूत हिरण्यगर्भ के भी प्राण स्वरूप था ।
इसि भगवान ने तब प्राणरूप बल से सब पदार्थ (रायि) तथा प्राण की रचना किया। उस समय जल में अर्थात इस हिरण्यगर्भ के प्रकृति के आपस् तत्व में सारा संसार ही निमग्न था ।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*८.यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्*
*यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम । ८ ।*
महा जलराशि अर्थात आपस् तत्व से समिभूत समस्त जगत को जिसने ध्रुवीय महिमा में बनाते हुवे पर्यक् (सब दिशो मे स्थित) होकर देखा हैं। इस प्रजापति कि रचानकरी यज्ञ में सब देवताओं के मध्य में सब को रचनाकारी इस परमात्मा ही अद्वितीय देव है।
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।

*९ मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम । ९ ।*
इस भगवान ही आन्द रुपि हैं
जो अपस् तत्व को उत्सर्जित किया हैं वे हमें पीडित न करे हमें समस्त सृष्टि के निर्माता
सत्यधर्मा वह जो अंतरिक्ष और स्वर्ग की धारण और पालन कर्ता हैं उस सुखद परमात्मा की उपासना करे हम हवि दे कर
*१०प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु कस्मै देवाय हविषा विधेम । १० ।*
इस प्रजापति के राचनाकारि यज्ञ मेंआपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हैं।
वर्तमान, भूत, भविष्य और सभी उत्पन्न पदार्थों में व्याप्त हैं
जिस भगवान की कामना से हमें संपूर्ण फल मिलता हैं
उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
*एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः आकाशाद्वायुः । वयोरग्निः अग्नेरापः अप्द्भयः पृथवी। तैत्तिरीयोपनिषत् २/१*

*ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवः अधि विश्वे निषेदुः
समासते। ऋग्वेद १/१६४/३९*
सब अविनाशि मन्त्र तथा स्त्रोत परमव्योम से व्याप्त हैं अर्थात शब्दगुणपमेत आकाश भी शब्दोपेमित प्रमाण हैं इस ॐ कार (अर्थात शब्दाकाशमयि अकाश तत्व )में ही सब देवताओं के शक्ति व्याप्त हैं।

*ॐ मित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यान भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कारमेव ।*
*यच्चान्यत्त्रिकालातितं तदप्योङ्कार एव
ॐ कारः* अविनाशि अक्षर ब्रह्म है अर्थात् शब्दाकाश में स्थित है एहि सब तत्त्व के स्रोत हैं ।
इसके महिमा को लक्षित कराने वाला संपूर्ण विश्व हैं
भूत वर्तमान भविष्य आदि तीनों कालों वाला ये संसार ॐ कार ही हैं।
अगर ईन तीनों कालों के परे जो भी तत्त्व है वो भी ॐ कार हैं ।
इसलिए सबकुछ ॐ कार अर्थात शब्द रूप हैं इस जगत में अगर कोई भी तार है वो भी ॐ कार हैं ।
तर्क प्रमाण
*शब्दगुणकमाकशम् । तच्चैकं विभु नित्यञ्च*
अर्थात् आकाश शब्द गुणों हे विभक्त हैं । वही शब्द ॐ हैं वहीं सर्व परि हैं वो सब स्रोत तथा सब मन्त्र मैं व्याप्त हैं।
दिपिका
१) आकाशं लक्षयति शब्दगुणमिति - आकाश शब्द अर्थात तार रूपि आहत अनाहत नाद गुणो द्वार अंकित हैं
२) स च एकं च नित्यं विभु - वो एक समान हैं वो नित्य और सर्वात्र विभक्त हैं

Comments

  1. Sir Sri Krishna ne Draupadi maa ko tab kyu nahi bachaya jab ve khud lad ragi thi ?

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र