पहले वाक्य में आचार्य कर्तिनाथ लिखते हैं श् और न् इसके साथ अकरंत निपता का प्रयोग हैं इसलिए वर्णभेद के अनुसार ये प्रादिपदिक बन जाते हैं क्रियामणो प्रदिपदिकं तदस्तेषु योगे विकरी दोषेण यदा क्रिया पतिस्यति इस भेद से तद्धितान्तकं में तद्धिते शैषिकः इस सुत्र से सदाशिव की शक्ति को इकार भेद में गोचरमनो भवः कहते हैं।
इसके व्याख्या में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया हैं । ये कवेल सदाशिव की विशेषण वा विशिष्टा हैं यहां प्रयोग से ये नहीं समझना चाहिए कि कर्ता वा विशेषण भेद हैं इसका मूल कारण है यहां वैशेष का प्रयोग किया गया है। व्याकरण नियम
१) कर्ता के प्रयोग कवेल प्रथमा विभक्ति में करते हैं।
२) क्यों की जिस विभक्ति वा वचन में विशेण होती है उसके ही वचन और विभक्ति में वैशेष शब्द होते हैं इसलिए प्रकटिकरण किये बिना समझ लिजिए वैशेष शब्द है अर्थात यहां अगोचर होते हुए भी भेद समझना चाहिए।
इस बात का प्रतिपादन करते हैं शैव सिद्धांत में कहा गया हैं। मुख्यतः तीन बीजात्मक शक्तियों की निर्माण प्रक्रिया होता है यही तद्धितांत शेषे सुत्र का संधान हैं जैसे ईश्वर गीता में पढ़ते हैं। काल प्रधान पुरूष तीन बीजात्मक भेद का वर्णन करते हैं जिसके अस्मदप्रत्ययांत शिवात्पर परब्रह्म को दर्शाते हैं ।
यहां पर पहले प्रधान भेद का वर्णन करते हैं।
रूद्रनामक में शिव ही भूत भव और भविष्य हैं। ऐसा कहा जाता हैं भूतों के गुणों के आधार पर ऐसा भेद करते हैं।
श्रवणस्चाक्षुषांग्रहणस्पर्शरसेन्द्रियानां
इसका अर्थ यह है कि जो गुण इन्द्रियों के होते हैं। उसके उसके भी प्रथमा विभक्ति में प्रयुक्त होता है क्यों कि वो सदाशिव की ही हैं ।
श्रवणः बौद्ध चित्त के अनुसार भी विष्णु भगवान अपने बौद्ध अवतार में भी शब्द का वर्णन करते हैं शब्दात्मक जगत् कहते हुए संपदन की वर्णन किया है अब शब्द अक्षर हैं इसके अन्तरिक भेद ही संधान हैं बह्या ही गोचर है अब दृश्य जगत की संधान अन्तस्थ प्रत्यन से अग्नि सोम में भी शब्द गुणभूत तल्लित होता है। आकाश संधान भूत हुआ वायु शक्ति भूत हुआ इन सारे भूत में शब्द है । इसलिए अव्यक्त तत्व सदाशिव ही है
हर हर महादेव 🙏
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