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शिव गीता १:१ मिहिर कृत भाष्यं

अथातः संप्रवक्ष्यामि शुद्धं कैवल्यमुक्तिदम्।
अनुग्रहान्महेशस्य भवदुःखस्य भेषजम्॥१॥

व्याख्या: ननु प्रथमत एव पद्मपुराणं वक्तव्यमिति मुनयः सुतं पृष्टवन्तः, तान् प्रति पद्मपुराणं वक्ष्यामीति सूतेन शुका मुनिना शिवरुपिना प्रोक्तं तत्व्याख्यते इति विशेषो अर्थं
प्रतिज्ञातमेत्दमिदंगीताशास्त्रे तदन्तर्गतशिवगीताया अपि प्रतिज्ञानवत् प्रतिज्ञान्तरं कथमिति चेन्न साक्षत्तत्त्वज्ञानोपायत्वरूपविशेषद्योत्नार्थं पुनः प्रतिज्ञेति
भाष्य : ननु अथातः अहं संप्रवक्षामि इदं वचने अस्मद प्रत्यन्तकगते रुद्रं च एकं तेनानेव सो एव सदाशिवः च परब्रह्मणः इत्यस्यापि ताम् विषये ब्रह्म जिज्ञासा कर्तव्यः इत्यार्थः तान् शब्दानां मध्ये एतावतैव प्रतिज्ञायः सिद्धस्वत् अथातः इति किमर्थं इति चैन् अथ मुनिप्रश्नानन्तरं, अतः प्रश्नाद्वेतोः संप्रवक्ष्यामि प्रतिज्ञार्थः अयमेव न्यायः विद्यते।
तदेव कारणे ब्रह्मवादिनः ऋषयः केवलं शुद्धाद्वैत च अभेदरूपेणेव एव निवृर्तिभूत्वा मोक्षः सिध्यति न तु कर्मणाप्रवृर्तिभूत्वा सिद्ध्यति इति न्यायः प्रतिपादितः
सं अथातः सं संप्रदाने च शिव पदोर्थः कर्तव्यः कारकद्योगे समिभूतं चाभूतं शिव तत्वं निरूपिणार्थं तत्प्रेषयो प्रयोग्त्गते वक्षयेत स वा इति च निपातस्ते कंठ न्यास संधाने शिव वचनमेवायथा तत्प्रचक्षते सुतमहार्षिणा इत्यस्यापि न्यायः अलभतैति । तद्वेवं प्रवक्ष्यामि इत्येवं अर्थस्भूते 
शुद्ध कैवल्यं : न तु कर्मेरपि कैवल्यन्तु ज्ञान वैभवं सम्पाद्यते सृष्टिस्सकिर्णे विष्णोः प्रकृतिस्यापि तत्प्रत्यायस्तु गोचरत्वे अर्निवचनाद्भते न्यासद्भूते विष्णुना प्रकृतिस्यापि भूतानि विन्यासस्क्रमभेदैः जायते। अथानन्तरे कार्यमध्ये तत्त्रपात्रयादिषु शिवं मङ्गलमेति तत्पादातोपशमते इत्यार्थः प्रकृतेः क्रियमाणानि कार्ये लोकविन्यास क्रम भेदे दुःखस्त्रयातितां च गोचरत्वे देवमेवयजते मानवः अस्मदांत प्रत्यये ज्ञानेन कैवल्यं लभते च बुधः इत्यचार्थः प्रतिपादिताः। अस्मदांकितप्रत्यये तत्केवलं शिव जिज्ञासा विषयादैव प्रक्तमिति चैन्। तस्मात्कारणे अगोचरत्वे तत्केवलं सदाशिवेन सिद्ध्यति इति अर्थः ब्रूते 
सोसदाशिवोवाभेषजं दुःखस्यापि तत्केवलं षष्ठंपथं वा सन्धान चतुष्ठायां अनुकरनेन सिद्ध्येत् इति अर्थः प्रतिपादिताः।

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