Skip to main content

दयानंद यजुर्वेद भाष्य समीक्षण

यजुर्वेद भाष्य १९:८८
आर्य समाजी दयानंद जी के अश्लील भाष्य के खण्डण आर्य समाजी परिछिन्न नास्तिक होते हैं दयानंद जी संस्कृत के ज्ञान नहीं था इसके संस्कृत और हिन्दी में खण्डण किया हैं
मुख॒ँ सद॑स्य॒ शिर॒ इत्सते॑ न जि॒ह्वा पवित्र॑म॒श्विना॒सन्।  सर॑स्वती ।
चप्यं॒ न पा॒युर्भि॒षग॑स्य वालो॑ व॒स्तिनं शेपो॒ हर॑सा तर॒स्वी यजुर्वेद १९:८८

सायण ,उवट एवं महीधर भाष्य: अन्येन्द्रस्य सत् वैतसः पात्रविशेषः अन्तलोपश्छान्दसः मुखंम्भूत् तथा च श्रुतिः-मुख ँ सतं जिह्वा पवित्रं चप्यं पायुर्बस्तिर्वालः (श° १२:९:१:३) इति सतेन इत् तेन पात्रेणैव अस्य शिरोऽभूत् पवित्रं जिह्वा चाभवत्। अश्विना अश्वनौ सरस्वतो च आसन् अस्य अस्येऽभवन चप्यं न पिष्टपात्रं च चप्यं पिष्ट पात्रम् इति तैत्तिरीय ब्राह्मण भाष्ये सायणः पायुरिन्द्रिय अभवत् वालः सुरागलनवस्त्रम् अस्येन्द्रस्य भिषग्वैद्यो वस्तिर्गुदा शेफो लिङ्गं चाभूत वालेन एतत्त्रयं जातमिति यावत् किदृशः? हरसा वीर्यैण वा प्राणेन तरस्वी वेगवान् इति।
शातपथी श्रृतिस्तु हृदयमेवास्यैन्द्र पुरोडाशः। यकृतं सावित्रः क्लोमा मतस्तेन एवास्याश्वत्थं च पात्रमौदुम्बरं च पित्तं नैयग्रोधमान्त्राणि स्थुलो गुदा उपशायानि श्येनपत्रे प्लीहासन्दी नाभिः कुम्भो वनिष्ठुः प्लाशिः शतातृण्णा तद्यते सा वितृण्णा भवति तस्मात् प्लाशिर्बहुधा विकृतो मुखं ँ सतं जिह्वा पवित्रं चप्यं पायुर्बस्तिर्वालः श° १२:९:१:३  इति स्पष्टमेव अर्थं ब्रूते 
भाष्यंः सत् विराट इन्द्रस्य शरीरे सत्यं तद मुखं एवं शिरः च जिह्वा च वाणी तद पवित्रं अश्विनौ च सरस्वती स्तवं तद शक्ति रूपाणि पवित्रं आसन् चप्यं तद मुखं जिह्वा च अभवताम् पायुर्बस्तिर्वालः तस्य इन्द्रियाणां बल रूपे अधिगतं इन्द्रियाणि अभुताम् वालः( लोमः) भिषक् शक्ति रुपेण स्थितत्वा उपाचरकं रूप च भवताम् एवं च   लोमादैव शरीरस्य दोषोपसमनं सिप्रदैव संभवति तदेन शरीरं हराशयं प्राप्नोति तस्मात तदैव वैद्य रुपं अभुतां वस्तना एवं शेपोद्वैव (वीर्यो वै प्राणः) अतः प्राण तत्त्वस्य  अधिभूतम् इमानि इन्द्रियाणि जननेद्रियाणि  भवताम् इति अर्थः प्रतिपादिताः
दयान्दस्तु : स्त्री पुरुषौ गर्भाधानसमये परस्पराङ्गव्यापिनौ भूत्वा मुखेन मुखं चक्षुषा चक्षुः मनसा मनः शरीरेण शरीरं चानुसंधाय गर्भं  दध्याताम् यतः कुरूपं वक्राङ्गं वाऽपत्यन्न स्यात्
इयं अर्थं विसङ्गतमेव अत्र अश्विनौ इदुक्ते दम्पत्योग्रहणं निर्थकं एवं जिह्वे सरस्वती इदुक्ते पुनः स्त्री मेव इति ग्रहणं निरर्थकमेव स्यात् हिन्दी भाष्ये शिरसा सह शिरः कुर्यादियुक्तं प्रथमतः एक एव शिरः अस्ति अत्र एकवचने द्विवचनं ग्रहणं कथं भवति? तस्मात् शिर शब्दस्य पुनः अर्थं निरर्थकं भवति। तत्र तृतीयान्तस्याहारे किं बीजम्? मुले कुर्यादिति शब्दः नास्ति तस्य ग्रहणं किं? 
अश्विनावित्येन परस्परात्य स्त्री पुरुष संयुक्तं इति ग्रहणं कदापि न संभवति इयं अर्थः दयानन्दः स्व बुद्धायेव प्रस्पुरीतवान्  तरस्वीति  इति अर्थे प्रशस्तं तरो विद्यते यस्य सः इति ग्रहणं भवति हिन्दी भाष्ये तरस्वीति करनेहरा होता हैं इतियुक्ते तत्र केन कस्य संबन्धः? चप्यमिति चपेषु सान्त्वेषु भवं चप्यमिति हिन्दी भाष्ये च करने के समान इत्युक्ते सर्वत्र असम्बन्धमेव हिन्दी भाष्ये इस रोग से अत्र रोगः इतियुक्ते किं संबन्धः? हिन्दी भाष्ये सन्तानोत्पति अस्य केन पदेन ग्रहणं भवति?
एवं यथावत् करे इति अर्थः विसङ्गातमेव  दयानन्दस्य इयं अर्थ: खण्डितं भवति एवं दयानन्दास्तु इयं भाष्य अश्शीलः अपि अस्ति तर्हि कमलोलूपः दयानन्द हिन्दु धर्मस्य प्रति कलङ्कः एव इति परिगण्नीयं ।
हिन्दीः उस विराट पुरुष के सत नामक पात्र से इस  इन्द्र के मुख उत्पन्न हुवा अतः इस इन्द्र देव के मुख एवं शिर सत्य से पवित्र हैं उस मुख में स्थित जिह्व सत्य से पवित्र हैं ये अव्याव अश्वनीकुमार एवं सरस्वती से संचालित हैं अतः ये पवित्राता  से व्याप्त हैं उसके बल से चप्य और पायु ‌इनद्रियाँ रुप में उत्पन्न हुवा और बाल शरीरिक दोष को बाहर निकालने वाले उपचारक रुप वैद्य हुवा वस्ति एवं वीर्य से जननेन्द्रिय उत्पन्न हुआ
इस मंत्र में विभिन्न अंगों कि श्रृष्टि का कथन किया हैं ये शतपथ ब्राह्मण से भी प्रतिपादित हैं।
दयानन्द जी इस मंत्र में लिखते हैं
स्त्री पुरुष गर्भधान के समय  परस्पर मिलकर प्रेम से पुरित होकर मुख के साथ मुख आंखें के  साथ  आंखें मन के साथ मन शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भधारण करें जिससे कुरूप वा वक्रांग सन्तान न होवें दयानन्द जी ने यहां वेद भाष्य रच रहे हैं या कामशास्त्र या फिर अपने अन्तर वासना लिख रहें हैं इतना ही नहीं दयानन्द जी अपने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास के पृष्ठ संख्या १०३-१०४ में लिखते हैं जब वीर्य गीरने के  समय हो तब नेत्र के समान नेत्र नासिक के समान नासिक अर्थात शुद्धा शरीर से प्रसन्न रहें और ढिगें नहीं पुरूष अपना शरीर को ढिला जोड़ दें और स्त्री वीर्य प्राप्ती के समय अपना वायु को ऊपर खेच कर योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर अकार्षन कर के गर्भ में स्थित करें पश्चात दोनों सुद्ध जल से स्नान  करें इतना नीच अश्लील भाष्य करते हुवे लज्जा नहीं आती कि भगवान आपको गर्भधान के शिक्षा देगा इससे पता चलता है आर्य समाज परिछिन्न नास्तिक होते हैं वेद के नाम पर बेनाम भाष्य बनकर ग़लत प्रचार करते हैं

लेखक  पण्डित मिहिर राजपुरोहित

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

आदि शंकराचार्य नारी नरक का द्वार किस संदर्भ में कहा हैं?

कुछ लोग जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी पर अक्षेप करते हैं उन्होंने नारि को नरक का द्वार कहा हैं वास्तव में नारी को उन्होंने नारी को नरक के द्वार नहीं कहते परन्तु यहां इसके अर्थ नारी नहीं माया करके होता हैं इनके प्रमाण शास्त्रों में भी बताया गया हैं अब विश्लेषण निचे दिया हैं इसके प्रकरण कर्म संन्यास में रत मनुष्यों के लिए यहां नारी के अर्थ स्त्री नहीं होता हैं उचित रूप में ये माया के लिए प्रयुक्त होता हैं नीचे प्रमाण के साथ बताया गया हैं संसार ह्रुत्कस्तु निजात्म बोध : |   को मोक्ष हेतु: प्रथित: स एव ||   द्वारं किमेक नरकस्य नारी |   का सर्वदा प्राणभृतामहींसा ।।3।। मणि रत्न माला शिष्य - हमें संसार से परे कौन ले जाता है? गुरु - स्वयं की प्राप्ति एक ही जो हमें संसार से परे ले जाती है और व्यक्ति को तब संसार से अलग हो जाता है। यानी आत्म बोध। शिष्य - मोक्ष का मूल कारण क्या है? गुरु- प्रसिद्ध आत्म बोध या आत्म अहसास है। शिष्य - नरक का द्वार क्या है? गुरु - महिला नरक का द्वार है। शिष्य - मोक्ष के साथ हमें क्या सुविधाएं हैं? गुरु - अहिंसा (अहिंसा)। अपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें

क्या मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध है

आज कल आर्य समाजी मुल्ले ईसाई मुर्ति पूजा वेद विरुद्ध बोलते हैं इनके एक श्लोक न तस्य प्रतिमा अस्ति ये आधा श्लोक हैं इसके सही अर्थ इस प्रकार हैं दयानंद जी संस्कृत कोई ज्ञान नहीं था ईसाई प्रभावित होकर विरोध किया था इन पर विश्वास न करें।  न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इतेषः।। यजुर्वेद ३२.३  स्वयम्भु ब्रह्म ऋषि:  मन्त्रदेवता हिरण्यगर्भ: (विष्णु , नारायण,) परमात्मा देवता  भावार्थ: न तस्य गायत्री द्विपदा तस्य पुरुषस्य ( महा नारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति यस्य नाम एव प्रसिद्धं महाद्यशः अस्य प्रमाणं वेदस्य हिरण्यगर्भ ऽइत्येष मा मा हिंन्सिदितेष यस्मिान्न जातऽइतेषः इत्यादयः श्रुतिषु प्रतिपादितः इति अस्य यर्जुवेदमन्त्रस्य  अर्थः भवति।   न तस्य पुरुषस्य (महा नारायणस्य) प्रतिमा प्रतिमानं भूतं किञ्चिद्विद्यते - उवट भाष्य न तस्य पुरुषस्य ( महानारायणस्य) किञ्चद्वस्तु प्रतिमा प्रतिमानमुपनां नास्ति - महीधर भाष्य यस्य नाम एव प्रसिद्धम् महाद्यश तस्य नाम इति महानारयण उपनिषदे अपि प्रतिपादिताः  हिंदी अनुवाद: उस महा

धर्म की परिभाषा

हम सब के मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं धर्म क्या हैं इनके लक्षण या परिभाषा क्या हैं। इस संसार में धर्म का समादेश करने केलिए होता हैं लक्ष्य एवं लक्षण सिद्ध होता हैं लक्षण धर्म के आचरण करने के नियम हैं जैसे ये रेल गाड़ी को चलाने केलिए पटरी नियम के रूप कार्य करते उसी प्रकार धर्मीक ग्रन्थों में धर्मा अनुष्ठान   नियम दिया हैं  इसके विषय में वेद पुराण स्मृति तथा वैशेषिक सुत्र में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैं। वेद ,पुराण, वैशेषिक  एवं स्मृतियों में धर्म के बारे क्या कहा हैं १) या हि चोदना धर्मस्य लक्षणं सा स्वविषये नियुञ्जानैव पुरूषमवबोध्यति ब्रह्म चोदन तु पुरुषं अवबोधयतैव केवलं अववोधस्य चोदनाजन्यत्वात् न पुरूषोऽवबोधे नियुज्यते यथा अक्षार्थसंनिकर्षेण अर्थावबोधे तद्वत्  (ब्रह्म सुत्र ) यहां पर धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा में भिन्नता   अवश्य होता हैं धर्म तु कर्मना पष्ठी कहा है अर्थात इस कार्य जगत हमें वेद के पूरक  वचन के अनुसार धर्म के कार्य अवश्य करें  लेकिन ब्रह्म को केवल जानना होता हैं उसके साक्षात्कार से ब्रह्म का चोदन (समादेश) सिद्ध  होता है ( अर्थात श्रृति प्रमाण के प्र