क्या भगवान परशुराम सब क्षत्रिय को खत्म किये थे 1
ये उन दिनो कि बात है जब भारत में हैहाया का अधिपति इनके २१ शाखा थे इनका संक्षिप्त वर्णण करते हैं। विस्तार जानकारी केलिए भागवत भागवत पुराण नवम स्कन्ध पढ सकते हैं
हैहय वंश का वर्णन
एक बार लीलामय भगवान् विष्णु अपनी प्रिया लक्ष्मी से हास-परिहास की वार्ता कर रहे थे। किसी बात पर वह गम्भीर हो
गए। उन्होंने लक्ष्मी को मृत्युलोक में जाकर घोड़ी का जन्म लेने का शाप दे दिया। नारायण की लीला बड़ी रहस्यमय होती
है। लीला के पीछे कोई न कोई उद्देश्य निहित रहता है । शाप से लक्ष्मी जी को अत्यन्त क्लेश हुआ । वह नारायण को प्रणाम
करके चल दीं। जहां पर सूर्य पत्नी ने प्राचीन काल में अश्विनी (घोड़ी) के रूप में अत्यन्त कठिन तप किया था, वहीं पर
भगवती लक्ष्मी घोड़ी का रूप धारण करके रहने लगी। फिर उन्होंने एकाग्रचित होकर भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये
घोर तप प्रारम्भ कर दिया, एक सहस्त्र देव वर्ष उन्होंने घोर तप किया। तदुपरान्त आशुतोष भगवान् शंकर प्रसन्न होकर पार्वती
समेत नन्दीगण पर सवार होकर प्रकट हो गए। दिव्य दर्शन करके अश्विनी लक्ष्मी मन ही मन उसकी स्तुति करने लगीं ।
तब भगवान् शंकर ने हँसते हुए कहा- हे देवि सिन्धुजे! इस प्रकार भगवान् विष्णु को छोड़कर तुम मेरी उपासना क्यों कर
रही हो? तब लक्ष्मी ने कहा- हे आशुतोष भगवन् ! मेरे पति देव ने मुझे अश्विनी बनने का शाप दे दिया है। आप उस शाप
से मेरा उद्धार कराने की कृपा कीजिये । तब भगवान् शिव ने सान्त्वना देते हुए कहा हे देवि ! धैर्य धारण करो । मैं तुम्हारी तपस्या
से परम सन्तुष्ट हूँ। तुम्हारे स्वामी शीघ्र तुमसे आकर मिलेंगे ।
मेरी प्रेरणा से वह ही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे। उनकी इस लीला में भी कोई न कोई रहस्य है जो समय आने
पर तुम्हें प्रकट हो जाएगा। हे शुभ्रे ! तुम उनके जैसे पुत्र की जननी बनोगी। तुम्हारे पुत्र के सामने सभी लोग मस्तक झुकाएंगे।
वह भूमण्डल का चक्रवर्ती सम्राट होगा । पुत्र प्रसव करने के उपरांत तुम अपने स्वामी के साथ वैकुण्ठ चली जाओगी । तुम्हें
पुन: उनकी प्राणेश्वरी का पद प्राप्त हो जाएगा। तुम्हारे उस पुत्र का नाम 'एकवीर' होगा। उसी से भूमण्डल पर हैहय नामक
क्षत्रियों की वंशावली का विस्तार होगा। ऐसा वर देकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गए।
लक्ष्मी को वर प्रदान करके शिव जी ने कैलाश पहुंचकर अपने दूत चित्ररूप से नारायण को संदेश भेजा। दूत ने वैकुण्ठ
जाकर नारायण से कहा- हे नाथ ! भगवान् भूतभावन ने आपको प्रणाम सहित यह सन्देश भेजा है कि आपकी पत्नी भगवती
लक्ष्मी, यमुना तथा तमसा के संगम पर मृत्युलोक में घोर तप कर रही हैं। वह भी अश्विनी के रूप में, आप कृपा करके
उनके पास पधारें और उन्हें आश्वासन देकर प्रेम सहित अपने स्थान पर ले आयें ।
भगवान् ने कहा- हे दूत ! तुम महादेव जी को मेरा प्रणाम कहकर बता देना कि मुझे उनकी आज्ञा शिरोधार्य है। इस
प्रकार दूत को विदा करके भगवान् विष्णु अत्यन्त सुन्दर अश्व का रूप धारण करके वहां पहुंच गए जहां भगवती लक्ष्मी
अश्विनी का रूप धारण करके तपस्या कर रही थीं। वहां दोनों का परस्पर मिलन हुआ। वहीं पर कुछ दिनों के उन्होंने लक्ष्मी के गर्भ से एक अनुपम गुणों से सम्पंन पुत्र उत्पन्न हुआ। तदुपरान्त नारायण ने लक्ष्मी से कहा कि अब तुम अश्विनी रूप
त्याग कर पूर्व की भांति दिव्य देह धारण कर लो। हम दोनों अब दिव्य शरीर धारण करके वैकुण्ठ चलेंगे।
हे शुभानने ! यह कुमार यहीं पर रहेगा। भूमण्डल पर ययाति के वंश में तुर्वसु नाम का एक राजा है। वह इस समय
पुत्र-प्राप्ति की कामना से तप कर रहा है। मैंने यह पुत्र उन्हीं के लिये उत्पन्न किया है। हम उसे यहां भेजेंगे। वह स्नेहपूर्वक
इसे अपने घर ले जायेंगे। तब तक इसकी देखभाल यहां की वन देवियां करेंगी। ऐसा कहकर नारायण लक्ष्मी को लेकर
वहां पधारे जहां राजा तुर्वसु तप कर रहा था । नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन करके राजा तुर्वसु उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके प्रार्थना
करने लगा। नारायण ने कहा- हे राजन् ! मैं तुम्हारी तपस्या से सप्तुष्ट हुआ । तुम पुत्र की कामना से तप कर रहे हो । मैं अभी
तुम्हारी कामना पूर्ण किये देता हूँ। हे ययाति नन्दन ! तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें मेरे जैसा ही पुत्र प्राप्त होगा। इस समय तुम तमसा
और यमुना के संगत पर जाओ, वहां तुम्हें मेरा ही पुत्र वटवृक्ष के नीचे मिलेगा। उसे तुम अपने साथ ले जाओ। ऐसा निर्देश
देकर भगवान् लक्ष्मी सहित अन्तर्धान हो गए। राजा तुर्वसु संगम से उस पुत्र को प्रेम सहित अपने घर ले आए। उसके जातकर्म
आदि संस्कार परम उल्लास सहित किये गए। घर-घर बधावे बजने लगे। मांगलिक उत्सव मनाए गए। बड़ेसमारोह के साथ
उनका नाम' एकवीर' रखा गया । गुरुकुल में जाकर उसने धनुर्वेद, राजनीति, धर्मनीति की शिक्षा प्राप्त की। फिर राजा तुर्वसु
ने उस राजकुमार का राजतिलक कर दिया। तदुपरान्त महाराज तुर्वसु का शरीर शांत हो गया। राजा एकवीर (हैहय) ने अपने
पिता का और्ध्वदैहिक कार्य सम्पन किया ।
कालान्तर में महाराज रैभ्य की पुत्री एकावली से राजा एकवीर का विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार सम्पंन हुआ। समय
पर उनके एक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ जो संसार में कृतवीर्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इन्हीं कृतवीर्य का पुत्र संसार में कार्त्तवीर्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे लोग सहस्त्रार्जुन के नाम से भी पुकारते थे ।
हैहय वंश की उत्पत्ति इस प्रकार हुई ।
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