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वेदों में गणपति भगवान भाग-०१

वेदों में गणेश भगवान 
हमारे हिन्दू धर्म का रोचक तथ्य है कि पांच देवताओं को परब्रह्म परमात्मा मानें जाते हैं। इनमें से शिव , गणपति, देवी, सुर्य और विष्णु मुख्य हैं। कोई भी पुजा वा देवकार्य में अग्र पुजा के अधिकारी  कौन हैं उस देव का वैदिक महत्व क्या हैं
भगवान आदि शंकराचार्य पंचायतन पुजा पद्धति का प्ररम्भ किये थे।
इसका चित्र समेत डाल दिया हुं 

गणेश परब्रह्म का प्रयोग वेद में वृहस्पति का अर्थ में होते हैं बृहस्पति शब्द का उत्पत्ति इस प्रकार होता हैं।
बृहत्या वाचः पतिः बृहस्पति होता हैं अब गणेश ही क्यों गणेश ज्ञान का भगवान् हैं अतः बृहत अर्थात महान वाच अर्थात मंत्र उसके पति रक्षक गणेश भगवान हैं । आचार्य सायण जी भी अपने भाष्य में ब्रह्मण का अर्थ मंत्र करते हैं इसलिए मंत्र का रक्षा करने वाले परब्रह्म परमात्मा ही महागणपति हैं। यहां वाच शब्द का अर्थ उच्यतेऽसौ अनया वा वच होता हैं अब मीमांसा दर्शन में कर्म को ही परब्रह्म मानते हैं यहां मीमांसा में एक ही ईश्वर है जिसके प्रति हवन होता हैं। यहां ये नहीं समझना चाहिए उस ईश्वर का ही हवन होता हैं । यहां कर्म में दो पुर्वोत्तर न्यास और प्रत्योत्तर न्यास अब यज्ञ में  तैतरीय उपनिषद में कहा हैं।


अथाधिजौतिषम् । अग्निः पूर्वरूपम् । आदित्य उत्तररूपम् । आपः सन्धिः । वैद्युतः सन्धानम् । इत्यधिज्यौतिषम् ॥३॥
ज्योतिष विद्या में अग्नि को पुर्व रूप में मानते हैं। पंचा च में सुत्र संधान से सब भूत तत्व वासुओं में लिप्त हो जाता हैं यहां दो भेद हैं। आगे भी किया हैं इसे लोकिकं अलोकिकं कहते हैं इसके चार्चा अन्य 
 लेख में करते हैं यहां लोकिक भेद हैं। इसके कारण सुर्य में अग्नि भूत लिप्त होता हैं इसलिए अदित्य को उत्तर रूप लेते हैं। आप संन्धि इसका अर्थ ये होता हैं। आपो वै रसः अन्नादयाः यहां आपो का रस इसलिए कहते हैं कि वही मूल रूप तत्व कहते हैं बृहदारण्यक उपनिषद् में कहते हैं। आप एवेदमग्र वो आप से एक सत्य प्रकट हुआ था वो सत्य ही परब्रह्म परमात्मा था । क्यो कि अथर्वशीर्ष में गणपति को सत्यं वच्मि  कहा हैं । इसलिए गणपति ही परब्रह्म परमात्मा हैं इसलिए  गाणपत्य में गणेश को ही परब्रह्म कहते हैं। इसलिए आप ही सब रस युक्त पदार्थ हैं अर्थात वनस्पतियों में हैं जिससे हम हवन करते हैं । इसलिए आप को रस कहते हैं यह मीमांसा में रस वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त होता हैं। आगे मीमांसा न्याय में ये कहा गया हैं ऋतं मंत्रमेति देवता मंत्र मयो। अब ऋत ही मंत्र हैं और ऋत गणेश भगवान हैं क्यों कि अथर्वशीर्ष में ऋतं वच्मि कहा हैं और आचार्य सायण भाष्य में मंत्र का अर्थ बृहत वाच से किये हैं तो उसके रक्षक के अर्थ में बृहस्पति शब्द से गणपति भगवान ही सिद्ध होते हैं ।

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