जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्वार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यतसूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ १) जन्म आदि अस्य यतः इस में समस्त संसार का जगत के उपादान कारण रुप महानारयण का स्वरूप का कथन किया गया हैं, जड़ वस्तु आदि में स्वयं विवेक प्रत्यय नहीं होता हैं ,जड़ वस्तु अपने अस्तित्व के बारे में नहीं जान सकता हैं। अगर कोई ये मानें की किसी वस्तु एक चेतना के इच्छा के बिना ही प्रकट हो गया तो बहुत ही हस्य सपद बात हैं वेदादि ग्रंथों में बहुत से बार ऐक्ष धातु का प्रयोग होता हैं यहां इसका अर्थ सक्षी के रूप में संकल्प करना अगर कोई ये कहे की भगवान के रहित उस वस्तु ही प्रदान था तो उसमें भगवान निमित्त मात्र था तो भगवान उस वस्तु क्यों जानेगा जिसमें हो निमित्त मात्र था। अगर घड़ा बनाने वाले कुम्हार भी अपने रहित वस्तु जानकर ही कार्य करता हैं घड़े स्वयं नहीं बनते उस का कारण ही एक चेतन ही हैं । संख्या दर्शन ये उदाहरण का अर्थ ये नहीं कुम्हार बहार हैं अंदर भी हैं सो निमित्त मात्र हैं । ये केवल द्वैत में सही हैं। क्यो...